स्नायुसंस्था भाग – ०७

हमारे शरीर के स्केलेटल स्नायु किसी न किसी हड्डी से जुड़े होते हैं। इसीलिये इनको स्केलेटल अथवा पंजर का स्नायु कहते हैं। स्नायु के आकुंचन से निर्माण होनेवाला फ़ोर्स अथवा ताकत हड्डियों पर संक्रामित (ट्रान्सफ़र) होती है। स्नायु को अस्थि से जोड़ने एवं इस ताकत को ट्रान्सफ़र करने का काम वैशिष्टयपूर्ण संधिनी पेशियाँ करती हैं। आज हम इन संधिनी पेशी समूह के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। इसमें टेंडन, अ‍ॅपोन्युरॉसिस, बर्सा, फ़ेशिया इत्यादि विभिन्न प्रकार की पेशियों का समावेश होता है। हम इन सबकी संक्षेप में जानकारी प्राप्त करेंगे।

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१)टेंडन्स : प्रत्येक स्नायु हड्डियों से जिसके द्वारा जोड़ा जाता है उसे टेंडन कहते हैं। टेडन्स कोलॅजेन तंतु के बने होते हैं। इन तंतुओं की रचना टेंडन की लंबरेषा में होती हैं। ये तंतु सिर्फ़ एक-दूसरे के बाजू में नहीं होते बल्कि गुथे होते हैं। यदि ज्यादातर टेडन्स को आड़वा काटें तो उस स्थिती में वे लंबवर्तुलाकार दिखायी देते हैं। ज्यादातर टेडन्स का बाहरी भाग गुलगुला होता है। कुछ बड़े टेडन्स मात्र इसका अपवाद होते हैं। प्रत्येक टेंडन पर एपिटेंडिनम नामक आवरण होता है, वहाँ पर यह आवरण आजू-बाजू की पेशी / अवयव से अलग रहता है। उन्हें बिल्कुल फ़ैलाव में जोड़ा जाता है। जहाँ पर टेंडन, को हड्डियों से जोड़ा जाता है वहाँ पर हड्डियों का बाहय आवरण पेरिऑस्टिअम व हड्डी के शफ्ट से जोड़ा जाता है। इस स्थान पर ज्यादा तर हड्डियों पर सफ़ेद फ़ायोब्रोकार्टिलेज होता है।

हड्डी के बराबर ही यानी स्टील की आधी टेन्साइल शक्ती टेडन्स में होती हैं। १० मिमी व्यास के टेंडन ६०० से १००० किलो का भार उ़ठा सकते हैं। टेडन्स थोड़े से लचीले होते हैं। इसीलिये उन्हें किसी भी प्रकार का धोखा न पहुँचाते हुये उनकी लम्बाई के सिर्फ़ ६% ही उनको ताना जा सकता है। परन्तु उनका फ्लेक्शन जितना चाहे उतना हो सकता है।

टेडन्स, कोलॅजेन तंतु के बने होते हैं। इन्हें होने वाले रक्त आपूर्ति की मात्रा भी कम होती हैं। इसीलिये ज्यादातर टेडन्स सफ़ेद दिखायी देते हैं। इसके अंदरूनी आतों तक छोटी रक्तवाहिनियाँ पहुँचती हैं। टेंडन्स जिस स्थान पर हड्डी से जुड़ते हैं उस स्थान पर हड्डी व टेंडन के बीच में एक भी रक्तवाहिनी नहीं होती। इनमें ऊर्जा के उपयोग का वेग भी इनमें काफ़ी कम होता है। प्रत्येक टेंडन उसके स्नायु की ओर के भाग में ज्यादा मोटा होता है। टेंडन्स में सिर्फ़ सेन्सरी अर्थात संवेदना ग्रहण करनेवाले चेतातंतु होते हैं।

२) सायनोविअल स्तर (sheaths) और थैलियाँ (bursae) :-
हमारे शरीर में गति के समय जोड़ो में अथवा हड्डी व अगल-बगल की जोड़ों (लिंगामेंटस् / टेंडन्स इ) के बीच ज्यादा घर्षण होने की आवश्यकता होती है। वहाँ पर उपरोक्त में से एकाधी चीज वहाँ पर घर्षण कम करने के लिये होती है।

अ) सायोनोविअल बर्सा अथवा थैली (latinbursa = purse):- सर्वसाधारणत: बर्सा किसी समतल थैली की तरह होती है। इसका बाहरी आवरण बगल की पेशी के साथ जोड़ा जाता है। अंदरूनी आवरण गुलगुला होता है। अंदर के दोनों भागों में सायनोविअल द्राव का पतला सा परदा होता है। सायनोविअल द्राव ही इसे अन्न की आपूर्ति करता है। कुछ स्थानों पर इसकी सायनोविअल थैली, जोड़ की सायनोविअल थैली से जुड़ी होती है। बर्सा जिस स्थान पर होती है, उसी को अनुसार उसको नाम दिया जाता है।

