गुवाहाटी भाग-४

सुबह की ठंड़ी हवा चल रही है। दूर थोड़ा बहुत कोहरा भी दिखायी दे रहा है। उगते हुए सूरज का स्वागत करने हरे भरे पेड़ खड़े हैं। पंछी भी अपनी रात की नींद खत्म करके चहकते हुए जागने की सूचना दे रहे हैं। सूर्य भगवान तो कब के क्षितिज पर आ चुके हैं और वह देखिए, वहाँ दूर ऊँचीं घास के पीछे कुछ दिखायी दे रहा है। दिखायी दिया ना! जिसे देखने हम यहाँ तक आये थे, वह दिखायी देते ही कितनी खुशी हुई ना!

दर असल गत लेख के अन्त में हम इस क़श्मक़श में पड़ गये थे कि क्या हमें इतनी दूर आना चाहिए या नहीं? लेकिन हफ़्ते भर के विश्राम के बाद सारी थकान दूर हो गयी और यहाँ आने की तैयारी हमने कर ही ली।

आप पूछ रहे हैं, ‘कहाँ’? हम आये हैं ‘काझीरंगा राष्ट्रीय उद्यान’ में यानी ‘काझीरंगा नॅशनल पार्क’ में। हमने अभी अभी जिसे देखा वह था, गैंड़ा। गैंड़ा यह इस नॅशनल पार्क की सबसे बड़ी खासियत है।

गुवाहाटी से यहाँ आने के लिए हमें कुल २१७ किलोमीटर्स का फ़ासला तय करना पड़ा। लेकिन कोई हर्ज़ नहीं, आते ही हमें यहाँ का खास जानवर तो दिखायी दिया और यहाँ तक आने की कोशिश क़ामयाब हो गयी।

‘काझीरंगा नॅशनल पार्क’ यह असम का सम्मानबिन्दु है। गोलघाट और नवगाँव इन दो जिलों के विस्तृत भूप्रदेश पर बसा है यह नॅशनल पार्क। हमने जिस गैंड़े को देखा, वह है एक सिंगवाला गैंड़ा, जिसे ‘ग्रेटर वन हॉर्न्ड र्‍हायनोसेरॉस’ या ‘एशियाटिक वन हॉर्न्ड र्‍हायनोसेरॉस’ कहा जाता है।

दुनिया भर के ग्रेटर वन हॉर्न्ड र्‍हायनोसेरॉस में से २/३ गैंड़े अकेले काझीरंगा नॅशनल पार्क में हैं। अब हम गैंड़े के इतने बड़े नाम को बार बार कहने के बजाय सिर्फ़ ‘र्‍हायनो’ कहकर पुकारेंगे।

काझीरंगा जिस तरह इन र्‍हायनोज़ के लिए मशहूर है, उसी तरह बाघ, हाथी, वाइल्ड वॉटर बफ़ेलो और स्वॅम्प डिअर इन जानवरों के लिए भी मशहूर है। लेकिन यहाँ का प्रमुख आकर्षण है, जिसे हमने देखा, वह गैंड़ा र्‍हायनो।

अब नॅशनल पार्क कहने से आप यह समझही गये होंगे कि यहाँ पर जंगल तो होगा ही और जंगल में तरह तरह की वनस्पतियाँ भी होंगी। लेकिन यहाँ पर एक खास किस्म की घास दिखायी देती है, जिसे ‘टॉल एलिफंट ग्रास’ कहा जाता है।

नॅशनल पार्क की सैर करने के लिए हमारे पास प्रमुख दो विकल्प (ऑप्शन्स) हैं। एक तो जीप से या यहाँ पर उपलब्ध किये गये वाहन (व्हेइकल) से जंगल की सैर करना या फिर हाथी की पीठ पर बैठकर जंगल में घूमना। इस सैर में नॅशनल पार्क द्वारा नियुक्त किये गये गाइड भी हमारे साथ रहते हैं।

हमें तो जंगल की सैर करने निकलते ही र्‍हायनो दिखायी दिया, लेकिन हर बार वह दिखायी देगा ही ऐसा नहीं कहा जा सकता। अब जंगल की सैर करते समय ऐसा हो सकता है, यह तो स्वाभाविक है।

