श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग १९)

babaजन्म देनेवाली माँ अपने बच्चे को नौ महीने के बाद पेट से बाहर निकालती है तब यह साईमाऊली अपने बच्चों को प्रेमवश अपने सीने से लगाये रखते हैं, कभी उनका तिरस्कार नहीं करते (कभी उन्हें फेंकते नहीं) । ‘मैं कद्यपि तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा’ यह इस साईमाऊली का ‘वात्सल्यब्रीद’ ही है और भक्तों के अनगिनत अपराध क्षमा कर उस भक्त को अपने कलेजे से लगाये रखनेवाले ऐसी यह साईमाऊली ही हमारी वात्सल्य माता हैं ।

बाबा के इस गेहूँ पीसनेवाली लीला से उन्होंने स्वयं मर्यादा पुरूषार्थ कैसे सिद्ध किया, भक्तों से भी कैसे सिद्ध करवाया तथा इस कथा के माध्यम से मर्यादा पुरुषार्थ की दिशा हमें कैसे दिखाया इस बात का अध्ययन हमने कल किया । इस में एक महत्त्व पूर्ण बात हमने देखी कि बाबा ने द्वारकामाई मैं ही यह गेहूँ पीसने की लीला की । बाबा जिसे स्वयं द्वारकामाई कहते थे वह बाबा की वात्सल्यमाता गायत्री ही हैं और इसीलिए बाबा इसी द्वारकामाई में सारी रात ‘धुनी’ जलाते थे, द्वारकामाई में सदैव दीपक जलते रहता था । जो संपूर्ण विश्व को प्रकाश देकर प्रकाशित करती रहती थी, वही वात्सल्य माता गायत्री यानी अपनी द्वारकामाई । बाबा स्वयं जीवनभर इस द्वारकामाई में ही रहें, मानो अपने इस वात्सल्य माता की गोद में ही (विराजित रहे) विराजमान रहें । द्वारकामाई के प्रति बाबा कितने प्रेमपूर्वक, अपनेपन के साथ, जी जान से बात करते यह तो हम साईसच्चरित में पढ़ते ही हैं ।

इस प्रथम अध्याय के कथा के अनेक रहस्यों में से एक रहस्य इस द्वारकामाई का है । इस द्वारकामाई के गोद में बैठकर (अंक में) की गई परमेश्वर की उपासना, सेवा पुरूषार्थ, सत्य-प्रेम-आनंद एवं पावित्र्य के साथ चलकर किया गया संकल्प १०८% प्रतिशत सुफल संपूर्ण होता ही है इन रहस्यों को यह कथा हमें स्पष्टरूप में उजागर करके दिखाती है । बाबा स्वयं सत्यसंकल्प एवं मर्यादा पुरूषार्थ इस द्वारकामाई के गोद में बैठ कर ही सिद्ध करते हुए हमें इस कथा में दिखाई देता है । हम जो भी पवित्र करते हैं, उसके साथ यदि परमेश्वरी अधिष्ठान होता है तब उसमें से प्रचंड बड़ी उर्जा एवं स्पंदन हमें मिलते हैं । द्वारकामाई में बैठकर की गई उपासना, सेवा अथवा परमेश्वरी कार्य इन्हें गायत्रीमाता की, वात्सल्यमाता की कृपा अधिष्ठान प्राप्त होने पर वह कार्य जल्द से जल्स पूर्ण होता है और फलित भी होता है और मुख्य तौर पर उस कार्य का लाभ सभी भक्त समूह को अनंत गुणा मिलता है । यही है द्वारकामाई का वात्सल्य ।

‘आई ती आई बहुमायाळू । लेकरालागी अति कनवाळू ।’(माँ आखिर माँ ममतामयी कल्याणी । बच्चों के प्रति बड़ी दयावान (दयावंतमूर्ती)

ऐसा बाबा कहते हैं वह इसीलिए । द्वारकामाई का यह अनन्य साधारण महत्त्व एवं एकमेव अद्वितीयत्व का हमें सैदव ध्यान रखना चाहिए ।

