स्नायुसंस्था भाग – ०४

हम अपनी स्केलेटल की स्नायुओं के बारे में अध्ययन कर रहे हैं।  हमने स्नायुओं को होने वाली रक्त-आपूर्ति का अध्ययन किया। अब हम आगे की जानकारी लेंगे।

स्नायु के चेतातंतु : प्रत्येक स्नायु के लिये एक चेतातंतु होता है। हाथ, पैर, चेहरा के प्रत्येक स्नायु के लिये स्थायी रुप से एक ही चेतातंतु होता है। अन्य स्नायुओं को एक से अधिक चेतातंतुओं की आपूर्ति होती है। चेतातंतु स्नायुओं की सबसे कम हलचल वाले भाग से आते हैं व न्युरोवॅसक्युलर हायलम में प्रवेश करते हैं। इन चेतातंतुओं को सर्वसाधारणत: मोटर नर्व्हस्  (motor nerves)कहते हैं। परन्तु इनमें दोनों प्रकार के, यानी सेन्सरी संवेदन ग्रहण करने वाले मोटर (कार्य की आज्ञा वहन करने वाले) व चेतातंतु होते हैं।

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प्रमुख मोटार तंतु मायलिनेटेड (ऊपरी आवरण युक्त) अल्फ़ा अ‍ॅक्झॉन्स होते हैं। अल्फ़ा अक्झॉन्स हमारे शरीर से सबसे तेज गति वाले संदेश वाहक तंतु हैं। इसके अलावा कुछ छोटे गॅमा) तंतू व ऑटोनोमिक चेतातंतु भी प्रत्येक स्नायु में होते हैं।

अ‍ॅक्झॉन्स स्नायु में छोटी-छोटी विभागों में शाखाओं में बैठ जाते है व अंत में उनके ऊपर का आयलिन आवरण निकल जाता है। बिना आवरण वाले चेतातंतु (ऐसे अनेक चेतातंतु) स्नायु के नीचे की ओर मध्यभाग में एकत्रित हो जाते हैं। इसे मोटर पॉईंट अथवा बिंदु कहते हैं। वैद्यकीय जाँच के दौरान इनका महत्त्व यह है कि यदि इन मोटर बिंदुओं पर हम बाहर से विद्युत शक्ती की आपूर्ति (electro-myo-graph) करें तो स्नायु का आकुंचन तेज़ी से होता है। प्रत्येक स्नायु तंतु के संपर्क में अ‍ॅक्झॉन की अंतिम शाखा (सूक्ष्म चेताचंतु) आते हैं। जहाँ पर ये दोनों संपर्क में आते हैं उस स्थान को न्युरोमसक्युलर जंक्शन कहते हैं। स्नायुतंतू के एक निश्‍चित भाग पर लंबगोलाकृती आकार में ये चेतातंतु फ़ैल जाते हैं। इस भाग को मोटर एन्डप्लेट कहते हैं।

प्रत्येक स्नायु में मुख्यत: तीन प्रकार के स्नायुतंतु होते हैं। उनकी कार्यपद्धति, प्राणवायु व रक्त के अन्य घटकों की आवश्यकता इत्यादि बातों के आधार पर इनका विभाजन किया जाता है। इसका सविस्तर अध्ययन हम स्नायु के कार्यों के अध्ययन के दौरान करेंगें।

स्केलेटल स्नायुओं का विकास :
स्नायु के विकास को मायोजेनेसिस कहते हैं। गर्भ के चौथे से पाँचवे सप्ताह में मायोप्लास्ट स्नायु की पहली पेशी डरमॅटमायोटीन नामक पेशी से बनते हैं। इस डरमॅटोमायोटीन का इपऑक्सिअल (epaxial) व हाइपऑक्सिअल (hypaxial) नामक दो भाग होते हैं। पहले भाग से अ‍ॅस्किअल जाल के स्नायु और दूसरे भाग से हाथ, पैर तथा दोनों गर्डल के स्नायु तैयार हो चुके होते हैं।

