मथुरा भाग-१

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बचपन में नानी से सुनी कहानियों में परमात्मा के श्रीराम और श्रीकृष्ण इन अवतारों की ढ़ेर सारी कहानियाँ सुनी थीं। श्रीराम के साथ अयोध्या का और श्रीकृष्ण के साथ गोकुल, मथुरा और वृंदावन इनका उल्लेख रहता ही था। श्रीकृष्ण की कथाओं में मथुरा का उल्लेख पहले आता था; क्योंकि वह था श्रीकृष्ण का जन्मस्थान।

बाद में बढ़ती उम्र के साथ साथ श्रीकृष्ण चरित्र द्वारा मथुरा से मुलाक़ात होती रही। आज मथुरा की याद आने की वजह है, श्रावण मास का आगमन। दर असल हमारी संस्कृति में श्रावण मास के प्रत्येक दिवस का कुछ न कुछ महत्त्व तो होता ही है। श्रावण (कुछ पंचांगों के अनुसार भाद्रपद) महीने के कृष्ण पक्ष में आती है, कृष्णजन्माष्टमी, भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन।

जन्म के साथ श्रीकृष्ण का नाता ‘मथुरा’ नगरी के साथ जुड़ गया। आज की मथुरा ने भी उन स्मृतियों को जतन किया है। कृष्णजन्म के कारण पवित्र हुई यह मथुरा नगरी प्राचीन समय में कई विद्याओं तथा कलाओं की जननी रही है।

इस मथुरा नगरी का जन्म हुआ, बहुत ही प्राचीन समय में। कहा जाता है कि रामायणकाल में श्रीराम के भाई शत्रुघ्नजी ने लवणासुर नाम के राक्षस को परास्त कर जीते हुए प्रदेश पर अपनी सत्ता स्थापित कर दी। इस प्रदेश के पास के ‘मधुवन’ नामक स्थल में उन्होंने एक नयी नगरी का निर्माण किया और इसी नगरी को नयी ‘मथुरा नगरी’ कहा जाने लगा। लवणासुर का शासन जिस प्रांत पर था, उस प्रांत को शायद मधुपुर कहते थे, क्योंकि ऊपरोक्त वर्णित मधुवन यह इस मधुपुर के पास का एक घना जंगल था। यह लवणासुर मधु का पुत्र था, ऐसा कहा जाता है। इसीलिए आगे चलकर मधुपुर का ही रूपान्तरण मथुरा हो गया।

इस तरह मथुरा नगरी का इतिहास हमें ठेंठ रामायणकाल में ले जाता है। भारतवर्ष में पुराने समय से ही मथुरा को एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शहर माना जाता है और इसकी वजह यह भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली है, यह तो है ही, साथ ही यह सप्तपुरियों में से एक है, यह भी है।

इस मथुरा नगरी को पुराने समय में विभिन्न कालखण्डों में विभिन्न नामों से जाना जाता था। मधुरा, मधुपुरी, मधूपघ्ना, मधूषिका, मधुपूर इन नामों से विभिन्न कालखण्डों में इसे जाना जाता था और फिर आगे चलकर इसका नाम ‘मथुरा’ हो गया। ऊपरोक्त नाम नगर बसाने वाले के नाम से दिये गये थे, ऐसा कहा जाता है।

पुराणों में भी मथुरा नगरी के उल्लेख मिलते हैं। उनके अनुसार प्राचीन समय में मधुरा अथवा मथुरा यह एक बड़ी वैभवशाली नगरी थी। इस नगरी में से पाटलीपुत्र जैसे नगर के साथ व्यापार किया जाता था। यहाँ के व्यापारी नौकाओं में माल भरकर अन्य नगरों में जाते थे और उन नगरों से भी तरह तरह का माल मथुरा नगरी में आया करता था। इससे एक बात ज़ाहिर होती है कि इस मथुरा नगरी के आसपास पुराने समय से जलप्रवाह यक़ीनन रहा ही होगा।

पुराणों में कहा गया है कि यह मथुरा नगरी यमुना नदी के तट पर बसी हुई थी। इसी यमुना में आयी बाढ़ में से श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी उन नन्हें बालक कृष्ण को पैदा होते ही नन्दजी के घर ले गये थे। इसीलिए मथुरा और जमुना का आपस में अटूट नाता है।

