स्नायुसंस्था भाग – १७

हम हृदय की क्रियाओं का अध्ययन कर रहे हैं। हमनें देखा कि हृदय के स्नायु किसी पंप की तरह कार्य करते हैं। इसीलिये हृदय के द्वारा रक्त की पंपिंग की जाती है। अब हमें देखना है कि हृदय के एक चक्र के पूरा होने पर कितना रक्त हृदय के अंदर-बाहर आता जाता है।

हृदय के प्रसरण के दौरान यानी डायस्टोल में वेंट्रिकल में लगभग ११० से १२० मिली रक्त जमा होता है। इसे हृदय की एन्ड डायस्टोलिक वॉल्युम कहते हैं। हृदय के आकुंचन के दौरान यानी सिस्टोल में इस में से ७० मि.ली. रक्त हृदय के बाहर निकाला जाता है। इसे स्ट्रोक वॉल्युम कहा जाता है। वेंट्रिकल के आंकुचन के शुरु होते समय, उस में ११० से १२० मिली. रक्त होता है। इसमें से ७० मिली रक्त आकुंचन द्वारा बाहर निकाला जाता है। तात्पर्य यह है कि जब आकुंचन शुरु होता है तभी वेंट्रिकल में ४० से ५० मिली रक्त शेष बचा रहता है। इसे एन्ड सिस्टॉलिक वॉल्युम कहते हैं। इन सब में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है स्ट्रोक वॉल्युम। स्ट्रोक वॉल्युम यानी हृदय की प्रत्येक ‘बीट’ के दौरान हृदय से शरीर में होने वाली रक्त की आपूर्ति। हमने अभी देखा कि लगभग ७० मिली रक्त की आपूर्ति इस दौरान शरीर को की जाती है। एक मिनट में साधारणत: हृदय की ७२ बीटस् होती हैं। तात्पर्य यह है कि लगभग ५ लीटर रक्त प्रति मिनट शरीर में पहुँचाया जाता है। शरीर की आवश्यकता के अनुसार यह मात्रा दोगुनी तक बढ़ सकती है। यदि कोई व्यक्ति व्यायाम कर रहा हो अथवा दौड़ प्रतियोगिता में भाग ले रहा हो तो यह मात्रा ४ से ७ गुना तक बढ़ सकती हैं।

हृदय के स्नायु

यह वृद्धि मुख्यत: दो प्रकार से होती है-

१) वेंट्रिकल में जितनी ज्यादा मात्रा में रक्त आता है, उतनी ही ज्यादा मात्रा में रक्त वेंट्रिकल्स से बाहर निकाला जाता है। यहाँ पर हम सिर्फ़ शरीर के रक्ताभिसरण का ही विचार करेंगें। हृदय में रक्त शरीर की नीली वाहिनियों एवं महानीला से आता है। शरीर की प्रत्येक पेशी से, पेशी समूहों से जिस मात्रा में रक्त हृदय में भेजा जाता है(इसे वेनस रिटर्न (venous return) कहते हैं) उतना ही रक्त हृदय से शरीर में भेजा जाता है। ऐसा स्नायु के कार्यों के सरल सिद्धांत के कारण होता है, फ़िर चाहे वो स्केलेटल स्नायु हो अथवा कारडिअ‍ॅक स्नायु हो। वो उसकी उचित मर्यादा में जितना ज्यादा खींचा जाता है, उसी अनुपात में उसकी आकुंचन शक्ति अथवा बल बढ़ता है। फ़लस्वरूप ज़्यादा गया हुआ रक्त पूरी तरह बाहर निकाल दिया जाता है। हृदय के इस कार्य में दूसरी एक बात कुछ हद तक सहायता करती है। अंदर आने वाले रक्त की मात्रा के अनुसार कारडिअ‍ॅक स्नायु खींचे जाते हैं। इस में दाहिनी अ‍ॅट्रिअम के स्नायु भी खिंचते हैं। फ़लस्वरूप हृदय की धड़कनों की संख्या प्रति मिनट १० से २० प्रतिशत बढ़ जाती है। जिससे प्रति मिनट बाहर निकलने वाले रक्त की मात्रा बढ़ जाती है।

हृदय को ऑटोनॉमिक चेतासंस्था द्वारा चेतातंतु की आपूर्ति होती हैं। इसमें दो प्रकार के तंतु होते हैं – १) सिम्पथेटिक व २)पॅरासिम्पथेटिक।
हृदय से रक्त बाहर निकालने की क्रिया पर इन दो चेतातंतुओं का कंट्रोल होता है। जितना रक्त प्रति मिनट बाहर निकाला जाता है उसे कारडिअ‍ॅक आऊटपुट कहते हैं। सिम्पॅथेटिक चेतातंतुओं के कार्य के कारण कारडिअ‍ॅक आऊटपुट शून्य तक भी जा सकता है। इससे यह बात समझ में आती है कि कारडियाक आऊटपुट पर यानी हृदय के पंपिंग कार्य पर, ये दोनों चेतातंतु परस्पर विरोधी कार्य करते हैं।

