नेताजी- १२१

१८ जून १९४० को नागपुर में फॉरवर्ड ब्लॉक का दूसरा अधिवेशन हुआ। उसके अध्यक्षपद पर से भाषण करते हुए सुभाषबाबू ने, फ़ौरन आन्दोलन शुरू करके आरपार की लड़ाई लड़ने का वक़्त आ चुका है, यह प्रतिपादित किया। मौजूदा हालात में इंग्लैंड़ को भारत की, आज तक कभी भी महसूस नहीं हुई होगी, उतनी ज़रूरत महसूस हो रही है और इसीलिए भारत की सत्ता को फ़ौरन अस्थायी राष्ट्रीय सरकार को सौंप देने के बारे में इंग्लैंड़ को बातचीत करने पर मजबूर करना आवश्यक है, यह भी उन्होंने कहा। युद्ध के ख़त्म होते ही वह अस्थायी राष्ट्रीय सरकार घटनासमिती की स्थापना करके आज़ाद भारत की राज्यघटना बनायेगी, यह सुझाव भी उन्होंने दिया।

लेकिन भारत में देशव्यापी विराट आन्दोलन का निर्माण केवल गाँधीजी ही कर सकते हैं, इसका एहसास रहने के कारण ही गाँधीजी से मिलने सुभाषबाबू नागपुर से वर्धा गये। उस मुलाक़ात में सुभाषबाबू ने गाँधीजी को कई तरह से मनाने की कोशिशें कीं। युद्ध की कैंची में फँसे इंग्लैंड़ के साथ आरपार की लड़ाई लड़ने का यही सही समय है। आप बस, आन्दोलन छेड़ने का ऐलान कर दीजिए, आपको पहला प्रतिसाद देनेवाला पहला सत्याग्रही यह सुभाष होगा, यह भी उन्होंने गाँधीजी से कहा। लेकिन तब भी गाँधीजी ने, हालात का ग़लत फ़ायदा उठाकर, युद्ध की कैंची में फँसे इंग्लैंड़ को और मुश्किल में डालना मुझे मंज़ूर नहीं है, यह सुभाषबाबू से कहा। साथ ही, हिंसा का मार्ग मुझे कदापि मान्य नहीं हो सकता और फ़िलहाल देश आरपार की लड़ाई लड़ने के लिए परिपक्व नहीं हुआ है ऐसा मेरा मानना है, यह भी उन्होंने सुभाषबाबू को बताया।

सुभाषबाबू के साथ बात करते हुए गाँधीजी बहुत ही व्यथित हुए थे। सुभाष भले ही काँग्रेस छोड़कर चला गया हो, लेकिन उसे में मेरे मन से कभी भी निकाल नहीं पाया, यह उन्होंने मन ही मन में क़बूल कर लिया। वहीं, सुभाषबाबू से हुई इस मुलाक़ात ने उनके सामने एक नयी पहेली खड़ी कर दी थी। अब उन्हें पूरा यक़ीन हो चुका था कि सुभाष अवश्य देश छोड़कर बाहर जाने की सोच रहा है और स्वतन्त्रता की जंग, इस तरह अपने अन्तिम पड़ाव पर होते हुए, ऐसे बेशक़ीमती हीरे को गँवाने के लिए गाँधीजी तैयार नहीं थे। उन्होंने सुभाषबाबू से कुछ अवधि तक सब्र रखने के लिए कहा। तब सुभाषबाबू ने गाँधीजी से प्रार्थना की कि कमसेकम इस तरह के आन्दोलन के लिए आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। उसपर गाँधीजी ने कहा, ‘आप स्वयंप्रकाशी हैं, आपको अन्य किसी के भी आशीर्वाद की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मौजूदा हालात संघर्ष के लिए योग्य नहीं हैं, यह मेरी भीतरी आवाज मुझसे कह रही है। इंग्लैंड़ युद्ध में चाहे जीतें या हारें, लेकिन वह कमज़ोर ही होनेवाला है। इसीलिए युद्ध के ख़त्म हो जाने के बाद हम और अच्छी तरह से हमारी शर्तें मनवाने में क़ामयाब हो सकते हैं ऐसा मेरा मानना है। फिर भी यदि आप आन्दोलन शुरू करना चाहते हैं, तो अवश्य कीजिए। आपकी कोशिशों से ही सही, लेकिन यदि भारत आज़ाद होता है, तो उसके लिए आपको पहली बधाई देनेवाला मैं ही रहूँगा।’ लेकिन भारतमाता को अँग्रे़जों की ग़ुलामी की ज़ंजिरों से आज़ाद करने के लिए सुभाषबाबू के मन में इतनी उत्कटता थी कि उन्हें गाँधीजी का परामर्श रास नहीं आया।

आख़िर निरुपायित होकर गाँधीजी ने सीने पर पत्थर रखकर उनसे विदा ले ली। क्या अब सुभाष से कभी मुलाक़ात हो भी पायेगी या नहीं, इस आशंका से वे सद्गद हुए थे….

