क्रान्तिगाथा-६७

जनरल डायर के आदेश के अनुसार लगभग दस मिनट तक जालियनवाला बाग में उपस्थित जनसमुदाय पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायी जा रही थी और वहाँ पर उस वक्त उपस्थित बेगुनाह मासूस बच्चे, महिलाएँ, पुरुष, बडे बूढे सभी अचानक उनपर हुए इस हमले से अपनी जान बचाने के लिए यहाँ वहाँ भाग रहे थे।

लेकिन जैसा कि हम देख ही चुके हैं कि वहाँ के एक प्रमुख प्रवेशद्वार के अलावा बाग के बाकी के अधिकांश द्वार बंद थे, इस वजह से अफरातफरी मच गयी। हालाँकि प्रमुख प्रवेशद्वार में से बाहर निकलने के लिए नागरिक उस तरफ दौड़ तो रहे थे, लेकिन वहाँ तक पहुँचने से पहले ही वे गोलियों के शिकार हो रहे थे।

इस प्रमुख प्रवेशद्वार के बाहर शस्त्र-अस्त्रों से लैस गाड़ियाँ अँग्रेज़ों ने खड़ी रखी थी। अपनी जान बचाने के लिए यहाँ वहाँ दौड़नेवाले नागरिकों में से कुछ ने डायर का शैतानी आतंक देखकर बाग में रहनेवाले कुए में जान बचाने के लिए छलाँग लगायी। लेकिन उससे कुछ फायदा नहीं हुआ। इस अफरातफरी में, जो भगदड़ मच गयी थी उसमें कई लोग दब गये और गड़बड़ी मच गयी।

अँग्रेज़ फौज तब तक गोलियाँ चला रही थी, जब तक उनके पास की गोलियाँ खत्म नहीं हुई। आख़िर गोलियाँ ख़त्म होने के बाद गोलीबारी रूक गयी। कहा जाता है की बंदूकों से कुल मिलाकर १६५० बार गोलियाँ दागी गयी।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़बिना किसी पूर्वकल्पना के जनरल डायर के हुक़्म के अनुसार किये गये इस अंधाधुंध गोलीबारी से हज़ारों बेगुनाह भारतीय अपनी जान गँवा बैठे। उनमें बच्चे भी थे, महिलाएँ थी, पुरुष भी थे और वृद्ध लोग भी थे। उपस्थित जनसमुदाय में अलग अलग जाति, धर्म, पंथ के लोग ज़रूर थे, लेकिन उन सब की पहचान एक ही थी, वे ‘भारतीय’ थे।

शहीदों के शवों से जालियनवाला बाग खचाखचा भर गया था। साथ ही उसमें कई घायल भी ज़मीन पर गिरे थे। वे प्राणान्तिक पीड़ा से तड़प रहे थे, चिल्ला रहे थे, रो रहे थे और उनमें से कईयों की प्राणज्योति उस रात तक बुझ गयी। क्योंकि उन्हें अस्पताल पहुँचाया ही नहीं गया था। घायलों को वैद्यकीय सहायता देने की कोशिश में अन्य भारतीय जुटे थे। मग़र शैतानी अँग्रेज़ों ने घायलों की सहायता करने नहीं दिया।

उस अमानुष गोलीबारी के बाद कर्फ्यु लगाया गया और इस वजह से घायलों को अस्पताल पहुँचाने के लिए कोई जा ही नहीं सका। आख़िर घायलों को हुए जख़्म उनके लिए जानलेवा साबित हुए।

बाद में जब इस मामले की तहक़िक़ात के दौरान जनरल डायर से यह पूछा गया कि ‘उसने घायलों को सहायता क्यों नहीं दिलवायी’? तब उसने जवाब दिया कि वह मेरा काम नहीं था। शहर के अस्पताल खुले थे और घायलों को वहाँ जाना चाहिए था।

अमानुष, खूँख़ार, शैतानी, आसुरी ये शब्द भी इस घटना का वर्णन करने के लिए फ़ीके पड़ जायेंगे और इस तरह का भयानक नरसंहार करानेवाला जनरल डायर तो इन शब्दों को भी शर्म आ जायेगी इतना खूँख़ार था।

यह घटना घटित होने के बाद अँग्रेज़ों के मायकल ओडवायर इस लेफ्टनंट गव्हर्नर ने अमृतसर और आसपास के इलाके में मार्शल लॉ लगाया जाने की माँग की और उस समय के व्हॉइसरॉय ने उस माँग को मान भी लिया।

इस घटना की जाँच का नाटक अँग्रेज़ सरकार ने फौरन किया और मृतकों तथा घायलों का अचूक आँकड़ा भारतीयों के सामने रखा गया। अँग्रेज़ों की राय में ३७९ लोगों की मृत्यु हुई थी।

लेकिन भारतीयों का अँग्रेज़ सरकार के इन आँकड़ों पर भरोसा नहीं था। भारतीयों के अनुमान के अनुसार इस घटना में हज़ारों ने अपनी जान गँवायी और हज़ारों घायल हुए, क्योंकि उपस्थित जनसमुदाय में १५-२० हज़ार भारतीय थे।

जनरल डायर के समर्थन में खड़ा रहा, मायकल ओडवायर नाम का पंजाब प्रान्त का लेफ्टनंट गव्हर्नर, जिसकी राय में जनरल डायर की कृति उचित ही थी।

जनरल डायर ने अपना समर्थन करते हुए कहा कि इस तरह गोलीबारी करके वह महज़ वहाँ पर इकठ्ठा लोगों को तितरबितर करना नहीं चाहता था, बल्कि वह भारतीयों को अच्छा खासा सबक सिखाना चाहता था। उसकी राय में उपस्थित सभी नागरिक क्रान्तिकारी थे और वे भारत में रहनेवाले अँग्रेज़ों के शासन को उखाड़ने के लिए इकठ्ठा हुए थे।

इंग्लैंड़ में कुछ लोगों ने, खास कर सेके्रटरी ऑफ स्टेट फॉर वॉर और भूतपूर्व प्रधानमन्त्री ने इस घटना का निषेध किया। मग़र साथ ही डायर की इस कृति को इंग्लैंड़ में बहुत बड़े पैमाने पर समर्थन मिला था। हाऊस ऑफ कॉमन्स ने भले ही डायर की आलोचना करनेवाला प्रस्ताव पारीत किया, लेकिन हाऊस ऑफ लॉर्डस् ने उसकी प्रशंसा करनेवाला प्रस्ताव पारीत किया।

इतने बेगुनाहों के मारे जाने के बावजूद भी अँग्रेज़ सरकार को ना तो कोई रंज था और ना ही अफसोस। इतना सब कुछ होने के बाद भी डायर अपने ओहदे पर बना रहा।

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