स्नायुसंस्था – २१

अब तक हमने स्नायु संस्था के बारे में काफी जानकारी प्राप्त की। इस दौरान हमने देखा कि हमारे स्नायु ही हमारी कार्यशक्ती हैं। शरीर की बाह्य गतिविधियाँ तथा सभी अंतर्गत क्रियाएँ इस स्नायु संस्था पर निर्भर रहती है। हमने देखा कि हमारे शरीर में तीन प्रकार के स्नायु होते हैं। स्केलेटल, कारडियाक और स्मूथ। इन सबकी रचना एवं कार्यों के बारे में हमने जानकारी प्राप्त की।

स्नायुसंस्थास्नायु की कार्यपद्धति में हमने देखा कि energy अथवा शक्ती का प्रवास किस प्रकार होता है। यह शृंखला इस प्रकार होती है कि रासायनिक शक्ती का रुपांतर विद्युतशक्ती में व विद्युतशक्ती का रूपांतर कार्य शक्ती में होता है।

chemical energy – electrical energy
electrical energy – mechanical energy

प्रत्येक प्रकार से स्नायुओं में यह किस प्रकार होता है यह भी हमने देखा। इसके फलस्वरुप इन तीनों स्नायुओं की भिन्नता तथा उनका सामर्थ्य भी हमारी समझ में आया। यदि स्केलेटल स्नायु में किसी भी विकार के कारण दुर्बलता आ जाये, तो व्यक्ति किस प्रकार विकलांग हो जाता है, यह हम प्रतिदिन के जीवन में देखते रहते हैं। इनमें से यदि श्‍वसन के स्नायु बीमार हो जाये, उनमें दुर्बलता आ जाये, तो व्यक्ति किस प्रकार विकलांग हो जाता है, यह हम प्रतिदिन के जीवन में देखते रहते हैं। इनमें से यदि श्‍वसन के स्नायु बीमार हो जाये, उनमें दुर्बलता आ जाये तो जान पर ही बन आती है। यदि श्‍वसन रुक गया तो सब कुछ रुक जाता है। जीवनयात्रा समाप्त हो जाती है। ऐसा होने के बावजूद भी हम जो लगातार श्‍वास लेते रहते हैं, उसे हम ले रहे हैं, यह बात भी हमारे ध्यान में नहीं आती है। हम इतना उसे गृहित (टेकन फॉर ग्रँटेड) मान लेते हैं। जब हमारी श्‍वसन क्रिया में कोई बाधा उत्पन्न होती है तभी हमें इसका अहसास होता है। श्‍वसन की क्रिया पूरी तरह हमारे नियंत्रण में नहीं होती। मष्तिष्क, चेतातंतु, फेफडों का सामूहिक कार्य, हमारे नियंत्रण के बिना शुरु रहता है। परन्तु कुछ स्केलेटल स्नायु इस क्रिया में सहायता करते हैं। साथ ही छाती और पेट के बीच का विभाजक परदा यह स्नायु भी इसका कारण होता है। पसलियों के बीच के स्नायु, नाक के, गले के स्नायु इत्यादि को accessory muscles of respiration अर्थात श्‍वसन क्रिया में सहायक स्नायु कहा जाता है। यदि किन्हीं कारणों से फेफड़ों में आनेवाली वायु की मात्रा घटती है तो ये स्नायु हमेशा की तुलना में ज्यादा कार्य करके प्राणवायु की मात्रा बढ़ाने का काम करते हैं। इसीलिये जब किसी व्यक्ति को दम लगता है (वह हाफने लगता है) तो उसके नथुनों में तेज़ गति से साँसें चलती हैं। पेट तेज़ी से ऊपर-नीचे होने लगता है। गले के पास और छाती के नीचे गड्ढा बन जाता है। पसलियों के बीच की जगह श्‍वसन के दौरान अंदर की ओर खिंच जाती हैं। ये सभी बदलाव इन स्नायुओं के कार्य के कारण होते हैं।

भोजन करते समय हम हर कौल चबाकर खाते हैं। अन्न को चबाने की यह क्रिया अथवा जबड़े की दोनों हड्डियों को पास में लाने की क्रिया जबड़े के स्नायु करते हैं। अन्न को चबाने की क्रिया को mastication (मॅस्टीकेशन) कहते हैं। इसीलिये इस स्नायु को masticatory स्नायु कहते हैं।