….और सचमुच वह उन दोनों की आख़िरी मुलाक़ात ही साबित हुई!

वर्धा से व्यथित मन के साथ सुभाषबाबू कोलकाता लौटे। उसी वक़्त फिर एक बार अछरसिंग चीना ने उनसे मुलाक़ात की। तब सुभाषबाबू ने पुनः उनके साथ अधिक सविस्तार चर्चा करके, अपनी सुनिश्चित कार्ययोजना के बारे में आपको अवगत कराऊँगा, यह उनसे कहा।

बंगाल सरकार के पास इकट्ठा हुई स्वयं की गुप्त जानकारी के बारे में जानने के बाद तो सुभाषबाबू और भी सावधानी बरतकर हर कदम उठा रहे थे। वे स़िर्फ अपने चुनिन्दा साथियों के साथ विचारविमर्श करते थे। पहले की तरह निजी तौर पर मुक्त मतप्रदर्शन करने पर उन्होंने रोक लगा दी थी। यह करने की एक वजह यह भी थी कि वे जान गये थे कि उनकी अगली योजनाओं के बारे में कोलकाता के हर नुक्कड़ पर बातचीत होती थी।

हुआ यूँ कि एक दिन कोलकाता म्युनिसिपालिटी के मुख्य अभियंता सुबह ही सुभाषबाबू के घर आये। इतनी सुबह भला इनका क्या काम हो सकता है, इस बात का सुभाषबाबू को अँदाजा नहीं लग रहा था। वे सुभाषबाबू से मिन्नतें करने लगे, ‘‘बाबूजी, विदेश जाने से पहले क्या आप मुझपर इतना रहम करेंगे? क्या आप म्युनिसिपालिटी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी इस पद के लिए कृपया मेरे नाम की सिफ़ारिश मेयर के पास करेंगे? मेयर आपके दोस्त हैं। वे आपकी बात नहीं टालेंगे।’’

वह सुनकर चौंक उठे सुभाषबाबू ने जानबूझकर ताज्जुब के साथ उनसे पूछा, ‘मैं? और विदेश जा रहा हूँ? कहाँ? और किसने कहा आपसे?’
तब उन्होंने ‘अब आप रशिया जानेवाले हैं, ऐसा वे फलानाफलाना नेता कह रहे थे’ ऐसा बड़े आराम से सुभाषबाबू से कहा।

अपनी ‘गुप्त’ योजना इस तरह सरेआम चर्चा में है, यह जानने का बाद तो सुभाषबाबू स्तंभित ही हुए। लेकिन इतने में अपने आपको सँभालकर उन्होंने ‘क्या कल रात की नशा अबतक उतरी नहीं? भला विदेश में जाकर मैं क्या करूँगा? मैं यहाँ भारत में ही आन्दोलन छेड़ना चाहता हूँ’ यह मज़ाकी अँदाज में कहकर उन्हें अलविदा कहा।

लेकिन इस मसले की अनदेखी करना नामुमक़िन था। सुभाषबाबू के मन में विचारचक्र तेज़ी से दौड़ रहा था। मेरी ‘गुप्त’ योजना की चर्चा यदि इस तर लोगों में खुले आम होती है, तो सरकार के पास भी यक़ीनन ही उसे दर्ज़ किया जाता होगा और अब सरकार उस दृष्टि से मुझपर और भी कड़ी निगरानी रखना शुरू कर देगी, इस एहसास के साथ वे और भी चौकन्ने हो गये। मैं ऐसा कुछ भी करनेवाला नहीं हूँ, इसपर सरकार को यक़ीन कैसे होगा, इस बारे में वे सोचने लगे।

….और सोचते सोचते उन्हें रास्ता मिल गया – कारावास। यस! कुछ भी करके एक बार यदि मैं जेल चला जाता हूँ, तो सरकार को यह यक़ीन हो जायेगा कि उसे ‘मिलीं’ ‘खुफ़िया जानकारी’ महज़ अफ़वाह ही थी और उसका यक़ीन होने के कुछ समय बाद सरकार मेरे प्रति बेख़बर हो जायेगी। और एक बार जब सरकार की मुझपर रहनेवाली ‘ख़ास नज़र’ कम हो जायेगी, तब जाकर मैं अगली योजना को कार्यान्वित कर सकूँगा, यह उन्होंने तय कर लिया।

लेकिन सुभाषबाबू को पकड़ने पर बंगाल को खोना पड़ेगा, इसका एहसास सरकार को रहने के कारण वह उन्हें गिऱफ़्तार करने का किसी न किसी बहाने टाल रही थी। इसीलिए मुझे ऐसा कुछ करना होगा, जिससे कि सरकार मुझे गिऱफ़्तार करने के लिए मजबूर हो जायेगी, इस दृष्टि से वे सोचने लगे और उन्हें मार्ग साफ़ साफ़ दिखायी देने लगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published.