नेताजी- १४६

उत्तमचन्द के घर की मेहमाननवाज़ी में सुभाषबाबू के दो-तीन दिन बड़े मज़े से गुजरे। वे कमरे से बाहर नहीं निकलते थे। उनके लिए खाना, चाय-नाश्ता वगैरा उनके कमरे में भेजा जाता था। कई बार उत्तमचन्द की छोटी-सी बेटी ही उन्हें कॉफ़ी लाकर देती थी। उस नन्ही-सी परी के साथ उनकी अच्छी-ख़ासी दोस्ती भी हो चुकी थी। रही कहीं बाहर जाने की बात, तो वहाँ भगतराम ही जाता था। लेकिन आख़िर एक दिन जिसका डर था वही हुआ। सुभाषबाबू को कॉफ़ी देने के बाद वहाँ से निकलते हुए उनके कमरे का दरवाज़ा बाहर से बन्द करना उत्तमचन्द की बेटी कार्यव्यस्ततावश भूल गयी और ठीक उसी समय अटारी जा रहे उनके किरायेदार ने – रोशनलाल ने सुभाषबाबू को देख लिया और वे चौंक गये। सुभाषबाबू ने भी उस समय चष्मा पहना था, जिससे वह उन्हें फ़ौरन पहचान गया। उन्हें वहाँ देखकर पसीना छूटे हुए रोशनलाल ने उस घर को छोड़ने का फ़ैसला उत्तमचन्द से कहा और वह शीघ्र ही सामान बाँधकर दूसरी जगह रहने भी गया। लेकिन उसने वास्तविक कारण न बताते हुए – ‘आपके घर में आपके द्वारा रखे गये अनजान मेहमान से मेरी पत्नी को डर लगता है’ यहाँ से लेकर ‘आपके घर में किसी रूह का साया है’ यहाँ तक कई बेतु़के कारण बताये थे।

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अब सभी पेंच में पड़ गये। इस डरपोक इन्सान ने यदि कहीं ग़लती से भी अपना मुँह खोल दिया, तो बड़ी मुसीबत ही खड़ी हो सकती थी। सबसे अहम बात यह थी कि इतने सालों से उत्तमचन्द के मक़ान में किरायेदार बनकर रहनेवाला श़ख्स इस तरह यक़ायक़ जगह छोड़कर चला गया, इस बात की मोहल्ले में चर्चा तो अवश्य ही शुरू हो जाती। इसीलिए सुभाषबाबू ने उत्तमचन्द के घर को फ़ौरन छोड़कर फ़िलहाल किसी सराई में ठहरने का निर्णय किया; इसकी वजह यह थी कि मान लीजिए कि यदि उस दौरान पुलीस छापा मारती भी है, तो उत्तमचन्द को कोई तकली़फ़ न हो। इस दौरान उत्तमचन्द रोशनलाल से मिलकर उसके घर छोड़ने की असली वजह का पता कर लें, यह भी तय हो गया।

भगतराम ने सुभाषबाबू के लिए उपलब्ध सराइयों में से थोड़ीबहुत अच्छी ऐसी सराई खोज़ रखी थी। मग़र फ़िर भी वहाँ के रूखेसूखे और घटिया दर्ज़े के भोजन के कारण एक दिन में ही पेचीस और पेटदर्द की तक़ली़फ़ से उनका स्वास्थ्य ख़राब हो गया। वहाँ के कड़क पराठे चबाते चबाते उनके दाँत भी दर्द करने लगे। अत एव निरुपायित होकर भगतराम दूसरे दिन उत्तमचन्द से मिलने पुनः उसकी दुकान में गया, जब कि उत्तमचन्द तो चातक की तरह उसकी ही राह देख रहा था। पहले ही मेरे किरायेदार के कारण सुभाषबाबू को कष्ट सहना पड़ा, यह बात उसके दिल में चुभ रही थी। लेकिन सुभाषबाबू किस सराई में ठहरे हैं, इसकी जानकारी न रहने के कारण उनके साथ सम्पर्क करना सम्भव न हो सका था। वह रोशनलाल से मिल चुका था और उसके मन की ग़लत़फ़हमी को दूर करके – सुभाषबाबू की इस मुश्किल की घड़ी में सहायता करना हमारा फ़र्ज़ है और देशसेवा भी है यह उसे समझाने में उत्तमचन्द क़ामयाब रहा था। सबसे अहम बात यह थी कि इस बात को उसके मन में दृढ़ करने के लिए – ‘काबूल में हमारे अलावा अन्य किसी से भी जानपहचान न रहनेवाले सुभाषबाबू के साथ यदि कुछ अनहोनी होती है, तो उसकी सारी ज़िम्मेदारी तुम्हारी ही रहेगी’ यह उसने रोशनलाल को निग्रहपूर्वक बताया, जिससे कि रोशनलाल और भी शरमिन्दा हो गया। अपनी क़ायरता को क़बूल करके, सुभाषबाबू को उत्तमचन्द जितनी सहायता करना शायद मेरे लिए मुमक़िन भी न हो, लेकिन सुभाषबाबू मुसीबत में पड़ जायें, यह मैं सपने में भी नहीं सोच सकता। अत एव इस मामले में मैं पूरी तरह गोपनीयता ही रखूँगा, चाहे फ़िर मेरी जान ही क्यों न चली जाये, यह वचन उसने स्वयं ही उत्तमचन्द को दिया था। अब सुभाषबाबू को वापस घर ले आने में कोई दिक़्क़त नहीं थी। इसलिए पुनः रात के अन्धेरे में उत्तमचन्द के घर लौट आये।