आज काझीरंगा नॅशनल पार्क जहाँ पर है, वह प्रदेश पुराने समय से र्‍हायनोज़ के बसने का इलाक़ा है। इसलिए यहाँ पर र्‍हायनो का दिखायी देना यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है। सन १९०४ के आसपास जब भारत पर अँग्रज़ो का राज था, उस समय के व्हॉइसराय की पत्नी ‘मेरी व्हिक्टोरिया लेइटर कर्झन’ यहाँ पर र्‍हायनो देखने आयी थीं। लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हे एक भी र्‍हायनो दिखायी नहीं दिया। तब यहाँ के र्‍हायनोज़ की सुरक्षा के लिए कुछ योजना बनानी चाहिए ऐसा उन्होंने अपने पति से कहा और इसी प्रक्रिया में से जन्म हुआ, ‘काझीरंगा नॅशनल पार्क’ का, जहाँ पर दुनिया के दो तिहाई र्‍हायनोज़ आज बस रहे हैं।

इस तरह जून १९०५ में इस पार्क का जन्म हुआ। २३२ वर्ग किलोमीटर्स के दायरे में बसे इस पार्क का अगले तीन वर्षों में काफ़ी विस्तार हुआ। ब्रह्मपुत्र के तट तक इसकी सीमा बढ गयीं। सन १९०८ में इसे ‘रिझर्व्ह फॉरेस्ट’ का यानी संरक्षित जंगल का दर्जा दिया गया। सन १९१६ में इसका रूपान्तरण ‘काझीरंगा गेम सॅन्कचर’ में हो गया। सन १९३८ तक इसका यह स्वरूप बना रहा। इसी दौरान यहाँ पर जानवरों का शिकार करने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गयी और सैलानियों के लिए इसे खोल दिया गया। अन्त में सन १९६८ में इसका नामकरण ‘काझीरंगा नॅशनल पार्क’ कर दिया गया। सन १९८५ में युनेस्को ने ‘वर्ल्ड हेरिटेज साइट’ की सूचि में काझीरंगा का समावेश कर दिया। यह था काझीरंगा का सफ़र। आज इसकी स्थापना होकर सौ से भी अधिक साल बीत चुके हैं।

इसके ‘काझीरंगा’ इस नाम के पीछे भी कई जनकथाएँ एवं कहानियाँ हैं। कुछ लोगों की राय में ‘काझीरंगा’ शब्द का मूल कार्बी भाषा में है। इस प्रदेश में कार्बी भाषिक ‘कार्बी’ लोग बसा करते थे। कुछ लोगों की राय में ‘काजिर’ नाम की एक महिला शासक यहाँ पर राज करती थीं और उन्हींके नाम से इस प्रदेश का नाम ‘काझीरंगा’ हो गया। कार्बी भाषा के ‘काज़ी’ और ‘रंगाइ’ इन दो शब्दों के मिलने से ‘काझीरंगा’ यह नाम बना है। इसके अनुसार ‘काझीरंगा’ शब्द का अर्थ है – लाल रंग के हिरनों का प्रदेश। वहीं कुछ जनकथाओं के अनुसार ‘काझीरंगा’ इस नाम का उद्‍गम काझी और रंगाइ नाम के स्त्री और पुरुष के नाम में है।

तो ऐसा यह ‘काझीरंगा’, जिसके नाम में ही रंग है और जिसमें दाखिल होते ही कुदरत के साथ साथ विभिन्न प्राणियों के विभिन्न रंग भी दिखायी देते हैं।

विस्तृत प्रदेश में फैले हुए इस नॅशनल पार्क में बड़े बड़े ऊँचे ऊँचें पेडों से लेकर ऊँची एलिफंट ग्रास के साथ ही ज़मीन पर फैली हुई हरियाली तक विविधता देखने मिलती है। जंगल में कहीं पर छोटीं बड़ी झीलें दिखायी देती हैं, वहीं कहीं पर छोटीं छोटीं पहाड़ियाँ भी नज़र आती हैं। इस कुदरती विपुलता में अहम योगदान है, यहाँ से बहनेवालीं नदियों का और उनमें अग्रसर नाम है ब्रह्मपुत्र का। साथ ही मोरा धन्सिरी और दिफ्लु जैसी नदियाँ भी यहाँ पर हैं। यहाँ पर तरह तरह के जानवर और पंछी भी दिखायी देते हैं। यह संपूर्ण भूभाग ऐसी जगह बसा है कि उस प्रदेश की जलवायु के कारण यहाँ पर वनस्पतियों एवं प्राणियों की विविधता बनी हुई है। अत एव इस विभाग का वर्णन ‘बायोडायव्हर्सिटी हॉटस्पॉट’ इस तरह किया जाता है।