गर्भ के नववे सप्ताह में स्नायु तैयार हुए रहते हैं। दसवे सप्ताह में न्यूरोमसक्युलर जोड़ कार्यरत हो जाता है। अर्थात इसी समय से स्नायु भी कार्यरत हो सकते हैं। मायोब्लास्ट  पेशी के तीन प्रकार होते हैं। गर्भ के प्रथम २० सप्ताह तक पहले प्रकार की मायोब्लास्ट पेशियों से स्नायु तंतु बनते हैं। इसके बाद शेष दो प्रकार की मायोब्लास्ट पेशी से स्नायु बनते हैं। बाद के ये स्नायु तंतु थोड़े क़ठोर होते हैं। गर्भ के आठवे व नववे महीने में और एक प्रकार की मायोब्लास्ट पेशी दिखायी देने लगती है। भविष्य में ये पेशियां, स्नायु में सॅटलाईट पेशी के रुप में रहती हैं। स्नायु का पुर्नज्जीवन (Regeneration) करना इनका मुख्य कार्य होता है। किसी भी कारण ये यदि स्नायु का कोई हिस्सा निकामी हो जाये तो उसके रिजनरेशन का काम ये पेशिंया करती हैं।

प्रत्येक स्नायुतंतु के दो डायमेनशन्स होती हैं। एक उसकी मोटी अथवा व्यास और दूसरी उसकी लंबाई।

मानवों में गर्भ के २४ वें सप्ताह के बात किसी भी स्नायु में स्नायुतंतुओं की संस्था में वृद्धि नहीं होती। बढ़ती उम्र के साथ-साथ उनकी मोटाई अथवा व्यास बढ़ता जाता है। इसीलिये स्नायु मोटे अथवा बल्की दिखायी देने लगते हैं। उम्र के पच्चीस वर्षों के बाद धीरे-धीरे स्नायु में स्नायुतंतुओं की संख्या घटने लगती है। बढ़ती उम्र में स्नायुओं की वृद्धि स्त्रियों की तुलना में पुरुषों में ज्यादा होती हैं। टेस्टोस्टीरोन नामक पुरुष संप्रेरक के कारण ऐसा होता है (उसके अ‍ॅनाबोलिक कार्यो के फलस्वरूप) ऐसा समझा जाता है। इसी आधार पर स्नायुओं की वृद्धि के लिये अ‍ॅनाबोलिक स्टेरॉइड नाम की औषधि (इंजेक्शन्स / गोलियां इ.) बनायी गयी। इन औषधियों के सेवन से स्नायु मजबूत व क़ठोर होते हैं, ऐसा आजतक सिद्ध नहीं हुआ है। परन्तु इन औषिधियों के शरीर पर घातक परिणाम अवश्य सिद्ध हो चुके हैं। इसीलिये विशेषज्ञ डॉक्टरों की सलाह के बिना किसी को भी इन औषधियों का सेवन नहीं करना चाहिये। थायरॉईड हार्मोन और ग्रोथ हार्मोन दोनों का स्नायु की वृद्धि पर दुष्परिणाम होता है।

स्नायुतंतु की लम्बाई में जन्म के बाद भी वृद्धि होती रहती है। इसके सारकोमिअर्स की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे स्नायुतंतु की लम्बाई बढ़ती रहती है। स्नायुतंतु की यह विशेषता है कि इसमें आवश्यकतानुसार सारकोमिअर्स की संख्या कम-ज्यादा हो सकती है।

यदि किसी स्नायु का चेतातंतु काट दें अथवा किसी रोग के कारण चेतातंतु में से आनेवाले संदेश बंद हो जाये तो स्नायु कमजोर एवं पतला हो जाता है। इसे अट्रोफी (atrophy) कहते हैं। किसी भी कारण से यदि स्नायु के कार्य बंद हो जायें तो भी स्नायु कमजोर हो जाता है। इसे डिसयुज अट्रोफी कहते हैं। ऐसा स्नायु का उपयोग न करने के कारण होता है। जैसा कि कहा जाता है कि रोटी क्यों जल गयी तो क्योंकि उसे घुमाया नहीं इसी लिये। इसी तरह यदि एक से चार महीनों तक स्नायु का उपयोग न किया जाये तो दोनों प्रकार के (चल और अचल) स्नायुतंतुओं में डिसयुज अट्रोफी हो जाती है। यदि इससे ज्यादा समय तक उपयोग न किया जाये तो आगे चलकर सिर्फ चल स्नायुतंतुओं की अट्रोफी होती है। बधिरता में इस तंतु की अट्रोफी बढ़ती जाती हैं। परन्तु यदि स्नायुओं को आवश्यकता के अनुसार व्यायाम करके कार्यरत रखा जायें तो इस अट्रोफी को रोका जा सकता है।

अगले लेख में हम हृदय के स्नायुओं का अध्ययन करेंगे।

(क्रमश:)

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