मथुरा भाग-४

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, गोविंददेव, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-४

श्रीकृष्ण! परमात्मा का भारतभूमि में हुआ एक मानवीय अवतार! कालियामर्दन करनेवाले गोपालकृष्ण, गोपसखाओं के साथ खेलनेवाले बालकृष्ण, कंसमर्दन करनेवाले श्रीकृष्ण, रुक्मिणीहरण करनेवाले श्रीकृष्ण, बुद्धिमान, राजनीतिज्ञ श्रीकृष्ण, महायोद्धा श्रीकृष्ण, रणभूमि में पार्थ से भगवद्गीता कहनेवाले श्रीकृष्ण इस तरह कई रूपों में श्रीकृष्ण भक्तविश्‍व को मोहित करते हैं। मथुरा तथा उसके आसपास के इलाके में हज़ारों वर्षों बाद आज भी कृष्णभक्ति की मुरली की गूँज सुनायी देती है। इस ब्रजभूमि ने आज भी बालकृष्ण के पदस्पर्श के कई स्थानों को जतन किया है। आइए, तो फिर कृष्णभक्ति की इस मधुर मुरली की धुन को सुनने के लिए मथुरा के आसपास के प्रदेश की सैर करते हैं।

लेकिन पहले इस ‘ब्रजभूमि’ के विस्तार को यानि कि यह कहाँ से कहाँ तक फैली हुई है इसे जानना आवश्यक है। आज के ‘कोटबन’ नाम के गाँव से शुरू होनेवाली इस ब्रजभूमि की सीमा ‘रुनक्ता’ नाम के गाँव में जाकर समाप्त होती है। यमुना के पूर्वीय क्षेत्र के गाँव और यमुना के पश्‍चिमी क्षेत्र के गाँव इस तरह इस प्रदेश के दो प्रमुख विभाग किये जाते हैं। ब्रजभूमि के कुछ चुनिंदा स्थलों की सैर हम करनेवाले हैं।

‘वृंदावन’! मथुरा से जिसे अलग किया ही नहीं जा सकता ऐसा यह वृंदावन, मथुरा से लगभग १५ कि.मी. की दूरी पर बसा है। बाल तथा किशोरवयीन कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का यह स्थान है। अत एव हर एक कृष्णभक्त के मन में वृंदावन की अपनी एक खास जगह है और वृंदावन के प्रति एक अनोखा सा खींचाव भी है।

कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहाँ ‘तुलसी का बन(वन)’ था और इसी वजह से इस स्थान को ‘वृंदावन’ कहा जाने लगा। ‘वृंदा’ यह तुलसी का एक नाम है और इसीलिए तुलसी के अर्थात् वृंदा के वन को ‘वृंदावन’ कहा जाने लगा।

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, गोविंददेव, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-४कालिया डोह, केशी घाट, ब्रह्मकुंड, वंशीवट इनके साथ साथ मदनमोहन, गोविंददेव, बाँकेबिहारी, निधिवन ये वृंदावन के महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। इनमें से मदनमोहन, बाँकेबिहारी, गोविंददेव ये मंदिरों के नाम हैं। यहाँ आराध्य श्रीकृष्ण को विभिन्न नामों से संबोधित किया जाता है और उनके मंदिरों को भी उन्हीं नामों से जाना जाता है।

कालिया डोह, केशी घाट इनके नाम ही उनकी पहचान हैं। ‘जितने घर उतने मंदिर’ यह वृंदावन की ख्याति है। आइए, तो फिर यहाँ के कुछ मंदिरों में जाकर भगवान के दर्शन करते हैं।

काली घाट के पास बसा ‘मदनमोहन मंदिर’ यह कुछ लोगों की राय में यहाँ का सब से पुराना मंदिर है।

‘बाँकेबिहारी’ इस नाम से जाने जानेवाले श्रीकृष्णमंदिर का निर्माण १९वीं सदी में किया गया। इस मंदिर की ‘बाँकेबिहारी’ जी की मूर्ति (श्रीकृष्ण की मूर्ति) कृष्णभक्त स्वामी हरिदासजी का आराध्य थी। स्वामी हरिदासजी को निधिवन में यह मूर्ति प्राप्त हुई थी, ऐसा कहा जाता है।

