मथुरा भाग-३

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श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारि। हे नाथ नारायण वासुदेव॥

कृष्णभक्ति के रंग में रंगी मथुरा का सफ़र हमने बस शुरू ही किया था कि कृष्णजन्माष्टमी आ गयी। हज़ारों वर्ष पूर्व परमात्मा ने इसी मथुरा नगरी में ‘श्रीकृष्ण’ नाम धारण करके जन्म लिया था। मथुरा में कृष्णजन्माष्टमी का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। आइए, तो फिर चलते हैं, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, उस ‘कृष्णजन्मभूमि’ की ओर।

आज कई हज़ार वर्षों से श्रीकृष्ण, उनकी बाललीलाएँ और उनका अवतारचरित्र प्रत्येक भारतीय मन को मोहित करता आ रहा है।

दुष्ट कंस ने जिस कारागार में वसुदेव और देवकी इस दंपति को कैद कर रखा था, उसी कारागार में श्रावण महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को ठीक मध्यरात्रि में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, यह तो हम सब जानते ही हैं।

आज की मथुरा में स्थित ‘कत्र केशवदेव’ का मंदिर यह वही स्थान है, जहाँ वह कारागार बसा था जिस में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।

जन्म होने के बाद कुछ ही समय में बालकृष्ण को अपने साथ लेकर वसुदेवजी नंदराजा के घर गये। राह में उन्हें यमुना को पार करना पड़ा। फिर बालकृष्ण नंदराज के घर में ही पले बढ़े और पुन: मथुरा आये, दुष्ट दुर्जन कंस का वध करने के लिए।

आज भी कत्र केशवदेव मंदिर में कृष्ण के दर्शन करते समय भगवान के मानवीय अवतार के जन्मस्थल के दर्शन करने की खुशी से भावविभोर हो जाने के साथ साथ भाविक उन ईश्‍वर के सामने नतमस्तक भी होते हैं।

श्रीकृष्णचरित्र में महत्त्वपूर्ण पड़ावों पर हमारी मुलाक़ात यमुना के साथ होती ही रहती है। मथुरा के पास से बहनेवाली यह यमुना, नहीं, बल्कि जिसके तट पर मथुरा बसी है, ऐसी यह यमुना।

बचपन में स्नान को प्रारंभ करते समय एक श्‍लोक का उच्चारण करने की परिपाटी थी। ‘गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति। नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥ इस श्‍लोक में उल्लेखित यमुना मथुरा में कभी शान्ति से तो कभी उत्कटता से बहती हुई दिखायी देती है। हमारी संस्कृति ने हमेशा ही नदी को ‘पुण्यदायिनी’ माना है और यमुना जैसी पुण्यदायिनी नदी, जिसका गौरव ‘यमुना मैया’ कहकर किया जाता है, उसके जल का कम से कम स्पर्श तो मिल सकें, ऐसी भाविकों की मन्शा रहती है।

यमुना जल में उतरने के लिए मथुरा में एक-दो नहीं, बल्कि कुल २५ घाट बनाये गये हैं। इन घाटों पर ही सुंदर मंदिर और अलंकृत प्रवेशद्वार भी हैं। यहाँ पर व्यवस्थित रूप से सीढ़ियों का निर्माण भी किया गया है। काशी के घाटों की तरह ही यहाँ के घाटों की रचना है, लेकिन वे काशी के घाटों के जितने मशहूर नहीं है। यहाँ के घाटों पर शाम को यमुना मैया की सुंदर आरती की जाती है और रात के अन्धेरे में धीरे से बहती हवा के झोंकों के साथ साथ इसके पात्र में छोड़े गये अनगिनत दीपक सैंकड़ों मील के सफ़र के लिए निकल पड़ते हैं।

तो ऐसे इन २५ घाटों में से सब से महत्त्वपूर्ण माना जाता है, ‘विश्राम घाट’। कहा जाता है कि कंस का वध करने के पश्‍चात् यहीं पर श्रीकृष्ण ने कुछ देर तक विश्राम किया था। इसीलिए इस स्थान पर बनाये गये घाट को ‘विश्राम घाट’ कहा जाने लगा। १८१४ में यहाँ की सीढ़ियों की पुनर्रचना की गयी, ऐसा कहा जाता है।

