नेताजी- १४७

सुभाषबाबू को जर्मनी ले जाने में बर्लिन से हो रही टालमटोल बर्दाश्त के बाहर हो गयी थी और उन्होंने एक टोलीवाले राहबर – या़कूब के साथ स्वयं ही अ़फ़गाणिस्तान-रशिया सरहद के पहाड़ी इला़के में से बहती नदी को पार कर रशियाप्रवेश की कोशिश करने का तय किया था।

उत्तमचन्द की दुकान में भगतराम और उत्तमचन्द के साथ या़कूब की इस सिलसिले में मीटिंग्ज़ शुरू भी हुई थीं। उस नदी को पार करने के लिए एक ब्रिज बाँधा गया था, लेकिन दिनदहाड़े खुले आम उस ब्रिज पर से जाना नामुमक़िन था। क्योंकि उस ब्रिज के दोनों छोरों पर दोनों देशों के सैनिक़ों का भारी बन्दोबस्त रहता था। अतः उस प्रदेश से सोने का स्मगलिंग करनेवालें लुटेरों ने एक ख़ु़फ़िया मार्ग को ‘विकसित’ किया था। उस ब्रिज से का़फ़ी दूरी पर नदी में एक जगह चमड़े की थैलियों को फ़ुलाकर हवाबन्द कर रखा गया था। उन्हीं की सहायता से लुटेरे नदी पार कर जाते-आते थे। या़कूब भी सुभाषबाबू को उसी मार्ग से ले जानेवाला था। सुभाषबाबू को सुरक्षित रशिया ले जाने की कीमत उसने छह सौ रुपये बतायी थी। हालाँकि यह मार्ग ख़तरों से भरा हुआ था, लेकिन सुभाषबाबू अब पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने या़कूब के साथ प्रयाण करने के लिए २३फ़रवरी का दिन तय किया था।

लेकिन उससे पहले आख़री बार टटोलने के लिए भगतराम जब २२ तारीख़ को सिमेन्स की कचहरी में जाकर हेर थॉमस से मिला, तो एक अच्छी ख़बर आयी थी। सुभाषबाबू को बर्लिन ले आने के लिए अपने मित्रराष्ट्रों की सहायता से हर संभव कोशिश करने का निर्णय जर्मन सरकार ने लिया था; और जर्मनी, इटली एवं जापान इन तीनों अक्षराष्ट्रों ने (द्वितीय विश्‍वयुद्ध में ब्रिटन के शत्रुराष्ट्र – ‘अ‍ॅक्सिस पॉवर्स’ ) उनके चौथे साज़ेदार रहनेवाले रशिया पर इसलिए राजनीतिक मार्ग के ज़रिये दबाव लाना शुरू कर दिया था कि सुभाषबाबू को बर्लिन ले आते समय उन्हें रशिया में से यात्रा करने की अनुमति मिल जायें। ऐसी अनुमति जल्द ही मिल सकने के आसार थे। यह अनुमति मिलने पर जर्मन एम्बसी उन्हें रशिया की सरहद तक पहुँचाने का प्रबन्ध करेगी, यह पहले तय हुआ था। लेकिन सुभाषबाबू की सहायता करने के लिए जर्मनी से ज़्यादा इटली द्वारा विशेष रुचि दिखायी गयी थी। साथ ही, जर्मन एम्बसी पर ब्रिटीश गुप्तचरों की कड़ी नज़र रहने के कारण, सुभाषबाबू को सरहद तक ले जाते समय उनपर जानलेवा हमला हो सकने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता था। इसलिए रशिया की सरहद तक सुभाषबाबू को पहुँचाने की ज़िम्मेदारी काबूलस्थित इटालियन एम्बसी पर सौंपी गयी थी। अतः इससे आगे की बातचीत भगतराम काबूलस्थित इटालियन एम्बसी के उच्च-अधिकारी पिएत्रो कारोनी इनके साथ करें, ऐसा उसे थॉमस ने कहा। भगतराम उसे फ़ौरन जाकर मिलें, यह बताकर थॉमस ने कारोनी को तुरन्त फ़ोन करके इस बारे में इत्तलाह कर दी।

इतने दिनों की निष्क्रियता के चलते मन ही मन मुरझा गया भगतराम, इस घटनाचक्र के कारण तरोताज़ा होकर फ़ौरन इटालियन एम्बसी के लिए निकला। पूर्व में रशियन एम्बसी की खोज करते समय उसने जर्मन और इटालियन एम्बसी का भी पता कर लिया था। इटालियन एम्बसी के बाहर तैनात सुरक्षारक्षकों से कुछ न कुछ बहाने बनाकर, वहाँ की सुरक्षायन्त्रणा की एक एक कड़ी को पार करते हुए वह कारोनी के सामने जा खड़ा हुआ। कारोनी मीटिंग में था। हालाँकि उसे यह पता था कि भगतराम वहाँ आनेवाला है, मग़र फ़िर भी मीटिंग में अन्य लोगों के सामने उसने उसे पहचानने से इन्कार करते हुए – ‘कौन हो तुम? कहाँ से आये हो?’ वगैरा पूछताछ का नाटक किया। बिना अपॉइंटमेंट लिये उसके वहाँ आने पर कारोनी ने नाराज़गी ज़ाहिर कर उसे बाहर बैठने के लिए कहा। मीटिंग में शामिल हुए स्थानीय कर्मचारियों में से ‘ग़द्दार’ कौन हैं, यह बताना मुश्किल रहने के कारण ऐसी सावधानी बरतना अनिवार्य था। उस मीटिंग के बाद कारोनी और भगतराम एकान्त में मिले। कारोनी ने भगतराम को संभाव्य योजना के बारे में जानकारी दी। लेकिन इस योजना में कई राष्ट्रों का सहभाग रहने के कारण राजनीतिक स्तर पर से घटनाएँ होने में थोड़ा वक़्त तो लगेगा ही, ऐसा कहकर, १०-१५ दिनों में काम होने की संभावना ज़ाहिर की। अभी और १०-१५ दिन? भगतराम की आँखों के सामने सुभाषबाबू का मायूस चेहरा दिखाई दिया। उसने सा़फ़ सा़फ़ कारोनी को बताया कि आज तक जो देरी हुई है, वही सुभाषबाबू की बर्दाश्त के बाहर हो गयी है और वे कल ही एक श़क़्स के साथ नदी पार कर स्वयं ही रशिया में दाखिल होने की कोशिश शुरू करनेवाले हैं।