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, गोविंददेव, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-४वहीं कुछ लोगों की राय में ‘गोविंददेव’ यह वृंदावन का सब से पुराना मंदिर है। १६वीं सदी के अन्तिम चरण में इसका निर्माण किया गया, ऐसा कहा जाता है। किसी समय यह मंदिर सात मंज़िला था। इस मंदिर का निर्माण लाल रंग के पत्थरों से किया गया है, यह इसकी विशेषता है।

१९वीं सदी के मध्य में वृंदावन में द्रविडीय स्थापत्यशैली का एक मंदिर बनाया गया। शेषशायी विष्णु के इस मंदिर का एक बहुत ऊँ चा गोपुर भी है, जो दक्षिणीय स्थापत्यशैली का नमूना है। इस छह मंज़िला ऊँ चे गोपुर के साथ यहाँ स्वर्ण का वरक़ दिया हुआ ५० फ़ीट की ऊँ चाईवाला एक ध्वजस्तंभ भी है।

‘निधिवन’ और ‘सेवाकुंज’ ये श्रीकृष्ण के वृंदावनस्थित अन्य दो प्रमुख लीलास्थान हैं। इनमें से निधिवन में ही स्वामी हरिदासजी को श्रीकृष्ण की मूर्ति मिली थी, यह हम पढ़ ही चुके हैं।

इस वृंदावन की महिमा इतनी अपरंपार है कि कृष्णभक्ति में रंग चुके कई संत, भक्त, कवि आदि सभी यहाँ अनामिक प्रेम से खींचे चले आते थे और हमेशा के लिए यहीं पर बस जाते थे। इसी वजह से वृंदावन में कई संकीर्तनस्थल, आश्रम आदि विपुलता से पाये जाते हैं।

वृंदावन ने कई संत-महात्माओं के हृदय में बसी कृष्णभक्ति को काव्यरूप में प्रवाहित किया है और यह कृष्णभक्ति फिर सुरों के माध्यम से साकार भी हुई है। ऐसे इस वृंदावन की महिमा पुराने समय से सुविख्यात है।

कृष्णभक्ति में आकंठ डूब चुके गौरांग चैतन्य महाप्रभु भी इस वृंदावन के दर्शन से मोहित हो गये। इस लेख में जिनका ज़िक्र किया गया है, उन स्वामी हरिदासजी का तो वृंदावन के साथ अटूट रिश्ता था।

कृष्णभक्त हरिदासजी ‘संगीत के प्रवर्तक’ भी माने जाते हैं। कुछ लोगों की राय में वृंदावन के पास के ही एक गाँव में उनका जन्म हुआ और युवावस्था में ही वे वृंदावन में आ बसे।

हरिदासजी की कृष्णभक्ति उनके संगीत के माध्यम से प्रकट हुई। भारतीय शास्त्रीय संगीत के ध्रुपद, धमार इन जैसे विभिन्न प्रकारों के प्रवर्तक के रूप में वे जाने जाते हैं।

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, गोविंददेव, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-४वृंदावन में रहकर ही वे अपने शिष्यों को संगीतविद्या सिखाते थे। उनके शिष्यों में से ‘बैजूबावरा’ का नाम काफ़ी मशहूर है। हरिदासजी बाँकेबिहारी के निस्सीम भक्त थे।

तो ऐसे इस वृंदावन में कृष्णभक्ति के कई रंग हमें देखने मिलते हैं। कभी विरह के आँसुओं के रूप में वह दिखायी देती है तो कभी मंत्रमुग्ध कर देनेवाली सुनहरी सरगम के रूप में। श्रीकृष्ण को जिस भक्त ने जिस तरह अनुभव किया, महसूस किया, उस प्रकार से उसने अपनी क्षमता के अनुसार श्रीकृष्णस्वरूप के अनुभव को अभिव्यक्त किया।

वृंदावन की कृष्णलीलाओं का वर्गीकरण अलौकिक एवं लौकिक लीलाएँ इस तरह किया जाता है। हालाँकि वृंदावन यह पृथ्वी पर का एक भौतिक स्थल भले ही दिखायी दे रहा हो, लेकिन कृष्णभक्तों की राय में वह शाश्‍वत है। साथ ही यह भी माना जाता है कि कलियुग यहाँ वृंदावन में प्रवेश तक नहीं कर सकता।

सूरदासजी जैसे संत श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि प्रभु, मुझे वृंदावन की इस भूमि का एक रज:कण बनाइए, क्योंकि यहाँ आपके चरण गौओं को चराते हुए विहार करते हैं।