अब सब से पहले यहाँ की खासियतों के बारे में। चलिए, र्‍हायनो से ही शुरुआत करते हैं।

‘ग्रेटर वन हॉर्न्ड र्‍हायनोसेरॉस’ या ‘एशियन वन हॉर्न्ड र्‍हायनोसेरॉस’ इस नाम से जाना जानेवाला यह जानवर, खास कर भारत के ईशान्य प्रदेश में दिखायी देता है। पुराने समय में गंगा की विशाल घाटी और एशिया के अन्य कुछ देशों में भी यह बसा करता था, लेकिन समय की धारा में वहाँ इनकी संख्या अब लगभग न के बराबर ही है।

प्रमुख रूप से घास खाकर जीनेवाला यह जानवर काफ़ी भारी होता है यह उसकी फोटो देखने से ही आपको पता चला होगा। घास के साथ साथ कभी कभी यह पेड़ के पत्तों और फल तथा जलवनस्पतियों को भी खाता है, मग़र फिर भी उसका प्रमुख खाना घास ही है।

इसकी खासियत है, इसके नाक पर रहनेवाला एक सिंग, जो काले रंग का होता है। नर और मादा दोनों में यह सिंग रहता है, लेकिन वह पैदाइशी नहीं रहता। छह साल की आयु में उसके नाक पर यह सिंग दिखायी देने लगता हैं। यह सिंग लगभग २५ सें.मी. तक बढता है, लेकिन आज तक ५७.२ सें.मी. तक की लंबाईवाले सिंग को भी दर्ज किया गया है।

र्‍हायनो की चमड़ी काफ़ी मोटी और कत्थई रंग की होती है। इसके शरीर पर बाल बिलकुल ही कम रहते हैं। इसके शरीर में खोपड़ी की हड्डी यह सब से भारी अवयव रहता है।

पूरी तरह विकसित हुए नर र्‍हायनो का वज़न २००० से लेकर २१०० किलो तक हो सकता है, वहीं मादा का वज़न १६०० किलो तक हो सकता है। कहते हैं कि ४००० किलो वज़नवाले र्‍हायनो भी पाये गये हैं।

ऐसा भी कहते हैं कि पैदा होने से पहले र्‍हायनो को लगभग साढे पंद्रह महीनोंसे भी अधिक समय तक माँ की कोख में रहना पड़ता है।

रात में तथा दिन की शुरुआत में ‘अ‍ॅक्टिव्ह’ रहनेवाला र्‍हायनो दोपहर का समय पानी में बिताना पसंद करते हैं। उनका सूँघने एवं सुनने का ज्ञान काफ़ी अच्छा रहता है।

सिर्फ़ घास खाकर जीनेवाले इस विशालकाय जानवर को देखकर हम अचंभित हो जाते हैं।

इस जानवर की खासियत रहनेवाला सिंग ही उसके लिए खतरा बना, ऐसा कहा जा सकता है, क्योंकि उसके सिंग तथा उसकी चमड़ी के लिए उसका शिकार किया जाता था और इसी वजह से कुछ दशकों पूर्व इस प्राणि की संख्या काफ़ी घट गयी थी, यहाँ तक की इस जानवर के नामशेष होने का खतरा मँड़रा रहा था।

आज कईं कोशिशोंद्वारा इनकी संख्या बढाने में क़ामयाबी मिली है। आज काझिरंगा नॅशनल पार्क में लगभग १८५५ गैंड़े हैं।

र्‍हायनो के इस परिचय के साथ ही हमारा काझीरंगा का सफ़र खत्म हुआ है, ऐसा कहीं आप सोच तो नही रहे हैं। अभी तो हम यहाँ दाखिल हुए हैं, हमारा सफ़र अभी पूरा नहीं हुआ है। तो चलिए, फ़िलहाल कुदरत की गोद में थोड़ी देर के लिए विश्राम करते हैं।

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