स्नायुसंस्था भाग – १८

हमारे हृदय को परमेश्‍वर ने एक विशेष गुणधर्म प्रदान किया है। हमारा हृदय निश्‍चित आवेग के स्पंदन स्वयं ही निर्माण करता है और इन स्पंदनों को संपूर्ण हृदय में वहन भी करता है। इन स्पंदनों पर हृदय के स्नायु आकुंचन-प्रसरण करते हैं। बिना किसी दोष के जब ये स्पंदन शुरू होते हैं तब एट्रिया वेंट्रिकल्स के १/६ सेकेंड़ पहले आकुंचित होता है। फ़लस्वरूप फ़ेफ़ड़ों और पूरे शरीर में पर्याप्त रक्त की आपूर्ति करने के लिये वेंट्रिकल्स में उचित मात्रा में रक्त जमा हो जाता है। दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना जो इन स्पंदनों में घटित होती है वो यह है कि वेंट्रिकल का सारा हिस्सा एक ही समय पर आकुंचित होता है। फ़लस्वरूप रक्त को बाहर निकालने के लिये पर्याप्त दबाव इसमें बन जाता है।

हृदय निश्‍चित आवेग के स्पंदन

स्पंदनों का निर्माण करनेवाला और उनका वहन करनेवाला यह सिस्टिम हृदय के रोगग्रस्त होने पर ही बिगड़ता है। करोनरी रक्तवाहिनी से हृदय को होने वाली रक्त आपूर्ति की मात्रा कम होने से जो हृदय-विकार हो जाता है उससे ये स्पंदन बिगड़ जाते हैं। ऐसी बीमारी में इनका वेग बढ़ जाता है अथवा कम हो जाता है और कभी-कभी तो काफ़ी अनियमित हो जाता है। अनियमितता में भी एक मजेदार घटना घटती है (परन्तु मरीज के लिये निश्‍चित रुप से यह मजेदार नहीं होती)। ये स्पंदन नियमित रूप से अनियमित अथवा अनियमित रुप से नियमित होने लगते हैं। नियमित रुप से अनियमित का तात्पर्य यह है कि इनकी अनियमितता में भी एक नियमितता होती है। उदा. प्रत्येक चार नियमित स्पंदनों के बाद ये अनियमित स्पंदन पड़ते हैं। यानी अनियमित स्पंदनों की कालावधि नियमित अथवा समान होती है। जब यह कालावधि भी अनियमित होती है तब इन स्पंदनों को अनियमित रुप से अनियमित स्पंदन कहा जाता है।

ये स्पंदन कहाँ बनते हैं और इनका वहन कैसे होता है, यह हमने इससे पहले देखा है। फ़िर भी एक बार उसको फ़िर से दोहराते हैं। इन स्पंदनों का निर्माण सायनोएट्रिअल नोड़ अथवा सायनस नोड़ में होता है। वहाँ से उनका वहन संपूर्ण एट्रिया पर होता है। एट्रिया के बाद ये स्पंदन एट्रिओ-वेंट्रिक्युलर नोड़ में आते हैं तथा यहाँ से परकिंजे तंतु में से दोनो वेंट्रिकल्स पर फ़ैलते हैं। अब हम देखेंगे कि इन में से प्रत्येक भाग के कार्य कैसे होते हैं।

सायनस नोड़ :- यह दाहिनी एट्रिअल की बाहर की दीवार पर होता है। यह पतला परन्तु लम्बा ऐसा वैशिष्ट्यपूर्ण स्नायु होता है। इसकी लम्बाई १५ मिमी., चौड़ाई ३ मिमी. व मोटाई १ मिमी. होती है। आंकुचित होनेवाले प्रथिन तंतु इसके नजदीक नहीं होते हैं। जो होते हैं वे अत्यंत सख़्त होते हैं। इस नोड़ के तंतु इर्दगिर्द की एट्रिया के स्नायुओं से सीधे जुड़े होते हैं।

