स्नायुसंस्था – १३

हमारे शरीर की ज्यादातर गतिविधियों में एक से ज्यादा स्नायु तंतु सहभागी होते हैं। जोड़ों की गतिविधियों में तो ऐसे स्नायुओं के गट ही हैं। प्रत्येक गतिविधि में कोई विशिष्ट स्नायु की भूमिका के आधार पर उसको नाम दिया गया है। (यदि एक से ज्यादा स्नायु वही काम कर रहे होते हैं तो उस पूरे समूह को ही नाम दिया जाता हैं)। स्नायुओं की भूमिका के आधार पर उनको मुख्यत: चार समूहों में विभाजित किया गया है –

१) मुख्य भूमिका अदा करनेवाला अथवा prime mover
२) मुख्य स्नायु के विरुद्ध कार्य करनेवाला अथवा antagonist
३) गति की अवस्था में जोड़ अथवा हड्डी को स्थिर रखनेवाला fixator
४) मुख्य स्नायु को उसके काम में मदत करनेवाला synergist

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छोटे छोटे उदाहरणों के माध्यम से हम इन चारों प्रकार के बारे में समझेंगे। कुहनी पर अपने हाथ को मोडना है (flexion)। इस क्रिया में दंड़ के सामने का स्नायु (जिसे बायसेप्स अथवा ब्रॅकिआलिस कहते हैं) मुख्य स्नायु होता है। इससे विपरीत भूमिका निभाता है दंड़ के पीछे का स्नायु ट्रायसेप्स। प्रत्येक क्रिया में antagonist अर्थात उस क्रिया को सीमित रखनेवाला स्नायु अर्थात अपनी लक्ष्मण रेखा न लाँधने देने वाला। ये उपरोक्त दोनों स्नायु गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध एक साथ कार्य करते हैं तथा कोहनी के जोड़ को स्थिर रखते हैं। इस अवस्था में वे इस जोड के fixators होते हैं।

सहायक (synergist) स्नायुओं का उदाहरण हम पंजा व कलाई में देखेंगें। जब हम किसी वस्तु को अंगुलियों व पंजेसे मजबूत पकडते हैं तो उस समय हमारी अंगूलियाँ इंटर फ़ॅलेंजिअल व मेर्टेकार्पोफ़ॅलेंजिअस जोड़ों में मुड़ी हुयी (flexed) होती हैं। इस क्रिया में जो स्नायु मुख्य होते हैं वहीं स्नायु पंजे को कलाई पर मोड़ने (flexion) का कार्य भी करते हैं। यदि पंजा कलाई पर मुड़ जाता है तो पंजे में वस्तु को पकड़ने की क्रिया में तनाव आता है तथा पकड़ तुरंत ढ़ीली पड़ सकती है। ऐसी अवस्था में पंजे को कलाई पर मुड़ने से रोकने के लिये कलाई के जो एक्टेसंस (कलाई को सीधी रखने वाले) स्नायु होते हैं वे आकुंचित होते हैं तथा कलाई को मुड़ने से रोकते हैं। ऐसी अवस्था में ये स्नायु सहायक की भूमिका निभाते हैं।

कुछ स्नायु भिन्न-भिन्न गतिविधियों में भिन्न-भिन्न भूमिकायें निभाते हैं। हम जब कोहनी से हाथ को शीघ्रता से सीधा करते हैं (मुक्का मारने के लिये) उस समय ट्रायसेप्स स्नायु prime mover होता है। तथा बायसेप्स पूरी तरह inactive होता है।

जब कोई वेटलिफ्टर जब अपने हाथों का वजन धीरे-धीरे नीचे लाता है (जमीन पर रखने के लिये) तब उसके हाथ कोहनी पर सीधे होते हैं। इस कार्य में ट्रायसेप्स कोई भी भूमिका नहीं निभाते। गुरुत्वाकर्षण शक्ती हाथों पर कार्य करती है। इस शक्ती के विरोध में बायसेप्स स्नायु कार्य करते हैं। हाथों के कोहनी पर धीमी गति से सीधा होने के लिये बायसेप्स स्नायु धीरे-धीरे प्रसारित होते हैं व हाथ को कोहनी पर सीधा होने में सहायता करते हैं।

उपरोक्त व्याख्या से स्नायुओं की कार्यपद्धति हमारे ध्यान में आती हैं। यहाँ पर किसी की भी कोई भी स्थायी भूमिका नहीं होती है। आवश्यकतानुसार स्नायु अपनी भूमिका बदलते रहते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्नायु के प्रत्येक कार्य पर गुरुत्वाकर्षण शक्त्ती परिणाम करती है।

