चंबा भाग-६

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फिर से वहीं मोड, एक तरफ ऊँचीं पहाड़ियाँ, तो दूसरी तरफ गहरी खाई और देवदार एवं पाईन के वृक्षों के साथ चला जा रहा रास्ता।

खज्जियार जाने के लिए हम कुछ इस तरह उत्सुक हो चुके थें कि हमारा मन कहीं रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। लेकिन लौटते समय हमें एक स्थान से परिचित होना ज़रूरी है। खज्जियार जाते हुए रास्ते में आता है – ‘कालाटोप’। यहाँ पर हम भिन्न भिन्न प्राणियों को मुक्त विचरण करते हुए देख सकते हैं। ऐसे किसी स्थान पर जब हम जाते हैं, तब किसी प्राणी का दिखाई देना या न देना, यह बात तो हमारे हाथ में नहीं होती, इसलिए हम इतना ही कर सकते हैं कि खज्जियार जाते हुए या वहाँ से लौटते हुए हम थोड़ी देर कालाटोप में रुक सकते हैं।

आँखों को तृप्त कर देनेवाले खज्जियार से निकलकर अब हम चंबा पहुँच चुके है।

चंबा की इस भूमि में विभिन्न प्रकार की कारीगरी का जन्म हुआ और विकास भी; और इस विभिन्न प्रकार की कारीगरी ने चंबा को सभी दृष्टि से समृद्ध बना दिया।

चंबा, इतिहास, अतुलनिय भारत, कालाटोप, चंबा का रुमाल, भारत, भाग-६इनमें पहला क्रम आता है, चंबा के रुमाल का। हम हर रोज़ रुमाल का इस्तेमाल करते हैं, फिर इसे ‘चंबा का रुमाल’ कहने का कारण क्या है?
दर असल ‘चंबा का रुमाल’ यह कशीदाकारी का एक प्रकार है। चंबा तथा आसपास के इलाके में यह कशीदाकारी की जाती है।

रुमाल के आकार के कपड़े पर विभिन्न रंगों के सिल्क के धागों से कशीदा बनाया जाता है। कशीदा बनाने से पहले उस रुमालपर चित्र, नक़्क़ाशी, विशिष्ट व्यक्तिरेखाएँ बनायी जाती है (चित्रित की जाती है) और फिर सिल्क के धागों से उन्हें भरा जाता है। लेकिन इन्हें कुछ इसप्रकार भरा जाता है कि वह नक़्क़ाशी या चित्र दोनों तरफ से देखनेपर एक जैसे ही दिखायी देते हैं। यानि कि इस कशीदाकारी में अंदरूनी हिस्सा या रफ सरफेस नहीं होता। दोनों तरफ एक जैसी ही कशीदाकारी दिखायी देती है। इसे ‘दो-रुखा’ यह विशेष नाम है।

चंबा के इन रुमालों पर बनाये जानेवाले चित्रों में ‘रासमंडल’ यह विख्यात प्रकार है। इसके अलावा नायिकाभेद, शिवजी और उनके गण, महाभारत के प्रसंग, बेलियाँ, फूल, प्राकृतिक सुंदरतावाले चित्र, विभिन्न प्रकार की नक़्क़ाशी इस प्रकार के चित्र इन रुमालों पर बनाये जाते हैं।

चंबा में इन रुमालों को इतना महत्त्वपूर्ण माना जाता है कि जब चंबा की कोई बेटी बिदा होकर अपने ससुराल जाती है, तब उसकी माँ उसके साथ यह रुमाल उपहार स्वरूप भेज देती है। साथ ही कभी कभी मंदिरां में देवताओं को भी यह रुमाल अर्पण किया जाता है।

रुमाल के साथ ही चंबा की एक और विशेषता है, यहाँ बनायी जानेवाली चपलं। कहा जाता है कि पुराने समय में चंबा में लेदर से बनायी जानेवाली चपलों का इस्तेमाल नहीं किया जाता था। चंबा के किसी राजा का ब्याह कांगड़ा की राजकुमारी के साथ हुआ। यह राजकुमारी अपने साथ चपलें तैयार करनेवाले कारीगर को लेकर चंबा आयी। यहीं से चंबा की इन विशिष्ट चपलों की परंपरा का आरंभ हुआ। राजघराने के लोग लेदर पर ज़री का काम किये गये चपलों का इस्तेमाल करते थे और इसके कुछ नमूनें भूरीसिंह म्युझियम में देखे जा सकते हैं। उसी प्रकार लेदर पर सिल्क और सुनहरे रंग के धागों से बेलियाँ, पत्ते-फूल इनकी नक़्क़ाशी बनायी जाती है।

