नेताजी- २२

xbose_jpg_1339506e.jpg.pagespeed.ic.WMc_EkRchRईश्वर हमारे जीवन में उचित ही करते हैं, ऐसा सुभाष का भरोसा रहने के कारण उसके जीवन में होनेवाली हर एक घटना में उसे एक चुनौती ऩजर आती थी। अत एव पिताजी को दिये हुए वचन के अनुसार वह आय.सी.एस. की पढ़ाई दिलोजान से कर रहा था। इतनी कि भूगोल इस विषय के लिए उसे सर्व्हेयिंग तथा कार्टोग्राफी सीखनी पड़ी, तो उसका भी उसने बिना किसी तक़रार के, एक चुनौती के रूप में ही स्वीकार किया। आधुनिक युरोपीय इतिहास के लिए आवश्यक अधिकांश सन्दर्भग्रन्थ फ्रेंच भाषा में थे और इसी वजह से उसे फ्रेंच सीखनी पड़ी और उसने उसे आत्मसात भी किया। इन सब बातों के परिणामस्वरूप उसकी ज्ञानकक्षा का विस्तार हुआ। युरोपीय इतिहास के अध्ययन के कारण जागतिक इतिहास को एक नया मोड़ देनेवाले जर्मन राष्ट्रपुरुष बिस्मार्क, इटालियन काव्हूर आदि महान नेताओं के चरित्रों से, उनके विचारों से उसका परिचय हुआ।

लेकिन एकाद-दो बार व्यक्तिस्वतन्त्रता को छेद देनेवाली घटनाएँ घटित होते हुए उसने देखा, जिससे कि उसके मन में बसी विलायत की व्यक्तिस्वतन्त्रता का उद्घोष करनेवाले माहौल के प्रति रहनेवाली सम्मान की भावना को ठेंस पहुँची।

हुआ यूँ कि केंब्रिज युनिव्हर्सिटी का उस वर्ष का सर्वोत्तम टेनिस खिलाड़ी एक भारतीय था। इसलिए इन्टर-युनिव्हर्सिटी मॅचेस के लिए कप्तान के रूप में उसकी नियुक्ति होना लगभग तय था। लेकिन सिर्फ इस वजह से कि वह ‘भारतीय’ है, कॉलेज की टेनिस टीम के अन्य अँग्रे़ज खिलाड़ियों ने खिलाड़ीपन से मुँह मोड़कर उसके नेतृत्व में खेलने से इन्कार कर दिया और युनिव्हर्सिटी ने भी उसका हक़ छीनकर  अन्य एक अँग्रे़ज छात्र को कप्तान बना दिया। इस घटना से सुभाष के मन में इंग्लैंड़ की व्यक्तिस्वतन्त्रता की विकसित हो रही सम्मान की प्रतिमा को गहरा झटका लगा।

दूसरी घटना थी, युनिव्हर्सिटी छात्रों के फौजी  प्रशिक्षण (‘ऑफिसर्स कोअर ट्रेनिंग’) के बारे में एक नोटीस कॉलेज में लगी थी। सुभाष ने भी उसके लिए फॉर्म  भरा था। लेकिन वह प्रशिक्षण केवल अँग्रे़ज छात्रों के लिए ही है, यह कहकर सुभाष के लिए प्रवेश के दरवा़ज बन्द कर दिये गये। इस प्रवेश के लिए सुभाष ने भारतमंत्री माँटेग्यू तक के दरवा़जे खटखटाये, लेकिन उसकी कोशिशें कामयाब नहीं हुईं। ऊपर से नीचे तक के विभिन्न खातों की ओर अँगुलीनिर्देश करते हुए तरह तरह की वजहें देकर उसकी अ़र्जी ठुकरायी गयी। एक जगह तो सुभाष को यह कारण बताया गया कि इस प्रशिक्षण को पूरा करनेवाला छात्र अँग्रे़ज फ़ौज में भर्ती होने के लिए क़ाबील माना जायेगा और इसीलिए भारतीयोंको इसमें कभी भी प्रवेश नहीं मिल सकता। तब उसे यह कड़वे सच का एहसास हुआ कि चाहे व्यक्तिस्वतन्त्रता के कितने भी ढोल क्यों न बजाये जायें, तब भी एक विशिष्ट सीमा के परे अँग्रे़ज यह ‘अँग्रे़ज’ ही रहता है, फिर  चाहे वह भारत का हो या इंग्लैंड़ का; उसके लिए ‘ग़ुलामों की’ कोई क़ीमत नहीं होती।