इतना ही नहीं, बल्कि इतिहास यह भी कहता है कि जिस तरह मथुरा से जलमार्ग से व्यापार चलता था, उसी तरह मथुरा नगर यह भूमि व्यापारमार्ग का एक प्रमुख थाना था।

तो प्राचीन समय से इस मथुरा नगरी के सफ़र की गवाह और साथी भी यमुना है।

साधारणत: इसा पूर्व छठी सदी में मथुरा को राजधानी का दर्जा मिल गया। उस समय ‘शूरसेन जनपद’ अथवा ‘शूरसेन महाजनपद’ इस नाम से जाने जानेवाले प्रांत की यह राजधानी थी। इस कालखण्ड के ग्रीकों के लेखन में इस महाजनपद का नाम ‘सौरसेनोइ’ और उसकी राजधानी का नाम ‘मेथोरा’ लिखा गया है।

इसा पूर्व छठी सदी के विभिन्न दस्तावेज़ों के आधार से यह जानकारी मिलती है कि उस समय कुल १६ महाजनपद/जनपद थे। इन १६ जनपदों में काशी, कोसल, अंग, मगध, वज्जि/व्रिजी, मल्ल, चेदी, वत्स/वंस, कुरु, पांचाल, मछ्छ/मत्स्य, शूरसेन, अस्सक, अवंती, गांधार, कंबोज इनका समावेश था। अन्य साहित्य में इनमें समाविष्ट नामों के बारे में भिन्नता भी प्राप्त होती है। लेकिन इन १६ जनपदों में से एक था, शूरसेन और उसकी राजधानी थी, मथुरा। इस शूरसेन नामक जनपद के शासक अवंतिपुत्र नामक राजा थे, यह जानकारी भी प्राप्त होती है।

पुराण, पाणिनि की अष्टाध्यायी इन ग्रन्थों में मथुरा का उल्लेख है। साथ ही बाद के समय में निर्मित साहित्य एवं वाङ्मय में तथा भारत आये विदेशी सैलानियों के सफ़रनामे में मथुरा का वर्णन किया गया है। इन वर्णनों से भी संस्कृति, कला, विद्या इनका संगम रहनेवाली, इनका जतन एवं विकास करनेवाली मथुरा नगरी हमारी आँखों के सामने दिखायी देती है। श्रीकृष्णचरित्र के प्रारंभिक वर्णन में से भी मथुरा नगरी की झाँकी मिलती है। इस श्रीकृष्णचरित्र में विभिन्न पडावों पर एवं श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं के तथा उनके द्वारा किये गये असुरसंहार के-अशुभनाशन कार्य के संदर्भ में भी मथुरा से मुलाक़ात होती रहती है।

रामायण में जिस मथुरा के साथ हमारी मुलाक़ात होती है, उसपर मधु नामक राक्षस के लवण नाम के पुत्र का कब्ज़ा था। जब यह लवण स्वयं की मर्यादाओं का उल्लंघन कर प्रजा को तकलीफ़ पहुँचाने लगा तब मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की आज्ञा से उनके बंधु शत्रुघ्न ने लवण का नाश किया और प्रजा को उसके अत्याचारों से मुक्त कर दिया। आगे चलकर भीमसात्वत नामक यादव ने मथुरा पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया। उसके बाद यादव वंश का मथुरा पर शासन रहा।

आगे चलकर इसी यादव कुल में जन्मे कंस ने अपने पिता को बंदी बनाया और वह मथुरा का राजा बन गया। इसी दौरान उसने सुनी हुई आकाशवाणी के कारण उसने अपनी बहन देवकी और उसके पति वसुदेव को कारागृह में रख दिया। इस आकाशवाणी के अनुसार देवकी के पुत्र के हाथों कंस की मृत्यु निश्‍चित थी। प्रचंड उन्मत्त और बेक़ाबू हो चुका कंस प्रजाजनों पर अत्याचार कर ही रहा था और केवल मथुरा ही नहीं, बल्कि जहाँ जहाँ भी कंस की सत्ता थी, वहाँ के लोग कंस से उन्हें छुड़ानेवाले किसी मसीहा की राह देख रहे थे।

