स्नायुसंस्था – १२

अब तक हमने स्केलेटल स्नायु का आकुंचन कैसे होता है, इसकी जानकारी प्राप्त की। स्नायु का यह आकुंचन / प्रसरण से एक प्रकार की शक्ती का निर्माण होता है। इस शक्ती का उपयोग शरीर की विभिन्न गतिविधियों के लिये होता है। हमने इससे पहले देखा है कि शरीर की विविध गतिविधियाँ अस्थियों के जोड़ों में होती है। परन्तु इन गतिविधियों के पीछे की कार्यशक्ती स्नायुओं द्वारा प्राप्त होती हैं। जोड़ों पर ये स्नायु किस प्रकार कार्य करते हैं, उनमें उनके तंतुओं की रचना, उनकी लम्बाई, उनके प्रकार इत्यादि चीजों का क्या महत्त्व है, हम इसका भी अध्ययन करेंगे।

स्नायु के आकुंचन की कार्यक्षमता : स्नायु के आकुंचन के फ़लस्वरूप निर्मित होने वाली (energy) का उपयोग प्रत्यक्ष कार्यों के लिये कितनी मात्रा में होता है व उष्णता निर्माण करने के लिये कितनी मात्रा में होता है, इसके आधार पर स्नायु की कार्यक्षमता निश्‍चित होती है। बहुतांश स्नायुओं में यह कार्यक्षमता सिर्फ़ २५ प्रतिशत होती है । स्नायु जब मध्यम गति से आकुंचित होते है तब उनकी कार्यक्षमता सर्वाधिक होती है। स्नायु जब धीमी गति से आकुंचित होते हैं तब किसी प्रकार का कोई कार्य नहीं होता सिर्फ़ उष्णता का ही निर्माण होता है। इसके बिपरीत जब स्नायु तेजगति से आकुंचित होते हैं तब उससे निर्माण होने वाली शक्ती का उपयोग स्नायुतंतुओं के एक-दूसरे से घर्षण को रोकने के लिये होता है।

आकुंचन / प्रसरण

स्नायु तंतु की रचना : स्नायु के टेन्डन के अक्ष (axia) का तंतु से संबंध के आधार पर उसकी रचना को नाम दिया गया है। टेन्डन के अक्ष के समांतर जब स्नायु तंतु की रचना होती है तो उस रचना को (strap) पट्टा सूचना कहा जाता है।

जब टेन्डन के अक्ष से तंतु तिरछे होते हैं तब उन्हें पीनेट रचना कहा जाता है। यह रचना वनस्पती के पत्तो जैसी होती है।

जब स्नायु मध्यभाग में फ़ूले हुये और सिरों पर पतले होते हैं तो उन्हें फ्युसिफ़ोर्म कहते हैं।

स्नायुतंतु की लम्बाई व उसका महत्त्व : पिछले लेखों में हमने देखा कि जब स्नायुतंतु आकुंचित होते हैं अर्थात जब प्रत्येक सारकोमिअर आकुंचित होता है तब इस सारकोमिअर के प्रथिन फ़िलॅमेंटस् एक-दूसरे पर सरकते हैं (sliding)। इस सरकने की एक सीमा है। सारकोमिअर उसकी लम्बाई का सिर्फ़ ३० प्रतिशत की आंकुचित होता है। ये सारकोमिअर एक दूसरे के सामने कतार (in series) में होते हैं। इसके कारण संपूर्ण स्नायुतंतु भी सिर्फ़ ३० प्रतिशत ही आकुंचित होता है। स्नायु का मूल सिरा जहाँ पर गति करता है वहाँ की गतिविधि की सीमा भी स्नायु की लम्बाई पर आधारित होता है। स्नायु जितना लम्बा होता है उसकी गतिविधियाँ भी उतनी ही ज्यादा होती हैं परन्तु ताकत कम हो जाती है। इसके विपरीत स्नायु की लम्बाई जितनी कम उतनी उसकी गतिविधियाँ कम परन्तु ताक्त ज्यादा होती है। स्नायु की लम्बाई उनके स्नायु तंतुओं की लम्बाई पर व स्नायुतंतु की लम्बाई उनमें सारकोमिअर की संख्या पर अवलंबित होता है।