सुभाष जिस तरह विलायती व्यक्तिस्वतन्त्रता से प्रभावित हुआ था, उसी तरह चरमसीमा तक पहुँच चुके कर्मचारी अभियान ने भी उसके मन में घर बना लिया था। वह दौर सचमुच ही कर्मचारीवर्ग के बुरे दिन पलटने की गवाही देनेवाला दौर था। युरोप में औद्योगिक क्रान्ति स्थिर हो चुकी थी। कर्मचारियों के हररो़ज के कार्यालयीन अवधि निश्चित करना, बीमा इत्यादि सुविधाएँ उन्हें प्राप्त होना इन बातों का प्रारम्भ हो चुका था। दुनिया भर में ही कर्मचारी आन्दोलन क़ामयाब हो रहे थे। रूस में तो श्रमजीवी वर्ग ने क्रान्ति कर श्रमजीवियों की सर्वप्रथम सरकार की स्थापना की थी। इंग्लैंड़ में हालाँकि म़जदूर पक्ष सत्ता में नहीं था, मग़र फिर  भी उसे बेदखल न किया जाने जितनी गति से वह बढ़ रहा था। गत वर्ष में लोकमान्य टिळकजी ने इंग्लैंड़ आकर की हुई अथक मेहनत के कारण म़जदूर पक्ष के कई नेताओं का रवैया भारत के लिए अनुकूल बन चुका था और भारत की अँग्रे़ज सरकार द्वारा वहाँ पर किये जानेवाले अत्याचारों के खिलाफ अँग्रे़ज पार्लियामेंट में आवा़ज भी उठायी जा रही थी। लेकिन हाल ही में घटित हुए कॉलेज के फौजी  प्रशिक्षण मामले में सुभाष को यह सूर्यप्रकाश जितना साफ हो चुका था कि हर एक देश के निजी हितसंबंध होते हैं। उन्हें सुरक्षित रखने के कारण एक विशिष्ट सीमा के परे जाकर कोई भी दूसरे की मदद नहीं कर सकता। उस समय अँग्रे़ज सत्ताधीश थे और भारतीय ग़ुलाम; और अँग्रे़ज हमेशा ही स्वयं से पहले देश का विचार करते थे और इसीलिए म़जदूर पक्ष के नेताओं की व्यक्तिगत मित्रता भारत को आ़जादी दिलवाने में कितनी प्रत्यक्ष उपयोगी साबित होगी, इस बारे में सुभाष साशंक रहता था।

सुभाष और उसे ‘फिट्जविल्लिअम हॉल’ कॉलेज में दाखिला दिलाने के लिए ले जानेवाला उसका दोस्त दिलीपकुमार इनके बीच में इस विषय पर काफी चर्चा होती थी। सुभाष पहले से ही स्वामी विवेकानंदजी के विचारों से प्रभावित था। ‘अब तक श्रमजीवी वर्ग का शोषण कर उसकी उपेक्षा की गयी है। अब आनेवाला समय इस शोषित श्रमजीवी वर्ग का है’ ऐसा उल्लेख कई बार स्वामीजी के साहित्य में आया था, यह सुभाष ने पढ़ा था। अब रूस और अन्य देशों में चल रहे घटनाक्रम को देखकर सुभाष उसको अनुभव कर रहा था। भारत की अशिक्षित, श्रमजीवी जनता के बारे में उसके मन में अपरंपार करुणा थी। इन लोगों के साक्षर हुए बिना इनकी परिस्थिति में सुधार नहीं हो सकता, ऐसा वह हमेशा कहता था। इनकी परिस्थिति में सुधार किस तरह किया जाये, इसी सन्दर्भ में विचार उसके दिमाग में निरन्तर चलते रहते थे और दिलीप के साथ किये हुए विचारविमर्श में वे हमेशा झलकते भी थे।

दिलीप के पिताजी थे बंगाल के मशहूर कवि – द्विजेंद्रनाथ रॉय। उनकी कविताओं में हमेशा तेजस्वी भावस्पर्शी क्रांतिकारी विचारों की धारा उमड़कर बहती थी। भारत की श्रमजीवी जनता के बुरे हालातों के बारे में सोचते हुए कई बार सुभाष से रहा नहीं जाता था, तो कभी कभी उसकी आँखों में से आँसू भी बहने लगते थे। फिर  वह दिलीप से उसके पिता की किसी कविता को गाने की गु़जारिश करता था। दिलीप को संगीत की काफी अच्छी जानकारी थी। वह उसके मधुर स्वर में पिता की एकाद कविता सुभाष को सुनाता था। उसके मर्मस्पर्शी बोलों को सुनकर सुभाष का दिल और भी भर आता था।

इस तरह सुभाष में बसा ‘नेताजी’ अब धीरे धीरे निश्चित आकार धारण कर रहा था – फुर्तीला, क्रांतिकारी विचारों का; साथ ही उतनी ही मृदुल भावनाओं को जतन करनेवाला; किसी भी चुनौती को झेलने की क़ाबिलियत रहनेवाला; देश का मेरुदण्ड रहनेवाले श्रमजीवी वर्ग के प्रति अपरंपार करुणा मन में रखनेवाला और उन्हें इन बुरे हालातों में से कैसे निकाला जाये इस विषय में प्रामाणिक रूप से विचार करनेवाला।

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