हमारे हाथ-पैर की सभी गतिविधियाँ, चलना, दौडना, खड़े रहना, छलाँग लगाना इत्यादि सब कुछ स्नायुओं के कारण ही संभव होता है। मैं अंगुलियों से पेन पकडकर यह लिख रहा हूँ। पेन की यह पकड़ और लिखने की क्रिया, स्नायुओं के कारण ही संभव होती है।

हमारे पेट के सामने वाले भाग के स्नायु, पेट के अंदर के अवयवों के संरक्षण का कार्य भी करते हैं। यदि सामने से पेट पर आघात (घूँसा मारना) हो तो ये स्नायु फौरन कड़क हो जाते हैं तथा इस आघात  की तीव्रता कम कर देते है।

रोटी, कपड़ा और मकान इन तीनों मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मनुष्य कोई भी रोज़गार, उद्योग, धंदा, नौकरी करता है। इसके लिये उसे जो कष्ट उ़ठाने पड़ते हैं, उन कष्टों (परिश्रम) के लिये लगने वाली शक्ती से स्नायु प्रदान करते हैं।

अपने मन की सभी भाव-भावनाओं को हम स्नायुओं के माध्यम से ही व्यक्त करते हैं। हँसना, रोना, क्रोधित होना, लज्जित होना, ठहाका लगाना इत्यादि सब विविध स्नायुओं की गति-विधियों के कारण ही संभव होता है। चीढ़ना, गुस्सा होना, रोना इत्यादि भावनाओं को दर्शाने के लिये चेहरे के अनेकों स्नायुओं को कार्य करना पड़ता है। वहीं पर हँसने के लिये कुछ ही स्नायुओं को कार्य करना पड़ता है। चीढ़ने की अपेक्षा हँसना कभी भी आसान होता है। चीढ़ने, गुस्सा होने की अपेक्षा एक मुस्कान से कई गुना आनंद हम सभी को दे सकते हैं और वो भी कम से कम शक्ती का उपयोग करके।

कारडियाक स्नायु और स्थूल स्नायुओं के अंतर्गत अवयवों के कार्य भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। कारडियाक स्नायु के कार्य तो फौरन ध्यान में आ जाते हैं। इनके कार्य रुकते ही अपना जीवन ही समाप्त हो जाता है। ये दोनों स्नायु हमारे आधीन नहीं होते हैं। हमारे हृदय के स्पंदन भी हमारे वश में नहीं होते हैं। उन पर हम किसी भी प्रकार का आधिपत्य नहीं जमा सकते, जिनपर हमारा जीवन आधारित होता है। निश्‍चित वेग से चलने वाले मेरी ‘नाड़ी’ ही मेरे जीवित होने का लक्षण है। उसपर हमारा किसी प्रकार का आधिपत्य नहीं हैं। ऐसा होने के बावजूद भी मैं मेरी ‘मैं पन’ में रात-दिन मशगूल रहता हूँ। मेरे इस ‘मैं’ पन के खोखले पन का अहसास मुझे कब होगा? स्मूथ स्नायु के कार्य भी उसी तरह महत्त्वपूर्ण होते हैं। मेरी आँतों के कार्य, रक्तवाहिनियों के कार्य, श्‍वसन नलिका के कार्य, इत्यादि सब इन स्थूल स्नायुओं के कार्यों के ही परिणाम हैं। इनमें से किसी भी अवयव के स्नायुओं में खराबी आ जाने पर जान खतरे में पड़ सकती है। ऐसी है इन स्नायुओं की महत्ता।

अस्थिसंस्था के बारे में जानकारी प्राप्त करते समय हमने लगभग सभी अस्थियों की नाम सहित जानकारी प्राप्त की। परन्तु यहाँ पर हमने उसका प्रयत्न भी नहीं किया, क्योंकि हमारे शरीर के स्नायुओं की संख्या यह हड्डियों की संख्या की तुलना में काफी ज़्यादा है। जोड (जॉईंट) की एक क्रिया के लिये अनेक स्नायु कार्यरत होते हैं। इसीलिये हम इस जानकारी को यहीं पर विराम दे रहे हैं।

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