स्नायुसंस्था भाग – ०३

कल के लेख में हमनें देखा कि हमारे स्नायु तीन प्रकार के होते हैं। आज से हम इन तीनों प्रकार के स्नायुओं की रचना, उनके जन्म व विकास के बारे में जानकारी लेंगे।

स्केलेटल स्नायु : स्केलेटल स्नायु स्नायुतंतुओं से बने होते हैं। इन्हें मसल फायबर्स (muscle fibres) कहते हैं। ये तंतु अथवा रज्जू दंडगोलाकार व लंबे होते हैं। एक स्नायु में ये तंतु समान लम्बाई व मोटाई वाले होते हैं। दूसरे स्नायु में इनकी मोटाई (व्यास) व लम्बाई भिन्न होती है। इन तंतु की मोटाई साधारण १० से १००  मायक्रोमीटर व लम्बाई कुछ मिमी से लेकर कुछ सेमी तक होती है। अब हम यह देखेंगे कि सर्वसाधारण सूक्ष्मदर्शी (light microscope) में ये तंतु कैसे दिखायी देते हैं जिससे हम उनकी रचना के बारे में जान सकेंगे। स्नायुओं के कार्य को जानने के लिये उसकी रचना के बारे में जानना महत्त्वपूर्ण हैं।

यदि इन तंतुओं को उनके लंब अक्ष पर देखा जाए तो उनमें असंख्य सूक्ष्म तंतु अथवा मायोफायब्रिल्स दिखायी देते हैं। ये सूक्ष्म तंतु अर्थात स्नायुपेशी की आंकुचन करनेवाली प्रोटीन्स होती हैं। इनकी रचना भी दंडगोलाकार होती है। स्नायुपेशी पर जो आवरण होता है उसे सारकोलेमा (sarcolema) कहते हैं व पेशी के अंतर्गत द्रव्य को सारकोप्लाझम (sarcoplasm) कहते हैं। यदि मायोफायब्रिल का आड़ा छेद देंखे तो ये सूक्ष्मतंतू पॉलिगोनल अथवा अनेक दीवारों वाले दिखायी देते हैं। इसका कारण उनकी घनता अथवा कठोरता है। स्नायुओं के बीमार यानी शक्तीपात (paralysis) अथवा दुबलापन (wasting) होने पर यह कठोरता समाप्त हो जाती है व उस समय यह तंतु गोलाकार दिखायी देते है। अपने स्वरयंत्र के स्नायु इसके अपवाद हैं। इनकी रचना फैली हुई होने के कारण नॉर्मल स्थिती में ये गोलाकार दिखायी देते हैं। प्रत्येक सूक्ष्मतंतु पर एक निश्‍चित अंतर पार आड़ी रेखा अथवा गांठ होती हैं। ऐसी दो आड़ी रेखाओं में तंतु के भाग को सारकोमिअर (sarcomere) कहते हैं। अचल अथवा कोई भी काम न करते समय इनकी लम्बाई २.२ मायक्रोमीटर होती है।

muscle02

इन सारकोमिअर्स में दो प्रकार के सूक्ष्मतंतू पाये जाते हैं, मोटे अथवा पतले (thick and thin) मोटे तंतु साधारणत: १५ नॅनोमीटर व्यास के तथा वे मायोसिन के बने होते हैं. पतले तंतु साधारणत: ९ नॅनोमीटर व्यास के तथा वे अ‍ॅक्टीन के बने होते हैं। यह तंतु एक-दूसरे के पड़ोसी होते हैं। जब स्नायु आंकुचित होते हैं तो उस समय यह तंतु छोटे नहीं होते बल्कि एक-दूसरे के ऊपर सरक जाते हैं तथा सारकोमिअर आकुंचित होता है।

उपरोक्त आकृति से यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि ये तंतु किस तरह एक-दूसरे पर सरकते हैं तथा सारकोमिअर की लम्बाई कम होती है। इसे आंकुचन का स्लायडिंग मकॅनिझम कहते हैं।

