चितोड भाग – २

 

गढ़ तो चितौड गढ़, और सब गढ़ैय्या।

इन शब्दों में राजस्थान के एक कवि ने चितोडगढ़ की महिमा वर्णित की है। काफी समय तक मेवाड़ की राजधानी होने के कारण राजस्थान का इतिहास चितोडगढ़ के साथ जुड़ा रहा है।

चितोड पर क़ब़्जा करने के लिए महाराणा प्रताप ने उनकी आख़िरी साँस तक संघर्ष किया, लेकिन इसके बावजूद भी महाराणा चितोड पर अपना शासन स्थापित नहीं कर सके। दरअसल अकबर ने जब चितोड पर अपना क़ब़्जा जमा लिया, तब महाराणा प्रताप के पिता राणा उदयसिंह (द्वितीय) ने उदयपुर को अपनी राजधानी बना लिया और इसके आगे राजकीय दृष्टि से उदयपुर का महत्त्व बढ़ता चला गया और चितोड का महत्त्व घटता गया। चितोड के साथ चितोडगढ़ का महत्त्व भी कम होने लगा। क्योंकि चितोडगढ़ और चितोड जन्म से लेकर ही एक-दूसरे के साथ बढ़ते रहे और मानो दोनों का नसीब भी एक-दूसरे के साथ जुड़ा हुआ था।

इतिहास की उन स्मृतियों को ता़जा करने के लिए आज पर्यटक चितोडगढ़ को देखने जाते हैं। इस गढ़ पर कईं मन्दिर, महल, स्तंभ इस प्रकार की कईं वास्तुएँ हैं और इन वास्तुओं का निर्माण विभिन्न कालखण्डों में किया गया है।

५०० फ़ीट की ऊँचाईवाले पहाड़ पर बसे इस चितोडगढ़ का विस्तार ३ मील तक है। गढ़ की चोटी से पूरा चितोड शहर हमें दिखाई देता है। इस गढ़ की तलहटी से लेकर गढ़ की चोटी तक पहुँचने के लिए सात दरवा़जों में से गुजरना पड़ता है। पुराने समय के राजा घोड़े पर सवार होकर और रानियाँ पालकी में बैठकर इस गढ़ पर पहुँचते होंगे, लेकिन आज इस गढ़ की चोटी तक वाहन द्वारा पहुँचा जा सकता है। गढ़ की तलहटी से चोटी तक पहुँचने के लिए जिन सात दरवा़जों या प्रवेशद्वारों में से गुजरना पड़ता है, उन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है। इनमें से सबसे पहला प्रवेशद्वार है, ‘पाडन पोल’ और आख़िरी है, ‘राम पोल’। पहले और आख़िरी प्रवेशद्वार के बीच में हैं, भैरव पोल, हनुमान पोल, लक्ष्मण पोल, गणेश पोल, जोरला पोल।

राम पोल में से प्रवेश करते ही हम चोटी पर पहुँच जाते हैं। यही है वह भूमि, जहाँ रजपूत वीरों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया। यही है वह भूमि, जहाँ शील की रक्षा के लिए एक नहीं, दो नहीं, बल्कि तीन बार स्त्रियों ने धधकती हुई आग में कूदकर ‘जोहर’ किये हैं। यही है वह भूमि, जहाँ कईं तकलीफे  उठाते हुए भी मीराबाई केवल ‘उन’ एक को ही अपना मानती रही। यही है वह भूमि, जहाँ पन्ना दाई नाम की एक दाई ने अपने पुत्र का बलिदान देकर मेवाड के भावी राजा के प्राणों की रक्षा की। यही है वह भूमि, जिसे आ़जाद करने के लिए महाराणा प्रताप अपनी आख़िरी साँस तक जूझते रहे।

इस चितोडगढ़ की मिट्टी में क्या कुछ नहीं है! यह मिट्टी महक रही है वीरता की खुशबु से, भक्ति की सुगन्ध से, त्याग की महक से। लेकिन साथ ही यहाँ पर भी प्रतिशोध, बैर, विद्वेष, कपट-कारस्तानों की कईं साजिशें रची गईं, इस सच को भी हम ऩजरअन्दाज नहीं कर सकते।