…..और आख़िर मथुरा के इतिहास की वह स्वर्णिम घड़ी आ ही गयी। उस बालक का मथुरा में जन्म हुआ, जो कंस का काल और सज्जनों का परित्राता था। आसमान में काले घने बादलों ने डेरा डाला हुआ था। बादल धरती पर मूसलाधार बरस रहे थे। सभी दिशाओं में बिजलियों की कड़कड़ाहट हो रही थी। उसी मध्यरात्रि में उस कारागृह में परमात्मा ने ‘श्रीकृष्ण’ इस नाम को धारण कर मानवजन्म लिया। मग़र किसीभी हालत में उस नन्हें से बालक को उस खूँख़ार और पत्थरदिल कंस से बचाना अत्यावश्यक ही था और इसीलिए पैदा होते ही बालकृष्ण को सिर पर उठाकर उसके पिता वसुदेवजी ने वहाँ से प्रस्थान किया। वे सीधे उस बालक को लेकर नंद नामक गोपराज के घर गये। रास्ते में यमुना उफान पर थी। शायद उसेभी यह पता था कि वसुदेवजी किसे लेकर जा रहे हैं और इसीलिए उन भगवान के चरणस्पर्श करने वह बेसब्री से अपने जलस्तर को बढ़ा रही थी। आख़िर वसुदेवजी नन्हें श्रीकृष्ण को लेकर गोकुल पहुँच गये। मथुरा में जन्मे उस नटखट बालक ने गोकुल और वृंदावन में कई बाललीलाएँ कीं।

आज भी ये स्थल मथुरा से कुछ ही दूरी पर हैं। इसीलिए मथुरा और उसके आसपास के इस प्रदेश को ‘ब्रजभूमि’ या ‘ब्रजमंडल’ कहा जाता है।

इस ब्रजभूमि या ब्रजमंडल में श्रीकृष्ण के समय में रहनेवाले विपुल गोधनों के वर्णन किये गये हैं। मवेशियों की विपुलता के कारण यहाँ पर दूध की ‘यमुना’ बहती थी। आज भी मथुरा का नाम लेते ही मथुरा के पेढ़ें, मथुरा की रबड़ी एवं अन्य दुग्धजन्य पदार्थों के नाम याद आ जाते हैं। क्योंकि मथुरा की दुग्धविपुलता आज भी बरक़रार है।

मथुरा का वर्णन करनेवाले कुछ विदेशी सैलानियों के नाम हैं – फा-हिएन, ह्यु-एन-त्संग और मॅगस्थेनिस। इनमें से मॅगस्थेनिस ने मथुरा का वर्णन ‘मेथोरा’ इस नाम से किया है। वह इस नगर को एक वैभवशाली एवं खूबसूरत नगर का दर्जा देता है। वहीं ह्यु-एन-त्संग इस नगरी का वर्णन ‘मोतुला’ इस नाम से करता है। फा-हिएन और ह्यु-एन-त्संग इन सैलानियों के समय में मथुरा में बौद्ध धर्म की शिक्षा प्रदान करनेवाले विद्यालय शुरू हुए थे। संक्षेप में, प्रत्येक कालखंड में मथुरा का वर्णन उस समय के हालातों के अनुसार किया गया है।

इस मथुरा पर प्राचीन समय से कई राजाओं तथा राजवंशों का शासन रहा है। इनमें से कुछ शासक भारत के थे, तो कुछ विदेशी। लेकिन एक बात मथुरा के इतिहास से स्पष्ट होती है कि मथुरा को कई बार आक्रमणों के ज़ख्म सहने पड़े हैं और साथ ही लूटमार का शिकार भी होना पड़ा है। क्योंकि प्राचीन समय से यह एक वैभवशाली नगरी के रूप में मशहूर थी।

मथुरा पर हुए किसी एक हमले के बाद वह आक्रमक निरन्तर २० दिन तक इस नगरी को लूट रहा था। इस लूट को अपने देश में ले जाने के लिए उसे १०० ऊँट लगे थे। इसमें उसने देवताओं की ५ स्वर्णमूर्तियाँ लूट ली थीं, जिन्हें विभिन्न प्रकार के रत्नों से अलंकृत किया गया था और उनमें से हर एक मूर्ति का वज़न था, १४ मन (१ मन = चालीस सेर का वजन)। यह इतिहास हमें बताता है कि यह एक वैभवशाली नगरी थी, जिसकी खूबसूरती की चर्चा दूर दूर तक होती थी।

दुष्ट दुर्जन कंस का राज्य भी इसी मथुरा पर था और उसका एवं दुर्जनता का विनाश करनेवाले श्रीकृष्ण का जन्म भी इसी मथुरा में हुआ था। ऐसी इस मथुरा के इतिहास पर हम एक नज़र डालेंगे, अगले लेख में।

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