इस विश्राम घाट को मध्यवर्ती मानकर अन्य घाटों के स्थानों के बारे में कहा जाता है। यह भी ज्ञात होता है कि विश्राम घाट के उत्तर में १२ घाट हैं और दक्षिण में ११ घाट हैं।

विश्राम घाट के उत्तर में रहनेवाले घाटों के नाम हैं – गणेश घाट, दशाश्‍वमेध घाट, सरस्वती संगम घाट, चक्रतीर्थ घाट, कृष्णगंगा घाट, सोमतीर्थ अथवा स्वामी घाट, घंटाघरण घाट, धरापत्तन घाट, वैकुंठ घाट, नवतीर्थ अथवा वराहक्षेत्र घाट, असिकुंड घाट और मणिकर्णिका घाट।

विश्राम घाट के दक्षिण में रहनेवाले घाटों के नाम हैं – गुप्ततीर्थ घाट, प्रयाग घाट, श्याम घाट, राम घाट, कनखल घाट, ध्रुव घाट, सप्तर्षि घाट, मोक्षतीर्थ घाट, सूर्य घाट, रावण कोटी घाट और बुद्ध घाट।

पुराण जिस तरह मथुरा का गौरव करते हैं, उसी तरह मथुरावासियों का भी गौरव करते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि प्राचीन समय में ग्रीक मथुरा का उल्लेख जिस नाम से करते थे, उसका अर्थ था- मंदिरों की नगरी।

तो ऐसी इस मथुरा में श्रीकृष्ण के कई मंदिर हैं। वहाँ के आराध्य श्रीकृष्ण को विभिन्न नामों से संबोधित किया जाता है और उन मंदिरों को भी उन्हीं नामों से जाना जाता है। जिस तरह प्रयाग घाट के मंदिर को ‘वेणीमाधव’ इस नाम से जाना जाता है।

कृष्ण का जन्म हुआ मथुरा में और कंस का वध करने के लिए वे पुन: मथुरा लौट आये। हालाँकि उनकी बाललीलाएँ मथुरा में न भी हुई हों, लेकिन आगे चलकर गीता में उन्होंने जिस ‘निष्काम कर्मयोग’ का उपदेश किया, उसका प्रात्यक्षिक ही मानों उन्होंने मथुरा में किया।

कंसवध के बाद मथुरा दुष्टों के चंगुल से मुक्त हो गयी। लेकिन इस भूमि को दुष्टों के शिकंजे से मुक्त करनेवाले भगवान ने इसपर राज नहीं किया यानि कि वे राजा नहीं बने। आगे चलकर जरासंध के द्वारा बार बार हो रहे हमलों के उपद्रव के कारण श्रीकृष्ण ने द्वारका बसायी और यादवों सहित वे वहाँ रहने लगे। ऐसा है यह श्रीकृष्ण और मथुरा नगरी के बीच का अनोखा रिश्ता। यहाँ उन्होंने जन्म लिया, यहाँ की दुष्ट सत्ता को भी उन्होंने समाप्त कर दिया; लेकिन किसी भी वैभव, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा आदि का उपभोग न करते हुए वे हमेशा ही ‘उपभोगशून्य स्वामी’ ही बने रहे। वैसे तो द्वारका में भी वे ‘उपभोगशून्य स्वामी’ की ही भूमिका में रहे; लेकिन मथुरा में उन्होंने उनके ‘परित्राणाय साधूनाम्….’ इस ब्रीद की झलक किशोरावस्था में ही दुनिया को दिखायी।

मथुरा के कंस, केशी जैसे असुर आज भी कुछ जगहों के नामों के रूप में विद्यमान हैं।

आमेर के राजा मानसिंह द्वारा यमुना तट पर बनाया गया क़िला ‘कंस क़िला’ इस नाम से जाना जाता है। आज इस क़िले के अवशेष दिखायी देते हैं। इसके इर्दगिर्द ही जयपुर के सवाई जयसिंह नामक महाराजा ने ‘जंतरमंतर’ का निर्माण किया था, ऐसा भी कहा जाता है।

वृंदावन में श्रीकृष्ण ने जहाँ केशी नामक असुर को मौत के घाट उतारा था, वह जगह ‘केशी घाट’ इस नाम से जानी जाती है।

