स्नायुसंस्था भाग – ०२

हमने अपनी स्नायुसंस्था के बारे में जानकारी प्राप्त करने की शुरुवात की हैं। हमें अपनी स्नायुपेशियों की विशेषताओं का अध्ययन करना है।

कल के लेख में हमनें देखा कि प्रत्येक पेशी में एक पेशीपंजर (cytoskeleton) होता है। यह पंजर अपना आकार बदलता रहता है। इसी के अनुसार पेशी का आकार बदलता रहता है। प्रत्येक पेशी में अ‍ॅक्टीन और ट्युब्युलिन नाम के तंतुमय प्रोटीन्स (filamentous proteins) होते हैं। ये प्रोटीन्स आवश्यकता के अनुसार अपनी लम्बाई कम या ज्यादा कर सकते हैं। इसके अलावा मायोसिन नाम की एक प्रोटीन होती है जो सिर्फ स्नायुपेशी में ही होती है। अ‍ॅकटीन की सहायता से यह मायोसिन पेशी में A T P (ऑडिनोसिन ट्रायफॉस्फेट) नामक केमिकल का उपयोग करके अपनी लम्बाई में अत्यंत वेग से फरक कर सकती है। ये दोनों प्रोटीन्स अ‍ॅक्टीन व मायोसिन, रासायनिक शक्ती का उपयोग यांत्रिक कार्यों के लिये करती हैं अथवा रासायनिक शक्ती का रुपांतर यांत्रिक कार्यों के लिये करती हैं (Chemical Energy- Mechanical Work)। इनके इस कार्य के कारण इन प्रोटीन्स को पेशी की मोटर्स अथवा इंजिन्स कहते हैं।

muscle- पेशीपंजर

अपने घर की इलेक्ट्रिक मोटर अथवा पानी का पंप, विद्युत शक्ती का रुपांतर यांत्रिक कार्यों में करती हैं। अपनी कार का इंजिन, पेट्रोल यानी रासायनिक शक्ति का रुपांतर पुन: यांत्रिक कार्यों में करता है। हम इस इंजिन अथवा मोटार के आविष्कार करने वाले वैज्ञानिकों की प्रशंसा करते हैं। परन्तु इसी सिद्धान्त का उपयोग करने वाली मोटर्स का निर्माण प्राणियों में परमेश्‍वर ने कभी से कर रखा है। क्या हम कभी उसकी तारीफ करते हैं।

हमारी स्नायुपेशियों में अ‍ॅक्टीन और मायोसिन काफी मात्रा में पायी जाती हैं। वास्तव मे संपूर्ण पेशी ही इन प्रोटीन्स के तंतुओं से भरी होती है। पेशी में ये तंतु एक ही रेखा में एक दूसरे से सटकर लगे होते हैं। इसी के कारण इनकी लम्बाई में होने वाला बदलाव संपूर्ण पेशी का आकार एक ही रेखा अथवा दिशा में बदलता है। जब ऐसी असंख्य स्नायुपेशियां एकत्र आती हैं तब स्नायु बनता हैं। हाथ-पैर की गति हो, हृदय की धडकन हो, फेफड़ो में हवा भरने की क्रिया हो या पलको का खुलना-बंद होना हो, ये सभी क्रियायें स्नायुओं के कारण ही संभव होती हैं। स्नायुपेशियों को मायोसाइट्स (MYOCYTES) कहते हैं।

इस पेशी के तीन प्रकार होते हैं। इसके आधार पर हमारे शरीर के स्नायुओं को तीन विभागों में बांटा गया हैं। १)शारीरिक अथवा स्केलेटल स्नायु २)हृदय के अथवा कारडियाक स्नायु तथा ३)साधारण अथवा स्मूथ स्नायु इनमें से पहले दो प्रकार के स्नायुओं को स्ट्रायेटेड स्नायु भी कहते हैं।