आज चितोडगढ़ पर स्थित वास्तुएँ, उनसे जुड़े अतीत के पन्नों को ही मानो हमारे सामने खोलते रहते हैं। रानी पद्मिनी और सन्त मीराबाई के साथ ही एक और स्त्री का नाम इस चितोडगढ़ के साथ जुड़ा हुआ है और वह है, ‘पन्ना दाई’।

‘दाई’ इस शब्द का अर्थ है, पुराने जमाने में छोटे बच्चों को स्वयं का दूध पिलाने के लिए जिन्हें नियुक्त किया जाता था, ऐसी स्त्रियाँ। राजपुत्रों की परवरिश करने के लिए उस जमाने में इस तरह दाइयों की नियुक्ति की जाती थी। पन्ना दाई को भी इसी प्रकार महाराणा संग्रामसिंह के पुत्र उदयसिंह के लिए नियुक्त किया गया था। यह कालखण्ड था, साधारणतः सोलहवी सदी का। पन्ना दाई को राजकुमार जितनी उम्र का ही ‘चन्दन’ नाम का बेटा था। यह चितोड के लिए बहुत कठिन समय था। इसी कालखण्ड में महाराणा संग्रामसिंह युद्ध में शहीद हो गये। उनका बड़ा पुत्र भी युद्ध में शहीद हो चुका था और उनके अन्य पुत्रों की भी मृत्यु हो चुकी थी और उनका जो एकलौता वारिस बचा था, वह था उदयसिंह। लेकिन उसकी उम्र तो बहुत ही छोटी थी। वहीं से चितोड के इतिहास में विद्वेष, प्रतिशोध और कपटनाट्य का आरंभ हुआ। चितोड की राजगद्दी को हथियाने की जिनकी इच्छा थी, उन लोगों ने चितोड के इस वारिस को अपने रास्ते से हमेशा के लिए हटा देने की दृष्टि से गतिविधियाँ प्रारंभ कर दीं। उस समय के चितोड के शासक ने उदयसिंह को रास्ते से हटाने के लिए उसे जान से मार डालने की ठान ली और उसके अनुसार उदयसिंह को मारने के लिए वह उनके कक्ष में घुस गया। पहले से ही इस बात की भनक लग चुकी पन्ना दाई ने उदयसिंह को पहले ही सुरक्षित स्थान पर भेज दिया था और उदयसिंह की जगह पर सुलाया था, अपने लाल को। मौके का फायदा उठाकर शत्रु ने (उदयसिंह समझकर) पन्ना दाई की आँखों के सामने उसके कलेजे के टुकड़े के टुकड़े टुकड़े कर दिये। लेकिन सोचिए! स्वामीनिष्ठा और मातृभूमि की रक्षा इन्हीं बातों के लिए जिसने अपने बेटे के प्राण न्योछावर कर दिये, उसने शत्रु के सामने भले ही आँख से एक भी आँसू न टपकाया हो, लेकिन उसका मातृहृदय कितना रोया होगा! हम केवल उस मातृहृदय के आक्रोश की कल्पना ही कर सकते हैं। इस स्वामीनिष्ठ स्त्री ने राजपुत्र उदयसिंह को उचित स्थान पर ले जाकर उसका पालनपोषण किया और आगे चलकर उसे अपना अधिकार भी प्राप्त हुआ। तो यह है, पन्ना दाई की कथा, जो चितोड की भूमि के साथ, चितोडगढ़ के साथ जुड़ी हुई है। यह कथा एक अनोखे मातृहृदय का दर्शन कराती है, जो चितोड के इतिहास में अजर-अमर बन चुकी है।

meeratemple- मीराबाई

मीराबाई के जीवन का भी बहुत बड़ा कालखण्ड इसी गढ़ पर व्यतीत हुआ। राजस्थान के मेरता में जन्मी हुई मीराबाई विवाह के बाद चितोडगढ़ पर निवास करने लगी। क्योंकि मीराबाई का विवाह चितोड के तत्कालीन शासक राणा संगा के पुत्र – भोजराज के साथ हुआ था।