जोड़ो की निषेध गतिविधियाँ एक लीवर सिस्टीम है। भौतिकशास्त्र में उत्तोलक (lever) के बारे में हमनें स्कूल में पढ़ा है कि किसी भी कार्य को कम से कम बल लगाकर करने के लिये उत्तोलक का प्रयोग किया जाता है। हमने यह भी पढ़ा है कि उत्तोलक तीन प्रकार के होते हैं। ये सभी प्रकार के उत्तोलक हमारे शरीर में कार्यरत रहते हैं। फ़लस्वरूप हमारी गतिविधियाँ सुलभ हो जाती हैं व शक्ती बचती है। शरीर की किस गतिविधि में उपरोक्त तीनों प्रकार ध्यान में आते हैं अब हम इसका अध्ययन करेंगे। निम्नलिखित उदाहरण प्रतिनिधितत्व करते हैं –

१) पहले प्रकार का उत्तोलक : इस प्रकार के उत्तोलक में टेकू अथवा फ़लक्रम (fulcrum) बीच में होता हैं तथा उसके एक तरफ़ वजन व दूसरी तरफ़ बल होता है। उदाहरण – कोहनी के जोड़ पर हाथ को सीधा करना। इसमें स्वयं कोहनी का जोड़ ही टेकू है, कोहनी के आगे का हाथ बल है और दंड़ (बाँह) के पिछले भाग के ट्रायसेप्स स्नायु बल का कार्य करते हैं।

२) दूसरे प्रकार का उत्तोलक : इससे बजन बीच में होता है, एक तरफ़ टेकू दूसरी तरफ़ बल होता है। उदाहरण – पैर के पंजे को जमीन पर स्थिर रखते हुये सिर्फ़ ऐड़ी उठाने की क्रिया। (कदम आगे बढ़ाने की पहली क्रिया) इस में पैर के पंजे का अगला भाग है टेकू, बजन है शेष पंजा व बल प्रदान करते हैं पोटरी के स्नायु.

३) तीसरे प्रकार का उत्तोलक : इस प्रकार के उत्तोलक में टेकू एक तरफ़ तथा वजन दूसरी तरफ़ होता है और बल बीच में होता है। उदाहरणार्थ कोहनी पर हाथ मोड़ने की क्रिया (flexian)। यहाँ पर टेकू है कोहनी का जोड़, वजन है कोहनी के आगे हाथ का हिस्सा व बल है दंड (बाँह) के सामने वाले बायसेप्स स्नायुओं का।

उपरोक्त सभी गतिविधियों में एक बात समझ में आती हैं कि कम से कम बल का प्रयोग करके गतिविधियों की रेंज बढ़ायी गयी है। इन उदाहरणों कें कार्य करने वाला स्नायु एक ही है, ऐसा माना गया है ।परन्तु गतिविधि के दौरान अनेक स्नायु एक ही प्रकार के कार्य करते हैं। ऐसी अवस्था में उन गतिविधियों में एक रोटेशनल फ़ोर्स का निर्माण होता है। पृथ्वी की गुरुत्त्वाकर्षण शक्ती सतत हमारे शरीर पर कार्य करती रहती है। इस शक्ती के विरोध में हमारा शरीर सीधा खड़ा रहता है (erect posture) ऐसा शरीर के स्नायूओं के सामंजस्य के फ़लस्वरूप होता है। हमारी कमर के अर्थात पेलविस के flexor व extensor ऐसे दोनों स्नायु उचित तरीके से एकसाथ कार्य करते हैं (इसे coactivation कहते हैं) इसीलिये हम सीधा खड़े रह सकते हैं। पेलविस की गतिविधि के समय यहीं स्नायु एक-दूसरे के विरोधक (antagonist) होते हैं। शरीर की विभिन्न गतिविधियों (क्रियाओं) में ये स्नायु एक-दूसरे के विरुद्ध कार्य करते हैं परन्तु जब कोई शरीर से बाहर की शक्ती शरीर के लिये कष्टदायक शक्ति होती हैं तो उस समय यहीं स्नायु उस शक्ती के विरोध में मजबूती से एक साथ कार्य करते हैं। देखो, परमेश्‍वर ने कितना सुंदर उदाहरण हमारे सामने रखा है। एक ही मातृभूमि में रहनेवाले असंख्य लोग, भाषा अलग, प्रांत अलग, वेषभूषा अलग, परन्तु फ़िर भी जब कोई विदेशी आक्रमण हमारी मातृभूमि पर होता है तब हमें इसी तरह हमारे बीच के सारे मतभेदों को भुलाकर / विरोध को बगल में रखकर, मजबूती के साथ एक साथ आना ही चाहिये। यहीं सीख हमारे ये स्नायु हमें देते हैं। जैसे हमारा देश हमारी मातृभूमि है उसी तरह हमारा शरीर इन स्नायुओं की मातृभूमि है। इस मातृभूमि को किसी भी कष्ट से बचाने के लिये ये स्नायू मजबूती के साथ कार्यरत रहते हैं।