बाबा ने गेहूँ पीसने के लिए कोई अन्य स्थान न चुनकर द्वारकामाई में ही गेहूँ पीसने के क्रिया की, इस बात का मर्म ऊपर दिए गए विवेचन द्वारा स्पष्ट होता है । बाबा कही भी पीसने बैठ सकते थे । बिलकुल गाँव की सीमा पर जाकर उसके किनारे पर बैठकर भी पीस सकते थे । परन्तु बाबा ने ऐसा कुछ भी न कर, द्वारकामाई में ही गेहूँ पीसना शुरू कर दिया. इसमें भी बाबा की भक्त वत्सलता ही दिखाई देती है । बाबा को कही भी पीसने पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता कारण गायत्रीमाता सदैव उनके हृदय में ही रहने के कारण वे उनके साथ सदैव हैं ही परन्तु हम भक्तों को इस वात्सल्यमाता द्वारकामाई की गोद में बैठकर उनके कृपाछ्त्र में पुरुषार्थ सिद्ध करने की सुअवसर प्राप्त हो इस लिए इस भक्तवत्सल साईराम ने यह गेहूँ पीसने की लीला द्वारकामाई में ही की । गायत्रीमाता का यह वात्सल्य इस साईराम की ओर से भक्तों के लिए प्रवाहित होता ही रहता है । यहाँ पर इस बात का पता हमें चलता हैं ।  द्वारकामाई वात्सल्यमाता तो हैं ही, परन्तु सर्वप्रथम हमें अपने वात्सल्यमाता के अर्थात इस साईमाऊली के वात्सल्य का अनुभव लेना चाहिए । इस गेहूँ पीसनेवाली कथा में बाबा का यह वात्सल्य ही हमें भरभराकर प्रवाहित होता हुआ दिखाई देता है । एक सामान्य मानवी माँ जिस तरह सुबह उठते ही सर्वप्रथम जाता लेकर पीसने बैठ जाती है, उसी तरह बाबा ने भी सुबह उठते ही गेहूँ पीसने बैठ गए । अपने बच्चों को खाने के लिए चपाती (भाकरी) मिले इसीलिए जैसे मानवी माता बच्चों के वात्सल्य हेतु पीसने बैठ जाती है और उसके हृदय में होनेवाला बच्चों का प्यार, वात्सल्य यह विश्वमाता के वात्सल्य का अंश होने के कारण जाते पर (पीसने) बैठते ही इस सहज वात्सल्यभाव से उतनीही सहजता के साथ गीतों की पंक्तियाँ भी फूट पड़ती हैं । यहाँ पर भी “साईमाऊली’ अपने बच्चों पर होने वात्सल्य के प्रति पीसने बैठी है । मेरे बच्चों को महामारी से छूटकारा दिलवाना है । इस साई माऊली के वात्सल्यसे ही  गेहूँ पीसनेवाली लीला वात्सल्य भाव से ही प्रकट हुई है ।  ‘ऐसे ये साई दयामूर्तिमंत ।  भक्तों में बसती उनकी जान ।’ रहता था अपने बच्चों के प्रति उनके दिल में तड़प ऐसे वात्सल्य सिंधु साईमाऊली का वर्णन हेमाडपंत करते हैं । जन्म देनेवाली माता नौ महीने पश्चात अपने शिशु को पेट से बाहर निकालती है फिर यह साईमाऊली अपने बच्चों को अपने सीनेसे लगाये रहते हैं प्रेमवश, कभी उनकी अवहेलना नहीं करते । ‘मैं कद्यपि तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा ।’ ये इस साईमाऊली का ‘वात्सल्यब्रीद’ ही है और भक्तों के अनगिनत अपराध क्षमा कर उस भक्त को अपने हृदय से लगाये रखनेवाली ऐसे ये साईमाऊली ही हमारे वात्सल्य माता है । भक्तों के ही प्रेमवश महामारी का निर्दलन करने के लिए ही ये साईमाऊली गेहूँ पीसनेवाली लीला करते हैं, और साथ ही अपने बच्चों का जीवन विकास भी साध्य कर लेते हैं ।