मायोफायब्रिल के प्रोटीन्स – इसको तीन विभागों ये बांटा गया है।

१) मोटे तंतु के प्रोटीन्स (प्रथिने) – मायोसिन इसकी प्रमुख प्राथिन है। कुल मायोफिब्रिल प्रथिनों में से ६०% मायोसिन होती है। शरीर के व हृदय के स्नायु के मोटे तंतु की लम्बाई १.६ मायक्रोमीटर होती हैं। एक मोटे तंतु में मायोसिन के २९४ अणू होते हैं। मायोसिन के अणू में पालिपेपटाइड की छ: जंजीरे होती है।

२) पतले तंतु की प्रथिने – अ‍ॅक्टीन इसकी प्रमुख प्रथिन है। कुल मायोफिब्रिल प्रथिनों में से २०% अ‍ॅक्टीन होती है। इसके अलावा ट्रोपोमायोसिन व ट्रोपोनिन नामक ये दो प्रथिने भी इस तंतु में होती हैं। ये प्रथिने आंकुचन में सहभागी नहीं होती परन्तु उस पर नियंत्रण रखती है। इसी लिये इन्हें रेग्युलेटरी प्रथिने कहते हैं।

muscle03- स्केलेटल स्नायु

३ ) स्कॅफोल्ड प्रथिने – आकुंचन व नियंत्रण में से कोई भी काम से प्रथिने नहीं करती परन्तु मायोफिब्रिल की अंतर्गत रचना को कायम रखने का काम करती हैं।

स्नायुपेशी में मायोफायब्रिल के व्यतिरिक्त निम्नलिखित चीजें होती हैं। माइटोकॉन्ड्रीया, गॉल्गी अ‍ॅपरॅटस, रायबोसोम्स, नलिका संस्था व सारकोप्लाझमिक रेटिक्युलम।

प्रत्येक स्नायु तंतु के चारों ओर संधिनी पेशी का आवरण छोटा होता है। इसे एन्डोमायसिम कहते हैं। इसके बाहर से छोटी रक्तवाहिनियाँ व सूक्ष्म चेतातंतु होते हैं। यहाँ पर स्नायुपेशी व रक्तवाहिनियों के बीच अन्नघटक का आदान-प्रदान होता है। एन्डोमायोसिम आगे चलकर उसकी तुलना में ज्यादा मोटे आवरण से एकरुप हो जाती है। इस आवरण को पेरामायसियम कहते हैं। पेरामायसियम स्नायुतंतु के गठ्ठे (bundle) पर आवरण बनाता है। इसके बाहर थोड़ी बड़ी रक्तवाहनियां, चेतातंतु व न्युरोमसक्युलर स्पिन्डल्स होते हैं। ये पेरिमायसियम की अपेक्षा मोटी एपिमायसियम से एकरुप होती है जो संपूर्ण स्नायु पर आवरण बनाता है।

स्नायु का रक्ताभिसरण – प्रत्येक स्नायु की मुख्य शुद्ध रक्तवाहिनी स्नायु के नीचे की ओर से स्नायु में प्रवेश करती है। इस स्नायु के प्रवेशद्वार को न्युरोवॅसक्युलर टायलम कहते हैं क्योंकि यहाँ पर शुद्ध रक्तवाहिनी के साथ-साथ अशुद्ध रक्तवाहिनी व चेतातंतु भी होते हैं। मुख्य रक्तवाहिनी से छोटी-छोटी शाखायें निकलती हैं तथा अन्त में एन्डोमायसिम पर केशनलिकाओं के जाले तैयार हो जाते हैं। बहुतेक केशनलिका स्नायूतंतू के समांतर होती हैं परन्तु कुछ तंतुओं के चारो ओर एक-दूसरे से जोड़ी जाती हैं। जो स्नायु सतत कार्यरत रहते हैं उन्हें रक्तवाहिनियों के जाले ज्यादा छने होते हैं। इसके विपरीत जिनु स्नानुओं का प्रयोग काफी कम होता है उनकी रक्तवाहनियां विरली होती हैं।

(क्रमश:)

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