हमारे स्नायु सतत कार्यरत रहते हैं। उनके कार्यों की आवश्यकता के अनुसार स्नायु की मोटाई, लम्बाई, रक्त आपूर्ति व अंदर के प्रथित तंतुओं में बदलाव होते रहता है। इसे स्नायु की re-modeling अथवा पुर्नरचना कहते हैं। सतत कार्यरत रहने वाले स्नायुओं में तो कम से कम दो सरताह में अ‍ॅक्टीन व मायोसिन के नये तंतु, पुराने तंतुओं का स्थान ले लेते हैं।

अब स्नायू आवश्यकता से ज्यादा कार्य करते हैं तभी उनमें प्रथिनों तंतू की संख्या बढ़ जाती हैं। इसे हैपर ट्रॉफ़ी कहते हैं। जब स्नायु काफ़ी समय तक कोई भी कार्य नहीं करते हैं तब वे सूख जाते हैं (atrophy)।

कार्य की आवश्यकतानुसार स्नायु की लम्बाई भी कम-ज्यादा होती है। किसी भी क्रिया के दौरान यदि स्नायू उसकी लम्बाई की अपेक्षा ज्यादा खींचा जाता है तो उसके तंतु के दोनों किनारों पर नये सारकोमिअर्स बन जाते हैं तथा स्नायू की लम्बाई बढ़ जाती है। यह क्रिया काफ़ी तेजी से घटित होती है। एक मिनट में अनेको नवीन सारकोमिअर्स का निर्माण होता है। स्नायु के छोटे या मोटे होने के दौरान इसकी विपरित क्रिया होती है। इस में स्नायु के दोनों सिरों पर सारकोमिअर्स की संख्या कम की जाती है। एक मिनट में ही निकाल दियेजाते हैं।

यदि किसी स्नायु से जुड़ा हुआ चेतातंतु को निकाल दिया जाये तो क्या होगा अथवा होता है, अब हम इसका अध्ययन करेंगे। पहली घटना यह होती है कि चेतातंतू के द्वारा आने वाले अ‍ॅक्शन पोर्टेशिअल के संदेश पूरी तरह रूक जाते हैं। स्नायु के आकुंचन का काम रूक जाता है व स्नायु का सुखना प्रारंभ हो जाता है (atrophy)। इस तरह दो महीनों की कालावधि बीत जाने के बाद स्नायु डिजनरेट होने लगता हैं। तीन महीनों के अंदर-अंदर चेतातंतुओ से संदेश आता फ़िर से शुरू हो जाने पर स्नायु धीरे-धीरे कार्यरत हो जाता है तथा ऐसे संदेशों का आना शुरु रहने पर पूर्णारोपण पूर्ववत हो जाता है। यद्यपि तीन महीनों के उपरांत इन संदेशका आना शुरू होने के बाद स्नायु के कार्य में सुधार आता है परन्तु काफ़ी कम मात्रा में सुधार होता है। जैसे-जैसे यह समय-सीमा बढ़ती जाती है वैसे-वैसे स्नायु में सुधार आने की संभावना भी कम होती जाती है और दो वर्षों के बाद यह संभावना बिल्कुल समाप्त हो जाती है। इस स्थिती में स्नायु तंतू की जगह धीरे-धीरे फ़ायबरस तंतू ले लेते हैं। यह फ़ायबरस तंतु धीरे-धीरे अखड़ जाते हैं। फ़लस्वरूप उस स्नायु में भी अकड़न आ जाती है। इसे contracture (कॉन्ट्रॅक्चर)कहते । हमने जो उपरोक्त वर्णन देखा वे पूरीतरह वैसे का वैसा ही पक्षाघात (paralysis)से ग्रसित व्यक्तियों में होता हैं।

पक्षाघात से पीड़ित होने से लेकर तीन महीनों के अंदर यदि उस व्यक्ती के स्नायु में कुछ सुधार हुआ हो तो उस व्यक्ती के पक्षाघात से ठीक होने की संभावना बढ़ जाती है। दो वर्षों के बाद उसमें किसी भी प्रकार का सुधार नहीं होता।

पक्षाघात से पीड़ित व्यक्ति को हम फ़िजियोथेरेपी देते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य होता है कि स्नायु का कार्य कृत्रिम रूप से शुरु रहें जिससे उसका contractures से बचाव हो सके। कभी-कभी स्नायु के सभी के सभी चेतातंतु अकार्यक्षम नहीं होते हैं, ऐसा पोलिओं की बीमारी में होता है। ऐसी अवस्था में शेष चेतातंतुओं में से नये चेतातंतु निकलते हैं तथा अकार्यक्षम स्नायु भी जोड़े जाते हैं। इसके फ़लस्वरूप इस स्नायु में कुछ हद तक कार्यशक्ती वापस आ जाती है।

(क्रमश:)

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