जैसे बच्चा यदि गलती करता है तब माँ उस बच्चे से नाराज तो होती ही है और उसका हाथ पकड़ कर उसे उचित मार्ग पर ले आती है । उसी प्रकार यहाँ पर जब अपने चारों बेटियों के मन में फलाशा उत्पन्न हुई है यह जानते ही यह साईमाता उन पर क्रोध धारण कर उनसे उचित कार्य करवाती है उसी के साथ जब बच्चा अच्छा कार्य करता है, उचित प्रयास करके उचित दिशा में चलने लगता है, तब बही माँ उनकी सराहना करती है । जब ये चारों बाबा के हाथों से जाते का खूंटा लेकर गेहूँ पीसने लगती हैं, तब बाबा गालों ही गालों में हँसने लगते हैं और अपने बेटियों के प्रति प्यार उनकी ऑखों में छलक पड़ता है । स्वयं के लिए कोई भी अपेक्षा न करते हुए अपने बच्चों की खातिर अथक परिश्रम करनेवाली माऊली ही यहाँ पर मेरे साईनाथ में हमें दिखाई देते हैं । बाबा को ना तो स्वयं के लिए इस आटे की ज़रूरत थी और ना ही इस महामारी से छुटकारा दिलवाने के प्रति मिलने श्रेय की अपेक्षा थी ना ही भक्तों की ओर से कोई अपेक्षा ! केवल अपने बच्चों के वात्सल्य हेतु सुदर्शन चक्र हाथ में उठानेवाली यह विठूमाऊली जाते का खूटा हाथ में पकड़ लेती है । माँ जैसे अपने बच्चों के लिए, उनके वात्सल्य हेतु कोई भी काम ‘हलका-भारी’ न मान वह काम करती है, उसी प्रकार यह मेरी साई माऊली, यहाँ पर हाथों में खूंटा ले गेहूँ पीसने का काम करते हैं । ‘मैं साक्षात कर्तुम अकर्तुम, अन्यथा कर्तुम ऐसा साक्षात ईश्वर हूँ, फिर यह गेहूँ पीसने का काम मैं कैसे करूँ? ऐसा विचार भी उनके मन को नहीं छूता (में नहीं ऊठता) जिसने चोखामेला के प्रेमहेतु मैले की टोकरी उठा ली, नाथ (एकनाथ) के घर पानी भरते से लेकर सारे काम किये, भक्तों के लिए कोई भी काम करनेवाला ऐसा यह विठ्ठल ही यहाँ पर स्वयं गेहूँ पीसने बैठा है ।

‘जनाबाई का जाता घुमानेवाला यही है वह विठ्ठल’ यह बात यहाँ पर हेमाडपंत हमें बताने की कोशिश करते हैं । (बताना चाहते हैं) अपनी लाड़ली बेटी के, जनाबाई के वात्सल्यहेतु ही यह वैकुंठधिपति पांडुरंग स्वयं, जाता पकड़कर पीसते रहते थे, यह हम सब जानते हैं । हेमाडपंत प्रथम अध्याय में ही ‘ये साईनाथ कौन हैं?’ यह हमें दर्शाने की इच्छा रखते हैं (कोशिश करते हैं) । ‘जनाबाई के लिए धान्य पीसनेवाला यही है वह (पांडुरंग) वात्सल्य सिंधु पांडुरंग (विठ्ठल) यही हेमाडपंत हमें बताते हैं । तुम चाहे इन्हे संत कहो, फकीर कहो, अवलिया कहो, कुछ भी कहो, परन्तु यह यह गेहूँ पीसनेवाला ‘एक ही’ है, वह पांडुरंग । भक्तों के वात्सल्य हेतु स्वयं कष्ट झेलनेवाला यही है वह विठु माऊली हेमाडपंत स्पष्टरूप में साईनाथ के विठ्ठल स्वरूप को इस प्रथम अध्याय में प्रस्तुत करते हैं, और वह भी कौनसा? तो यह ‘विठ्ठल माऊली’ स्वरूप ।

संत देखे अनेक । पर ‘जाते पर पीसनेवाला यही एक’ ।
गेहूँ पीसने का वह क्या आनंद । उनका खेल वही जाने ।

‘गेहूँ पीसनेवाला यही एक’ यही हेमाडपंत द्वारा (हम सबको) बताई गई पहचान है । पीसनेवाले यही सिर्फ़ यही एक विठ्ठल हैं, जिसने जनाबाई के लिए जाते का खूंटा हाथ में थामा, वही आज हम सब लोगों के लिए जाते का खूंटा थामे पीसने बैठा है । यह वात्सल्य सिंधु हम सब के लिए हर एक काम (यहाँ तक कि भगाटवाला भी) बिना किसी बात की शर्म किए करते रहता है, फिर हम इनके कार्य में कोई भी कार्य करने के लिए क्यों शर्म मेहसूस करते हैं? मुझे द्वारकामाई में झाडू मारने की सेवा मिली, तब वहाँ पर मेरा ओहदा, प्रतिष्ठा आदि कुछ भी उसके बीच नहीं आना चाहिए । यदि मेरा साईनाथ स्वयं हम सब के लिए हर एक काम बिलकुल निरपेक्ष होकर आनंदपूर्वक करते हैं, फिर हम ऐसे क्यों? इस साई के वात्सल्य को ‘लोलो’ ऐसा अत्यन्त सुंदर शद्ब बाबा के मुख से ही उच्चारित हुआ है । इस साई के इस वात्सल्य स्वरूप को जानते हुए भी यदि मैं इस साईमाऊली के वात्सल्य को प्रतिसाद नहीं देता हूँ, तब मेरे जैसा अभागा और कौन हो सकता है !

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