मीराबाई चितोड के राजपरिवार में वैसे तो छोटी उम्र में ही दाखिल हो गयी, लेकिन तभी से वे पूरी तरह कृष्णभक्ति में लीन हो चुकी थी। बढ़ती उम्र के साथ मीराबाई की कृष्णभक्ति भी वृद्धिंगत होने लगी। इसी कारण उन्हें इस भौतिक दुनिया के व्यवहारों से वैसे तो कुछ लेनादेना था ही नहीं, मग़र फिर भी वे इस भौतिक दुनिया के व्यवहारों को निभा रही थीं। मीराबाई के ससुरालवालों को उनकी यह कृष्णभक्ति बिल्कुल रास नहीं आ रही थी। इसलिए उन्होंने मीराबाई की कृष्णभक्ति पर पाबन्दी लगाने के लिए कईं तरीकें अपनाये।

मीराबाई ने श्रीकृष्ण को अर्पण करने के लिए रखे हुए फूलों में ससुरालवालों ने साँप रख दिया, लेकिन वह साँप सुन्दर हार बनकर श्रीकृष्ण के कण्ठ में विराजित हो गया, वहीं दूसरे एक प्रसंग में मीराबाई को विष का प्याला दिया गया, लेकिन पूरी तरह कृष्णमय बन चुकी मीराबाई के श्रीकृष्ण ही आसानी से उस विष को निगल गये।

मग़र इतनी प्रतिकूल परिस्थिति में भी मीराबाई का कृष्णभक्ति से दूर हो जाना तो दूर की बात, उनकी भक्ति आसमान की बुलन्दी को छू गयी और एक दिन मीराबाई चितोडगढ़ का त्याग कर वृन्दावन चली गयीं।

अपनी करतूतों का पश्चात्ताप होकर मीराबाई के ससुरालवालों ने उन्हें चितोडगढ़ वापस ले आने के काफी प्रयास किये, लेकिन अब चितोड जाने का कोई कारण ही मीराबाई के लिए बाकी नहीं रहा था; क्योंकि अब वे हमेशा हमेशा के लिए अपने जीवन को श्यामसाँवले श्रीकृष्ण की भक्ति में समर्पित करना चाहती थीं।

चितोडगढ़ पर स्थित दो मंदिरों को देखते हुए मीराबाई का यह पूरा इतिहास आँखों के सामने साकार हो जाता है। इन दो मन्दिरों में से एक है, ‘कुंभश्याम मंदिर’, जो ‘मीराबाई का मंदिर’ इस नाम से भी जाना जाता है। इस विष्णुमंदिर का निर्माण राणा कुंभा ने अर्थात् भोजराज ने करवाया था।

दूसरा मंदिर पहले मंदिर के ही पास में है। इस मंदिर में श्रीकृष्ण की मूर्ति है और कृष्णभक्ति में तल्लीन मीराबाई की भी मूर्ति है। इसी मंदिर के पास एक मंदिर जैसा स्थान है, जहाँ पर पादुका की स्थापना की गयी है। ऐसा कहा जाता है कि ये पादुका मीराबाई के गुरु ‘रैदासजी’ की हैं।

परकीयों के क़ब़्जे में रह चुका यह चितोडगढ़ भारत की आ़जादी के बाद राजस्थान में ही रहा, लेकिन तब तक इस गढ़ पर स्थित वास्तुओं को काफी क्षति पहुँच चुकी थी। मग़र आज भी इस गढ़ पर कईं वास्तुएँ सुस्थिति में हैं। इस गढ़ पर स्थित एक वास्तु में म्युझियम की स्थापना की गयी है।

आज इस गढ़ पर भले ही महाराजा या उनकी रानियाँ न हों, मग़र इतिहास जानने की इच्छा से कईं पर्यटक यहाँ पर आते हैं। उनमें से शायद कोई अपनी मन की आँखों से जोहर की आग को महसूस करता हो, शायद किसी को भक्ति में लीन मीराबाई की एकतारी सुनाई देती हो और शायद अपने बच्चे की हत्या होती हुई देखकर भी आँखों से आँसू की एक बूँद तक न बहानेवाली, स्वामीनिष्ठ पन्ना दाई की याद किसी को आती हो।

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