तो ऐसा यह कृष्णनाम में, कृष्णलीलासंकीर्तन में रंगा हुआ वृंदावन। इस वृंदावन से अलविदा कहकर यहाँ से जाने का मन तो नहीं कर रहा है; लेकिन ब्रजभूमि के अन्य स्थानों को भी तो देखना है। तो आइए, आगे बढ़ते हैं।

कहा जाता है कि इस ब्रजभूमि में कुल १२ प्रमुख वन, ४ झीलें और १५९ कुंड थे, लेकिन समय की धारा में उनके नामोंनिशान मिट गये। प्राचीन समय में मथुरा की तीर्थयात्रा इन सबके दर्शन के बिना अधूरी मानी जाती थी। आज इन १५९ कुंडों में से महज़ चार ही कुंड विद्यमान हैं।

जन्म लेने के पश्‍चात् तुरन्त ही कन्हैया को जहाँ ले जाया गया उस गोकुल में अब चलते हैं। मथुरा से लगभग १५ कि.मी. की दूरी पर आग्नेय दिशा में आज का गोकुल नामक स्थान है। इस गोकुल में ही कन्हैया की परवरिश हुई और किशोरावस्था में ही वे गोकुल से गये। मग़र कन्हैया की बाललीलाओं ने इस गोकुल को और यहाँ के निवासियों को दीवाना बना दिया।

परमात्मा की बाललीलाओं को अनुभव करने का सौभाग्य इस भूमि को प्राप्त हुआ। कन्हैया के नन्हे से कदम इसी भूमि पर पड़े थे। यहीं पर उन्होंने पूतना का वध किया और यहीं पर दही-माखन की चोरी की।

गोकुलनाथ मंदिर, गोविंदघाट आदि गोकुल के प्रमुख स्थान माने जाते हैं। इस गोकुल में आज भी कृष्णजन्म महोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। साथ ही यहाँ ‘तृणवत’ नामक मेला भी लगता है और ‘अन्नकूट’ नामक उत्सव भी मनाया जाता है।

गोकुल से अब चलते हैं, ‘महावन’ नामक स्थल की ओर। यमुना के बायें तट पर महावन बसा हुआ है। यहाँ का मथुरानाथ यह स्थान काफ़ी मशहूर है। यहीं पर दाऊ बलरामजी की माँ का महल था, ऐसा कहते हैं। यहाँ के ८४ स्तम्भ भी सुविख्यात हैं।

अब दाऊ बलरामजी की बात चली ही है, तो ठेंठ उनसे संबंधित एक स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं।

‘बलदेव’ इस नाम से यह स्थान जाना जाता है। मथुरा से लगभग २० कि.मी. की दूरी पर यह स्थल है। यहाँ दाऊ बलरामजी का एक सुन्दर मंदिर है, जिसका निर्माण लगभग दो सौ साल पहले किया गया है, ऐसा मानते हैं।

कृष्णचरित्र के साथ जुड़े हुए ब्रजमंडल अथवा ब्रजभूमि के ये स्थान मथुरा के आसपास ही हैं, मथुरा से चंद २०-२५ कि. मी. की दूरी पर।

इसीलिए प्राचीन समय से इस ब्रजभूमि की यात्रा की जाती है। पुराणकाल में उद्धवजी और नारदजी ने भी ब्रजभूमि की यात्रा की थी, ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं। विभिन्न कालावधियों में स्थापित हुए कृष्णभक्ति के विभिन्न संप्रदायों के आचार्य भी ब्रजभूमि की यात्रा करते थे, इसके भी उल्लेख पाये जाते हैं। लेकिन उस ज़माने में कोई १२ वनों की तो कोई २४ उपवनों की यात्रा करते थे। ब्रजभूमि की इस यात्रा के कई प्रकार माने जाते हैं और हर यात्रा का कालखंड भी अलग रहता है। इनमें से कुछ यात्राएँ पाँच दिनों में पूरी होती हैं, तो कुछ यात्राओं को पूरा करने के लिए चालीस दिनों तक का समय लगता है।

ब्रजभूमि स्थित अन्य एक महत्त्वपूर्ण स्थल के दर्शन अब हम करने जा रहे हैं। लेकिन उससे पहले उस स्थल के बारे में एक हिंट! यह वह स्थल है, जिसे श्रीकृष्ण ने अपने हाथ की छोटी उँगली पर उठा लिया था और गोपों ने अपनी अपनी लाठियाँ उसे लगायी थीं।

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