जलद और धीमें स्नायुतंतु (Fast and slow fibres) : शरीर के कुछ स्नायुतंतु, चेतातंतुओं से आये हुये संदेशों पर तुरंत अथवा तेज गति से कार्य करते हैं, ऐसे स्नायु तंतुओं को जलद तंतु कहते है। जो स्नायुतंतु आये हुये संदेशों पर सावधानी पूर्वक कार्यरत होते हैं उन्हें धीमें तंतु कहते हैं।

जलद ततुओं में कॅलशियम के अणू तीव्र गति से निकलने के लिये सारकोलाझमिक रेटिक्युलम की संख्या ज्यादा होतीं है। इस में ऊर्जानिर्मिती, प्राणवायु के बिना ग्लायकोजन के विघटन से होती है। इन्हें कम प्राणवायु की आवश्यकता होती है। इसीलिये रक्त की आपूर्ति भी कम लगती है।

धीमे गति से कार्य करनेवाले तंतुओं में मायोग्लोबिन (रक्त में उपस्थित ही हिमोग्लोबिन के साधर्म होने वाली) ज्यादा होती है। माइटोकॉन्ड्रीया ज्यादा होती हैं और रक्त की आपूर्ति भी ज्यादा होती है। ये तंतु ऊर्जा के लिये प्राणवायु का उपयोग करते हैं। यह प्राणवायु मायग्लोबिन में संचित की जाती है। इस मे उपस्थित मायग्लोबिन के फ़लस्वरूप ये तंतु लाल रंग के दिखायी देते हैं। वहीं जलद तंतु फ़ीके सफ़ेद रंग के दिखायी देते हैं।

जलद तंतु मोटे होते हैं। इनके कार्य जलद गतीसे शुरु होते हैं, परन्तु कम समय तक टिकते हैं इसलिए इनका उपयोग कूदने के लिए होता है (उँचा कूदना, लंबा कूदना) , छोटा अंतर जलद गतीसे दौडना (१०० मी, २०० मी, तेज़ दौड) इसके लिये होता है।

धीमे तंतू मोटे होते है। इनके कार्य थोड़े देर से शुरु होते हैं परन्तु ज्यादा समय तक टिकते हैं। फ़लस्वरूप इनका उपयोग ज्यादा दूरी की शर्यत (मॅरेथॉन) में होता है। गुरुत्वाकर्षण शक्ती के विरोध में हमारे शरीर को सीधा खड़े रखने का कार्य भी यहीं तंतु करते हैं।

मसल टोन अथवा स्नायु का टोन : किसी भी प्रकार का कार्य न करते हुये भी प्रत्येक स्नायु में एक प्रकार की कठोरता होती है। इसे ही उस स्नायु का टोन कहा जाता है। मज्जारज्जू व मस्तिष्क में धीमे गति से परन्तु सतत आने वाली विद्युत लहरियों के कारण स्नायु में यह कठोरता होती है।

स्नायु की शिथिलता अथवा (muscle fatigue):
काफ़ी देर तक कोई भी कार्य करते रहने पर हम थक जाते हैं। काफ़ी दूर तक चलने के बाद एक स्थिती ऐसी आ जाती है कि फ़ीर एक भी कदम बढ़ाना मुश्किल हो जाता है। ऐसा स्नायु के फ़टीग के कारण होता है। इस शिथिलता के निम्नलिखित कारण हैं –

१) स्नायु में ग्लायकोजन का भंडार समाप्त हो जाने के कारण।

२) स्नायु के आकुंचन के कारण उसकी रक्त बाहनियाँ दबती हैं जिससे रक्त की आपूर्ति में कभी आ जाती है। फ़लस्वरूप प्राणवायु की आपूर्ति भी कम हो जाती है। जिसके कारण शिथिलता आ जाती है।

३) जब स्नायु काफ़ी देर तक तथा तेजगति से अंकुचित होते रहता है तब चेतातंतु से न्युरोम्सकुलर जॅक्शन में आनेवाले संदेशों की संख्या में कमी आ जाती हैं।

स्नायु के कार्यों के फ़लस्वरूप, जोड़ों में जो गतिविधियाँ होती हैंम उनके पीछे विहित भौतिकशास्त्र का अध्ययन हम कल के लेख में करेंगें।

(क्रमश:)

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