सिम्पॅथेटिक चेतातंतु के कार्य : नॉर्मल युवा व्यक्ति में हृदय की ७० से ७२ स्पंदन प्रति मिनट होते हैं। इस कार्य में सिम्पॅथेटिक चेतातंतुओं में से धीमी गति से आने वाली लहरें सहायता करती हैं। तात्पर्य यह है कि इन चेतातंतुओं का कार्य हृदय में निरंतर शुरु रहता है। यदि इन चेतातंतुओं की लहरें ज्यादा गति से आने लगें तो हृदय की धड़कनें और कारडिअ‍ॅक आऊटपुट दोनों बढ़ जाती हैं। नॉर्मल व्यक्ति में ये स्पंदन १५० से १८० प्रति मिनट तक भी बढ़ जाते हैं। (व्यायाम या दौड़ने की क्रिया के दौरान) धीमी गति से सतत आनेवाली लहरों की मात्रा किन्हीं कारणों से घट जाये तो हृदय की धड़कने व आऊटपुट दोनों ही लगभग ३० प्रतिशत कम हो जाती हैं।

पॅरासिम्पॅथेटिक चेतातंतु के कार्य : हृदय के इस तंतु को वेगस् (v) चेतातंतु कहते हैं। इन चेतातंतुओं से अत्यंत शक्तीशाली लहरें लगातार आती रहने पर हृदय कुछ ही सेकंड़ों में बंद पड़ सकता है। परन्तु हृदय इस परिस्थिति से अपने आप को ‘बाहर’ निकाल लेता है और प्रतिमिनट २० से ४० धड़कनें शुरु रहती हैं। यानी हृदय कम से कम ४० प्रतिशत कार्यरत रहता ही है।

इस चेतातंतु की लहरें हृदय की आकुंचन क्षमता को २० से ३० प्रतिशत तक कम कर देती हैं। यहाँ पर हमें एक फ़र्क दिखायी देता है कि हृदय की धड़कने १०० से ६० प्रतिशत कम हो जाती है फ़िर भी आकुंचन का कार्य २० से ३० प्रतिशत ही कम होता है। इसका कारण यह है कि अलग प्रकार के चेतातंतु मुख्यत: एट्रिआ पर कार्य करते हैं। वेंट्रिकल्स में इन तंतुओं की मात्रा कम होने के कारण वेंट्रिकल्स के आंकुचन पर इसका असर नहीं होता।

कारडिअ‍ॅक स्नायु के आकुंचन में पोटॅशियम एवं कॅल्शिअम के अणुओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसकी जानकारी हमने इससे पहले प्राप्त की है। इन अणुओं की मात्रा में बदलाव होने पर उसका हृदय पर क्या परिणाम होता है, अब हम यह देखेंगे। हृदय के स्नायुओं में पेशीबाह्य द्राव में पोटेशियम की मात्रा साधारणत: ४ (mEq/lit) होती हैं। यदि यह मात्रा दोगुनी या तीन गुनी हो जाये तो कारडिअ‍ॅक स्नायुओं में शिथिलता आ जाती है। उनका आकुंचन पूरी तरह रुक जाने से मृत्यु की संभावना हो सकती है। इसके दो कारण हैं। पोटॅशिअम की मात्रा बढ़ जाने से कारडिअ‍ॅक स्नायु का रेस्टिंग पोटॅशिअल घट जाती है। फ़लस्वरूप अ‍ॅक्शन पोटेंशिअल की तीव्रता कम हो जाती है। जिसके कारण स्नायुओं की आकुंचन क्षमता क्षीण हो जाती है। इसका कारण यह है कि हृदय की लहरें जिन A.V. नोड़ में सें आगे A.V. तंतु के द्वारा वेंट्रिकल्स में पहुँचती हैं, वह मार्ग बंद हो जाता है। उनका वहन रुक जाता है।

कॅल्शिअम के अणुओ की मात्रा बढ़ जाने पर कारडियाक स्नायु के आकुंचन अधिक तीव्र हो जाते हैं। इस प्रकार यदि लगातार आकुंचित होते रहें तो हृदय का कार्य रुक सकता है। इसके विपरित यदि कॅल्शिअम के अणु कम हो जाते हैं, तो इन स्नायुओं में शिथिलता आ सकती है।

शरीर का तापमान बढ़ने पर हृदय के स्पंदन बढ़ जाते हैं तथा तापमान कम होने पर स्पंदन मंद पड़ जाते है।

इस लेख में हमने देखा कि हृदय एक पंप की तरह कैसे कार्य करता है। अगले लेख में हम देखेंगे कि हृदय के स्पंदन कहाँ पर एवं कैसे निर्मित होते हैं और उनका वहन कैसे होता है।

(क्रमश:-)

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