सायनस नोड के तंतु अन्य कारडियाक स्नायुओं के तंतु से भिन्न होते हैं। इन तंतुओं में आकुंचित होने वाले प्रथिन नहीं होते हैं। इसीलिये ये तंतु आकुंचित नहीं होते। परन्तु ये तंतु सेल्फ़ एक्सायटेटरी यानी स्वत: उद्दीपीत होने वाले होते हैं। इन तंतुओं में विना किसी बाहरी सहायता के अ‍ॅक्शन पोटेंशिअल का निर्माण होता है। हमने अब तक देखा है कि अन्य सभी स्नायुतंतुओं में चेतातंतुओं से संदेश पहुँचने के बाद उनमें अ‍ॅक्शन पोंटेशिअल का निर्माण होता है। हृदय के अन्य सभी स्नायुओं में भी बाहरी संवेदना की आवश्यकता होती है। सायनस नोड़ के तंतु इसका अपवाद (एक्सेप्शन) होते हैं। इन तंतुओं की दो बातें इन तंतुओं को यह अपवादात्मक गुणधर्म प्रदान करती है। इन दोनों गुणधर्मों को समझने से पहले थोड़ा पुनरभ्यास करते हैं।

स्नायुतंतु के आवरण पर उसकी रेस्टींग स्थिति में रेस्टिंग मेंब्रेन पोटेंशियल होती है। ज्यादातर स्नायुओं में यह ९० एम.व्ही. होती है। चेतातंतुओं में से अ‍ॅक्शन पोटेंशिअल स्नायु आवरण पर पहुँचने के बाद सोडिअम अणु स्नायुतंतु में प्रवेश करते हैं। यह क्रिया तेज गति से होती है। इसके बाद सोडिअम व कॅल्शिअम के अणु एकत्र परन्तु थोड़ी धीमी गति से स्नायुतंतु में प्रवेश करते हैं। इसके कारण स्नायुतंतु की मेंब्रेन पोंटेशिअल रेस्टींग पोटेंशिअल की अपेक्षा बढ़ती जाती है। पोटेंशिअल की यह बाढ़ एक निश्‍चित स्तर पर पहुँचने के बाद स्नायु तंतुओं में अ‍ॅक्शन पोटेंशिअल का निर्माण होता है। जिस स्तर पर इसका निर्माण होता है (अ‍ॅक्शन पोटेंशिअल) उस स्तर को थ्रेशहोल्ड पोटेंशिअल कहते हैं। सभी स्नायु तंतुओं में यह थ्रेशहोल्ड पोटेंशिअल साधारणत: – ६५ एम.व्ही. होता है। यह थी सर्वसाधारण स्नायुतंतु की बात। अब हम देखेंगे कि सायनस नोड़ के तंतु में क्या होता है। तब हम यह समझ सकेंगे की आखिर ये तंतु सेल्स एक्सासटेटरी क्यों होते हैं।

सायनस तंतु के आवरण पर रेस्टींग पोटेंशिअल -५५ से ६० एम.व्ही. होता है। यह अन्य स्नायुओं के थ्रेशहोल्ड स्तर से ज्यादा होता है। सायनस तंतुओं का थ्रेशहोल्ड पोटेंशिअल -४० एम.व्ही. होता है। रेस्टिंग पोटेंशिअल के ज्यादा होने के कारण ये तंतु जल्दी उद्दीपित होते हैं। परन्तु इनके स्वत: उद्दीरित होने का क्या कारण है?

इसका कारण यह है कि अ‍ॅक्शन पोटेंशियल का चक्र पूरा होने पर इसके आवरण पर पोटेंशियल रेस्टिंग स्थिती आने के बाद यानी स्पंदन पूरा हो जाने के बाद दूसरा स्पंदन शुरु होने तक के बीच के समय में रेस्टिंग पोटेंशियल -५५ एम.व्ही. पर स्थिर न रहकर धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। ऐसा होने का कारण यह है कि इन तंतुओं में रेस्टिंग स्थिति में भी इसका आवरण सोडियम अणुओं को तंतु में प्रवेश करने देता हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि ये तंतु सेल्फ़ एक्सायटेबल कैसे होते हैं। इन सायनस तंतुओं में इस तरह निर्माण हुये इन स्पंदनों की लहरें आगे चलकर संपूर्ण हृदय को कैसे घेर लेती है, यह हम अगले लेख में देखेंगें।

(क्रमश:)

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