यहाँ के लोगों के हाथों में होनेवाली कारीगरी उनकी संस्कृति का जतन तो करती ही है, साथ ही उनकी रोजी-रोटी की व्यवस्था भी करती है। बुनाई, चित्रकला, धातु की मूर्तियों का निर्माण, विभिन्न अलंकारों का निर्माण, बेतकाम इन्हीं के साथ लकड़ी पर विभिन्न प्रकार की नक़्क़ाशी बनाना यह चंबा की विशेषताएँ है।

यहाँ की उत्साहपूर्ण आबोहवा में साल में लगनेवाले दो मेले और भी रंग भर देते हैं। यहाँ पर होनेवाला ‘सुही माता’ का मेला मार्च-अप्रैल के महिनें में चार दिनों तक लगता है, दुसरा मेला होता है – ‘मिंजर मेला’, जो सावन के महिनें में एक ह़फ़्ते तक लगता है और इसका उद्देश्य होता है, फसल के तैयार होने पर हुई खुशी को ज़ाहिर करना।

पूरे भारत में सालभर विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार के मेले या उत्सव इनका आयोजन किया जाता है। ये मेले उन प्रदेशों के लोगों के समाजजीवन का अविभाज्य अंग बन चुके होते हैं। साधारणत: इन मेलों में लोग देवताओं तथा प्रकृति इनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और साथ ही गायन, वादन और नृत्य इनके द्वारा आनंद प्राप्त करते हैं।

हमने गत एक लेख में ‘सुही माता’ के मंदिर के बारे में जानकारी प्राप्त की थी। साहिल वर्मा नामक राजा की रानी द्वारा दिये गये बलिदान के कारण चंबा की पानी की समस्या दूर हो गयी, यह इस मंदिर से जुड़ी लोककथा भी उस समय हमने देखी थी। इसी रानी की स्मृति को इस ‘सुही माता’ मेले के माध्यम से उजागर किया जाता है। इस अवसर पर मंदिर के देवताओं की शोभायात्रा निकाली जाती है। साथ ही महिलाएँ उस रानी के बलिदान की कहानी बतानेवाले तथा उसकी प्रशंसा करनेवाले गीत गाती हैं। संगीत और नृत्य इनका संगम रहनेवाला यह ‘मेला’ चार दिनों तक लगता है।

‘मिंजर मेले’ को विजयोत्सव तथा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता के रूप में मनाया जाता है। जिस व़क़्त यह मेला लगता है, तब खेतों में फसल तैयार हो चुकी होती है। भगवान ने इस प्रकार से कृपा करके हमें अच्छी फसल दी है, इसलिए उनका शुक्रिया अदा किया जाता है। इसी के साथ त्रिगर्त के राजा पर चंबा के राजा द्वारा प्राप्त विजय के प्रतीक के रूप में भी ‘मिंजर मेला’ मनाया जाता है। इसकी शुरुआत ध्वजारोहण से होती है और इस मेले के अन्त में प्रतीक रूप में कुछ चीज़ों को अर्पण किया जाता है। इसी दौरान गायन, वादन, नृत्य आदि के साथ ही देवताओं की शोभायात्रा निकाली जाती है। इस ‘मिंजर मेले’ के दौरान मानो चंबा रंग-बिरंगी हो जाता है।

इस प्रदेश के सीधे-सादे लोगों के जीवन में नृत्य को भी काफ़ी अहमियत है। जब यहाँ किसी भी प्रकार की आधुनिकता का स्पर्श नहीं हुआ था, तब लोकनृत्य ही यहाँ के लोगों के मनोरंजन और आनंद पाने का साधन था। आज भी चंबा के प्रदेश में कई लोकनृत्य किये जाते है।

केवल लोकगीतों की धुन पर किया जानेवाला महिलाओं का ‘घूरेई’ नामक नृत्य। इसमें किसी भी वाद्य (म्युझिकल इन्स्ट्रूमेंट) का उपयोग न करते हुए केवल लोकगीतों की धुन पर ही यह नृत्य किया जाता है। इसके अलावा चंबा और आसपास के प्रदेश में चुराही नृत्य, दंडारास, सोहल नती ऐसे विभिन्न नृत्य किए जाते है।

ऐसा यह खूबसूरत चंबा! हम जितना उसके अंतरंग में जाते रहेंगे, उतनीही उसकी अधिक से अधिक सुंदरता का दर्शन हमें होता रहेगा। इसीलिए जब कभी रोजमर्रा की जिंदगी से हटकर किसी सपनों में बसे गाँव जाने की इच्छा हो, तो सीधे चंबा की राह पकड़ने में कोई हर्ज़ नहीं है।

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