अब वृंदावन की बात चली ही है, तो वृंदावन के बारे में एक महत्त्वपूर्ण बात का ज़िक्र करना मुनासिब होगा। श्रीकृष्णचरित्र में वृंदावन की महिमा तो सुपरिचित ही है और कहा जाता है कि इस वृंदावन में जितने घर हैं, उतने ही मंदिर हैं।

दुर्जनों के उल्लेख के बाद आइए ङ्गिर भगवान के नामसंकीर्तन की ओर रुख करते हैं। ‘विश्राम घाट’ के पास स्थित ‘द्वारकाधीश मंदिर’ यह मथुरा का एक और खूबसूरत कृष्णमंदिर है। १८१४ में ग्वालियर रियासत के खजानची ने इसका निर्माण किया। यहाँ के गर्भगृह में भगवान श्रीकृष्ण की बहुत ही मनोहर मूर्ति है। साथ ही मंदिर के दर्शनी तथा भीतरी हिस्से को अलंकरण द्वारा सुशोभित किया गया है।

मथुरा की पुण्यभूमि यह महिमा रहने के कारण पुराने समय से यहाँ कई छोटे बड़े मंदिरों का निर्माण किया गया। उनमें से कुछ का पुनर्निर्माण भी आगे चलकर किया गया; वहीं कुछ आक्रमणों में नष्ट हो गये। मग़र आज भी इस भूमि में कृष्णभक्ति की महक बरक़रार है। इसीलिए आज भी जन्माष्टमी कहते ही पहले याद आती है, मथुरा की।

कृष्णचरित्र में मथुरा जितना ही महत्त्व है, वृंदावन, नंदगाव, गोवर्धन, बरसाना, गोकुल, महावन, बलदेव आदि स्थलों का। ये सभी मथुरा से कुछ ही दूरी पर बसे हैं। इस सब स्थानों को मिलाकर ‘व्रज’ अथवा ‘ब्रजभूमि’ या ‘ब्रजमंडल’ कहा जाता है। कन्हैया की बाललीलाएँ तथा बालक्रीडाएँ दोनों के साथ इस ब्रजभूमि का अटूट रिश्ता है।

इस ब्रजमंडल के विस्तार के संदर्भ में विभिन्न मत हैं। इसका विस्तार ८४ कोस, ८० कोस या फिर ४० योजन भी बताया जाता है।

मथुरा का नाम लेते ही अपने आप वृंदावन का नाम याद आ जाता है, इतना इन दोनों के बीच गहरा नाता है। नंदगाव यानि नंद राजा का गाँव। जन्म लेते ही वसुदेवजी तुरन्त कन्हैया को यहाँ ले आये थे। गोपों की इंद्र के कोप से रक्षा करने के लिए अर्थात् मूसलाधार बारिश और बाढ की चपेट में आने से उन्हें बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने जिस पर्वत को उठाकर उसके नीचे उन सब को सुरक्षित रखा था, वह पर्वत था गोवर्धन पर्वत और रही गोकुल की बात, तो उसके बारे में हम सब भली भाँति जानते ही हैं।

गौओं के चरने तथा घूमने ङ्गिरने का प्रदेश, इस अर्थ में इसे ‘व्रजमंडल’ अथवा ‘ब्रजमंडल’ यह नाम इसे दिया गया। इस व्रजमंडल का वर्णन पुराणों ने, कृष्णभक्ति में समरस हुए कई सन्तों तथा भक्तों ने किया है। श्रीकृष्णभक्तों की दृष्टि से इस ब्रजमंडल का महत्त्व इतना है कि किसी एक कवि ने इस विषय में यह कहा है कि काशी और अयोध्या में दीर्घकाल तक रहने की अपेक्षा एक निमिष तक ब्रजभूमि में रहना यह खुशक़िस्मती है। (एक निमिष का अर्थ है, पलक को एक बार झपकाने के लिए लगनेवाली अवधि।)

इस ब्रजमंडल से तो हमारा परिचय हो गया। लेकिन केवल यह प्रारंभिक जानकारी ही काफ़ी नहीं है। यदि इन स्थानों की सैर न की जाये तो हमारी मथुरा की यात्रा कुछ अधूरी सी रह जायेगी। आइए, तो चलते हैं, ब्रजभूमि के दर्शन करने।

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