क्रान्तिगाथा- ८

महज़ सश्रम कारावास की सज़ा देकर अँग्रेज़ कहाँ सन्तुष्ट होनेवाले थे!

इन ८५ सैनिकों के यूनिफॉर्म्स, बॅजेस् और जूतें उन्हें सज़ा सुनाते ही फ़ौरन उनसे छीन लिये गये और उन्हें जेल भेज दिया गया।

इस तरह अँग्रेज़ सरकार की कारवाई तो पूरी हो गयी और वह भी हज़ारों लोगों की मौजूदगी में और यह सब जिनकी आँखों के सामने हो रहा था, उनके दिलों का क्रोध अब बस बाहर निकलने की राह देख रहा था।

Bahadur_Shah_II_-_aka_Zafar- दिल्ली का स्थान

अब महज़ चंद घण्टों में सारा मेरठ खौल उठनेवाला था। इस बात की भनक लग चुके कुछ ने अपने प्रमुख अफसरों को इसकी जानकारी दे दी। लेकिन जहाँ अपने पास अपनी ही फ़ौज पर्याप्त संख्या में है, वहाँ भला फिक्र करने की क्या ज़रूरत है, ऐसा वे अफसर सोच रहे थे।

इसी दौरान दूसरा दिन उगा। वह था इतवार यानी वैसे तो छुट्टी का दिन। लेकिन कल की घटना से मेरठ का यह इतवार शान्ति भरा दिन नहीं था।

अब तक बराकपुर और उसके बाद मेरठ इन दोनों स्थानों पर सैनिक ही अँग्रेज़ों के खिलाफ खड़े हो गये थे। लेकिन मई १८५७ के इस इतवार को मेरठ शहर की जनता भी सक्रिय हो चुकी थी। अँग्रेज़ों के इस ज़ुल्म का सभी स्तरों पर से निषेध किया जा रहा था। मातृभूमि को आज़ाद करने के जुनून का बीज आम इन्सान के मन में अच्छी तरह अंकुरित हो चुका था और उसीका दृश्य स्वरूप दिखायी दिया मेरठ शहर में।

शहर में जहाँ जहाँ अँग्रेज़ थे, वहाँ वहाँ उनकी संपत्ति को नुक़सान पहुँचाने का कार्य मेरठ के आम नागरिकों ने शुरू कर दिया। अब उनका ध्येय एक ही था – इस शहर में से अँग्रेज़ों को खदेड़ देना। शहर में जिस समय यह सब चल रहा था, उस समय वहाँ बाक़ी के सैनिक, जिन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी वे सैनिक अब सक्रिय हो गये। उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण कृति की। वह थी, बंदी बनाये गये उन्हीं के सहकर्मियों को उन्होंने सब से पहले जेल में से मुक्त कराया। जेल के दरवाज़ें खोले गये और कल जिनपर हुक़्म न मानने का इलज़ाम रखकर जिन्हें कैद कर लिया गया था, वे ८५ सैनिक बाहर आ गये। फिर इस सैनिकी अड्डे के अहाते में अँग्रेज़ों की संपत्ति का नुकसान करने का सिलसिला शुरू हो गया और दुश्मन के कुछ सदस्यों को मौत के घाट भी उतार दिया गया।

अँग्रेज़ों के पास बड़ी फ़ौजी ताकत होने के बावजूद भी अँग्रेज़ों के लिए इन सब घटनाओं का सामना करना काफी मुश्किल हो गया। दर असल मेरठ की यह घटना योजनाबद्ध रूप से नहीं हुई थी, ऐसा इतिहास कहता है। वह तो था प्रत्येक मातृभक्त भारतीय का अपनी मातृभूमि के प्रति रहनेवाला प्यार और उसे ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़नेवाले दुश्मन के प्रति रहनेवाला ग़ुस्सा।

मई १८५७ का वह इतवार मेरठ शहर के लिए क्रान्तिमय बन गया था। सारे शहर में छोटी बड़ी ज्वालाएँ भड़कती हुई दिखायी दे रही थीं। शहर के प्रमुख स्थलों पर आम जनता और फ़ौजी थाने में भारतीय सैनिक दुश्मन पर धावा बोल रहे थे।

इतवार की शाम भी इसी तरह की घटनाओं से भरी हुई थी। बचेकुचे अँग्रेज़ मुक़ाबला करने की क़ोशिश कर रहे थे। भारतीयों का आवेग देखकर कई अँग्रेज़ इतवार को ही अपने परिजनों के साथ महफूज़ जगह पनाह ले चुके थे। इसलिए बचेकुचे अँग्रेज़ क्रान्ति की लहर का मुक़ाबला करने में नाक़ामयाब हो रहे थे।

अब रात हो रही थी। सुबह का आवेग घटने लगा था और रात में ही सारा मेरठ शान्त हो गया था। सोमवार की सुबह हुई और इतवार के दिन शहर भर में इनकिलाबी कार्य करनेवाले सैनिकों को गिरफ्तार करने के लिए अँग्रेज़ फ़ौज तैयार हो गयी। लेकिन अब वे सैनिक मेरठ में थे कहाँ! वे तो वहाँ से ४० मील दूर रहनेवाली दिल्ली की ओर कब के निकल चुके थे। अब उन्हें दिल्ली को अँग्रेज़ों की गिरफ्त से मुक्त कराना था। यह काम आसान नहीं था। रात में मेरठ से दिल्ली आये ये सैनिक थे, थर्ड लाइट कॅव्हल्री के।

भारत के इतिहास में दिल्ली का स्थान हमेशा से ही अहम रहा है। दिल्ली की कई हुकूमतों ने भारत के विभिन्न इलाकों पर अतीत में शासन भी किया था और आखिरी मुग़ल बादशाह अब भी दिल्ली में ही वास्तव्य कर रहे थे। तो दिल्ली की ओर कूच करनेवाले मेरठ के इन सैनिकों के मन में यक़ीनन ही कुछ विचार था, ध्येय था।

दिल्ली में रहनेवाले बादशाह थे, बहादूरशाह जफ़र। उनकी सत्ता थी बस दिल्ली तक ही, क्योंकि दिल्ली पर तो अँग्रेज़ कब का अपना शिकंजा कस चुके थे। यहाँ पर ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत थी और बादशाह महज़ नामधारी थे। अब दिखावे के तौर पर ईस्ट इंडिया कंपनी बादशाह को सम्मान दे रही थी, बादशाह को थोड़े बहुत अधिकार भी उसने दिये थे, छोटी सी फ़ौज रखने की इजाज़त भी दी थी और वह बादशाह को पेन्शन भी दे रही थी।

सारांश, दिल्ली में सारा कारोबार था अँग्रेज़ों के हाथों में, बादशाह थे केवल नामधारी।

मेरठ की घटना से मनोबल बढ़ चुके सैनिक अब यक़ीनन ही किसी विशिष्ट हेतु से दिल्ली की ओर आगे बढ़ रहे थे, वह भी रात में ही। मेरठ में जो परिवर्तन का तूफान आया, वही बवंड़र पास ही की दिल्ली में भी ले आने का उनका मक़सद था।

थर्ड लाइट कॅव्हल्री के सैनिकों की पहली टुकड़ी दिल्ली पहुँची, वह दिन था ११ मई १८५७ का। मेरठ के सैनिकों के दिल्ली आने की खबर लगते ही दिल्ली के सैनिकों की रग रग में भी क्रान्ति का खून खौलने लगा था।

अब दिल्ली में मई की धूप भी तेज़ हो रही थी, माहौल तपने लगा था और मन भी।

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