इसी दौरान फ़रवरी की १२ तारीख़ आ गयी, मग़र फ़िर भी बर्लिन से किसी भी प्रकार का ठोस जवाब नहीं मिल रहा था। बस, ‘तैयारियाँ शुरू हैं’ इस तरह के गोल-गोल सन्देश आ रहे थे।

इस विलम्बितता को न सहते हुए रशिया में प्रवेश करने के लिए अ़फ़गाणिस्तान-रशिया सीमाभाग में से बहनेवाली ‘ऑक्सस’ नदी में से जाने की कोशिश करने का सुभाषबाबू ने तय किया। हालाँकि अब तक भगतराम कदम कदम पर उनका हमसाया बनकर उनके साथ चल रहा था, लेकिन भगतराम का रशिया में कोई काँटॅक्ट न रहने के कारण अब अगले स़फ़र को उन्हें अकेले ही तय करना था। लेकिन उस पहाड़ी इला़के के रास्तें टेढ़े-मेढ़ें और एक-दूसरे को क्रॉस करनेवाले रहने के कारण रास्ता भटककर कहीं और ही जाने का ख़तरा था। साथ ही, इस विभाग में आनेजाने वाले मुसा़फ़िरों का रास्ता रोककर उन्हें प्रायः लूटा जाता था। अत एव किसी जानकार राहबर (गाईड़) का होना ज़रूरी था। इस तरह के राहबर की खोज करने के लिए सुभाषबाबू ने उत्तमचन्द से कहा।

उत्तमचन्द एक ऐसे राहबर को जानता था – जिसका नाम था ‘याकूब’। वह उस पहाड़ी इला़के का ही निवासी था। लेकिन उसके मामले में एक समस्या यह थी कि वह खून के इलज़ाम में ‘वाँटेड’ था। उसकी पत्नी भी इसी पहाड़ी इला़के के ड़कैतियों के ‘वंश’ की थी। इसलिए इस इला़के में उसका का़फ़ी रोब था और उसके साथ में रहने पर सुभाषबाबू को ड़कैतियों से कोई ख़तरा नहीं था। साथ ही, याकूब के मामले में एक समस्या यह भी थी कि वह स़िर्फ़ पैसों के लिए काम करता था। यह उत्तमचन्द द्वारा बताये जाने के बाद सुभाषबाबू ने ‘यदि वह मुझे रशिया ले जा रहा है, तो चाहे वह खूनी हो या फ़िर कुछ और, मुझे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसलिए मैं उसके साथ अवश्य जाऊँगा। उसे पैसे दे देते हैं’ यह ज़ोर देकर उत्तमचन्द से कहा। लेकिन ‘वह केवल पैसे के लिए ही काम करता है’ इस सिक्के के दूसरे पहलू की ओर भी उत्तमचन्द ने उनका ध्यान बटाते हुए उनसे कहा कि यदि याकूब के साथ सुभाषबाबू हैं, यह जानकारी किसी अ़फ़गाणी ‘इफ़ॉर्मर’ को या किसी ब्रिटीश एजंट को मिल गयी और उसने हमसे ज़्यादा रक़म उसे दे दी, तो वह सुभाषबाबू को फ़ॅंसाने में भी आगेपीछे नहीं देखेगा। मग़र तब भी इस निष्क्रियता से मौत भी बेहतर है, यह कहकर वह ख़तरा उठाने का सुभाषबाबू ने तय कर लिया। स़िर्फ़ मैं कौन हूँ, रशिया जाने में मेरा क्या उद्देश्य है, इस बारे में उसे कुछ भी न बताने की सूचना सुभाषबाबू ने उत्तमचन्द को अवश्य दी।

२३ तारीख़ को याकूब के साथ रशिया की सरज़मीन पर कदम रखने के लिए जाने का सुभाषबाबू ने तय कर लिया था और उस दिशा में उत्तमचन्द की दुकान में उत्तमचन्द तथा भगतराम की याकूब के साथ प्राथमिक बातचीत भी हुई थी। उससे पहले २२ तारीख़ को एक आख़री कोशीश के रूप में भगतराम हेर थॉमस से मिलकर आया था और ताज्जुब की बात यह थी कि इससे पहले की मुलाक़ातों में ठोस रूप में कुछ भी हाथ न लगने के कारण हर मुलाक़ात के साथ निराशा का अन्धेरा घना होता जा रहा था और उसमें ठीक उस दिन की मुलाक़ात में दूर से ही सही, मग़र आशा की एक किरण उन्हें नज़र आने लगी।

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