उदा. – टेंडन के नीचे होने पर सबटेंडिनस, स्नायु के नीचे होने पर सबमसक्युलर तथा त्वचा के नीचे होने पर सबक्युटेनिअस इत्यादि।

ब) सायनोविअल आवरण : लिंगामेंटस्, हड्डियां, रेटिनाक्युली, फ़ेशिया इ. चीजों के नीचे अथवा उनको लिफ्ट कर जब टेडंन जाती है, वहाँ पर टेंडन्स के चारों ओर यह आवरण होता है। इस आवरण के दो स्तर होते हैं। अंदरूनी स्तर में छोटी सी खाली जगह होती है। इस थैली में सायनोविअल द्राव होता है। ये दोनों स्तर आवरण के दोनों सिरों के पास जुड़े होते हैं। बीच-बीच में तंतूमय बँड्स से ये एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। इन बॅँड्स के कारण इन्हें स्थिरता प्राप्त होती है। इनके माध्यम से अंदरुनी आवरण को रक्त आपूर्ति भी होती है। इन बँडस् को मिसोटेंडन्स कहते हैं।

३)अ‍ॅपोन्युरोसिस :- जब कोई भी टेंडन फ़ैला हुआ होकर अथवा फ़ैलकर (मोर के पंख जिस तरह फ़ैलते हैं उस तरह) हड्डी से अथवा लिंगामेटस से जुडती है, तब उसे अ‍ॅपोन्युरोसिस कहते है। ज्यादातर अ‍ॅपोन्युरोसिस स्नायु के टेन्साइल जोर को हड्डियों की ओर डायरेक्ट अथवा इनडायरेक्ट तरीके से वहन करती है।

अ‍ॅपोन्युरोसिस भी कोलॅजेन तंतु से बनता है। इसके तंतु, टेंडन की लंबरेषा के समांतर होते हैं। तंतु की समांतर रचना के कारण इसे एक अनोखी चालना प्राप्त होती है।

४)फ़ेशिया :- संधिनी पेशी से बना हुआ व नजर से सहजतापूर्वक दिखायी देनेवाले परदे को फ़ेशिया कहते हैं। फ़ेशिया, कोलजेन तंतु से बनता है। कुछ स्थानों पर वो दो स्नायुओं के बीच होता है तो कभी-कभी स्नायु अथवा हड्डियों की रक्तवाहिनियों व चेतातंतुओं को एक साथ बांधकर रखने का काम करता है। (न्युरोवॅसक्युलर बंडल)। फ़ेशिया दो प्रकार की होती है। १)सुपरफ़िशियल २)डीप

१)सुपरफ़िशिअल फ़ेशिया :- डरमिस के नीचे स्थित संधिनी पेशी के फ़ैले हुये स्तर को सुपरफ़िशिअल फ़ेशिया कहते हैं। ये प्राय: अ‍ॅडियोन यानी स्निग्ध पेशी से बनते हैं। यह स्नायु व त्वचा के दरम्यान होता है। त्वचा की क्रियाओं को मदद करना, शरीर के तापमान का नियंत्रण करना तथा ऊर्जा का भंडारण करना, ये तीन काम फ़ेशिया करता है। स्त्रियों में इनकी स्निग्ध पेशियों की मात्रा ज्यादा होती है। पेट की चमड़ी के नीचे यह फ़ेशिया बिल्कुल स्पष्ट दिखायी देता है। बाहयकर्ण को छोडकर संपूर्ण शरीर की त्वचा के नीचे इसका अस्तित्व होता है। सिर, पंजा व पैर के पंजों में यह फ़ेशिया घना होता है।

डीप फ़ेशिया :- सर्वसाधारणत: स्नायु के आसपास हड्डी तक इसका अस्तित्व होता है। यह कोलजेल तंतुओं से बना होता है परन्तु इसकी रचना और बुनाई घनी एवं मजबूत होती है। इसके कारण कभी ये अ‍ॅपोन्युरोसिस जैसा दिखायी देता है। कुछ स्थानों पर स्नायु के चारों ओर इसका आवरण होता है। वहीं कुछ स्थानों पर स्नायु इससे जुड़े होते हैं और फ़ेशिया आगे जाकर हड्डी से जुड़ा होता है। ऐसे स्थानों पर यह फ़ेशिया अ‍ॅपोन्युरोसिस की तरह कार्य करता है। हाथ, पैर और गर्दन आदि में यह फ़ेशिया ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। कलाई और घुटनों में यह फ़ेशिया स्नायुओं के टेंडन्स को अपने-अपने स्थानों पर स्थिर रखने का काम करता है (retains tendons in place) । इसी लिये इसे रेटिनाक्युली कहते हैं।

स्नायुओं की रचना के बारे में लगभग सारी जानकारी हम प्रअप्त कर चुके हैं। अब स्नायुओं की रचना और कार्य से संबंधित शेष जानकारी हम अगले लेख में देखेंगे।

(क्रमश:)

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