१)स्केलेटेल स्नायु : चूँकि ये स्नायु हमारे अस्थिपंजर से जुड़े होते हैं। अत: इन्हें यह नाम दिया गया। इस स्नायु की रचना कैसी होती हैं?इस में अनेक पेशीकेन्द्र वाले लंबे तंतु किसी गुच्छा की तरह एक साथ बांधे हुये होते हैं तथा ये गुच्छे एक दूसरे के समांतर रेखा में एकत्रित होते हैं। इनके प्रोटीन्स की रचना नियमित(regular) होने के कारण इनकी आकुंचन शक्ती ज्यादा होती है, ज्यादा यानी १०० वॅट्स प्रति किलोग्राम। परन्तु इस रचना के कारण इन स्नायुओं की गति पर, गति की रेंज पर बंधन आ जाता है। परन्तु इन स्नायुओं की रेंज की बढ़ाने का काम अस्थियों में विभिन्न स्थानों पर स्थित उत्तोलक (lever system) करते हैं। इस तरह स्नायु का अस्थिसंस्था से अन्योन्य संबंध होता है। इसीलिये इसे स्केलेटल स्नायु कहा जाता है।

२)कारडियाक स्नायु : इसकी रचना भिन्न होती है। इसमें प्रत्येक स्नायु पेशी एकत्र आकार टहनियों अर्थात पेड़ की शाखाओं (branching) जैसी रचना बन जाती हैं। विद्युत व यांत्रिक शक्ती से एकत्रित जुड़ी हुयी युनिट्स यहाँ पर तैयार हो जाती हैं। स्केलेटल स्नायु की तुलना में ये कम शक्तीशाली होते हैं। ( ३ से ५ वॅट्स प्रति कि.ग्रा.) परन्तु इनकी भिन्नता यह है कि ये जल्दी थकते नहीं हैं (Resistant to fatigue)। इसकी मूल रचना ही भिन्न होती है। इन पेशियों की ज्यादा जगह जहाँ पर प्रोटीन्स को होना चाहिये था वह जगह, रक्तवाहिनियों माइटोकोन्ट्रीया से व्याप्त होती है। माइटोकॉन्ड्रीया, हमारी पेशियों में सतत शक्ति की आपूर्ति होती है तथा ये स्नायु पेशियों को लगातार शक्ति की आपूर्ति करती हैं। फलस्वरुप इन स्नायु पेशिओं का शक्तिपात (fatigue) कभी नहीं होता। इस प्रकार के स्नायु सिर्फ हमारे हृदय में ही पाये जाते हैं इसी प्रकार के स्नायु उस स्थान पर पाये जाते हैं जहाँ पर प्रमुख अशुद्ध रक्तवाहिनियाँ (नीली) हृदय से जुड़ती हैं। इन पेशियों में एक निश्‍चित तरीके से व गति से अंतर्गत आंकुचन होता रहता है व शरीर के कुछ संप्रेरको व ऑटोनोमोस चेतासंस्था का इन आंकुचनों पर असर होता है।

३)स्थूल स्नायु : इन स्नायुपेशी में अ‍ॅक्टीन और मायोसिन की रचना एक निश्‍चित पद्धति से नहीं होती। इसी लिये इन्हें स्थूल स्नायु कहते हैं। ये स्नायु शरीर के अंतर्गत अवयवों में पाये जाते हैं। आँतों, श्‍वसननलिका, मूत्रनलिका इत्यादि ङ्कें। स्केलेटल स्नायुपेशी की तुलना में ये पेशियां छोटी होती हैं तथा दोनों किनारों पर संकरी होती हैं। इनके आकुंचन की प्रक्रिया धीमी परन्तु ज्यादा समय तक टिकने वाली होती हैं। आकुंचन की शक्ती स्केलेटल स्नायु की तुलना में कम होती है। परन्तु आकुंचन ज्यादा होता है। इनके कार्यों का कंट्रोल पूरी तरह ऑटानोमिक चेतासंस्था व रक्त में स्थित कुछ केमिकल्स के पास होता है। हम तय करके इनके कार्यों को बदल नहीं सकते। इसी लियें इन्हें involuntary स्नायु भी कहा जाता है। हमारी आँतों, श्वसनसंस्था, मूत्रनलिका, रक्तवाहिनियों, त्वचा (Arrector pili) इत्यादि स्थानों पर ये स्नायु पाये जाते हैं। कुछ स्थानों पर स्केलेटल और स्थूल दोनों स्नायु एकसाथ कार्य करते हैं। इसके उदाहरण हैं- आंखों की पुतलिङ्माँ, गुदद्वार की स्फिंक्टर, मूत्राशय की स्फिंक्टर इत्यादि।

आज हम यहाँ पर ही रुकते हैं। अगले लेख में स्नायुओं के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे।

(क्रमश:)

Leave a Reply

Your email address will not be published.