यह सुनकर चिन्ताग्रस्त हुए कारोनी ने – ‘सुभाषबाबू को ऐसा दुःसाहस हरगीज़ नहीं करना चाहिए। उस मार्ग में कदम कदम पर ख़तरे मँड़राते रहते हैं। सुभाषबाबू यदि यहाँ की ब्रिटीश एम्बसी के हाथ लग जाते हैं, तो वे इस कदर खुशी से झूम उठेंगे कि मानो उनके हाथ कोई बहुत बड़ा खज़ाना लग गया हो, क्योंकि सुभाषबाबू को ग़िऱफ़्तार कर लेने से इंग्लैंड़ के राजदरबार में उनका रोब और बढ़ जायेगा। उनके एजन्ट्स भी यहाँ पर भारी मात्रा में हैं। इसलिए कभी भी धोख़ाधड़ी से वे ग़िऱ़फ़्तार हो सकते हैं। और तो और, नदी को पार करते समय यदि पहरे पर मौजूद किसी सैनिक ने देख लिया, तो गोलीबारी में उनकी जान भी जा सकती है’ ऐसा भगतराम से सा़फ़ सा़फ़ कहा। ‘इससे अच्छा यह है कि राजनीतिक स्तर पर इस योजना को असल में अभी अभी शुरुवात हुई है। यदि वे थोड़ा और सब्र करते हैं, तो उन्हें इतना छुपते-छुपाते, इस तरह जान की बाज़ी लगाकर यह दुःसाहस करना नहीं पड़ेगा, बल्कि वे गुप्ततापूर्वक ही सही, लेकिन बिना किसी डर के रशिया जा सकते हैं’ यह मशवरा कारोनी ने भगतराम को दिया। इतना ही नहीं, बल्कि – ‘तुम कुछ भी करके सुभाषबाबू को आज शाम ७ बजे तक यहाँ पर मुझसे मिलने ले आना, फ़िर मैं स्वयं ही उनसे बातचीत करता हूँ’ ऐसा भी उसने भगतराम से कहा। साथ ही, अपने सेक्रेटरी आन्झालोती से भगतराम की पहचान करा दी और कहा कि ‘जब तुम सुभाषबाबू को ले आओगे, तो ये ही दरवा़जे के पास खड़े रहेंगे, अतः सुरक्षारक्षकों से परेशान नहीं होना पड़ेगा।’

तब तक पाँच बज चुके थे यानि बहुत ही जल्दी में यह सब करना था। भगतराम फ़ौरन उत्तमचन्द के घर आया। ‘रोम में रोमन व्यक्ति की तरह ही आचरण करना चाहिए’ (‘व्हेन यू आर इन रोम, बीहेव्ह लाइक अ रोमन’) इस पंक्ति के अनुसार हमेशा अपना आचरण रखनेवाले सुभाषबाबू गत कुछ दिनों से हाथ पे हाथ डालकर न बैठते हुए, उत्तमचन्द के ख़ास आदमी से धीरे धीरे युरोपीय कपड़ें सिला रहे थे। वहाँ पर आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी कर रहे थे।

घर पहुँचते ही भगतराम ने यह शुभसमाचार सुभाषबाबू तथा उत्तमचन्द को बताया। उसीके साथ घर में नवचेतना की एक लहर दौड़ गयी। सुभाषबाबू ने तुरन्त ही कारोनी से मिलने की तैयारियाँ शुरू कर दीं। इतने दिनों से बढ़ी हुई अपनी पठानी स्टाईल दाढ़ी को उन्होंने युरोपीय स्टाईल में काटकर ‘ट्रिम’ कर दिया। उत्तमचन्द ने अपने लिए एक सूट बनवाया था, वही उन्हें भेंट किया था, जो कि उनके बदन पर फ़िट बैठ गया। साथ ही उसने एक ख़ास काबुली टोपी भी उन्हें भेंट की थी। सूट और टोपी पहनने के बाद, मूलतः ही तेजस्वी रहेवाले सुभाषबाबू एकदम वहाँ के रईस प्रतिष्ठित नागरिकों की तरह ही प्रतीत होने लगे।

ऐसा हुलिया बनाकर सुभाषबाबू कारोनी से मिलने इटालियन एम्बसी की ओर निकले।

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