क्रान्तिगाथा-५९

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में आम भारतीय लोगों द्वारा दिये गये योगदान को देखते हुए सचमुच आश्‍चर्य होता है की सामान्य रूप से अपनी गृहस्थी और परमार्थ करनेवाले लोगों में लाठियाँ खाने का, जेल में जाने का, उपोषण करने का और हँसते हँसते फांसी पर चढते हुए मृत्यु को गले लगाने का बल आया भी कहा से?

इन सबका केवल एक ही जवाब मिल सकता है और वह है हर एक भारतीय का स्वमाता समान रहनेवाली उसकी मातृभूमि के प्रति होनेवाला प्रेम। क्योंकि प्रेम की ताकत सबसे बड़ी है और इसी बात ने भारतीयों को ज़ुल्मी अँग्रेज़ों के खिलाफ़ लड़ने के लिए आवश्यक होनेवाली ताकत की आपूर्ति की थी।

अँग्रेज़ों के ज़ुल्म ही ऐसे थे कि उन्हें देखकर और उनके बारे में सुनकर भी आम भारतीय गुस्से से खौल उठता था।

१९वीं सदी के ही समरकाल की एक घटना। इंग्लैंड में तैय्यार होनेवाला कपडा/कपडे को एशिया के बाजार में बेचने के लिए अँग्रेज़ कोई एक स्थान चाहते थे। भारत तो उनके कबजे में आ ही चुका था, फिर यहीं पर उनके तैय्यार माल का बाजार बनाने का उन्होंने तय किया। उस समय भारत के अधिकतर गांव स्वयंपूर्ण थें। इसका अर्थ यह है कि उन गांवों में रहनेवाले लोगों की ज़रूरतें उनके ही गांव में या आसपास के गांवों में पूरी होती थी। जाहिर है कि भारतीयों को उनके गांव के या आसपास के गांव के बुनकरों द्वारा बुना जानेवाला कपडा मिलता था। तो इन हालातों में इंग्लंड से भारत में लाया गया कपडा भला कैसे बिकेगा?

पूरे भारत में कई प्रदेशों में इस तरह कपडा तैय्यार करने का काम हजारों बुनकर करते थें। फिर अपना कपडा बिक जाये इस उद्देश से बंगाल के हजारों बुनकरों को अँग्रेज़ों ने पकड़ा और उनके हाथों के अँगूठें तोड़ दिये, जिससे की ये बुनकर अब कपडा बुन ही नहीं सकते थे। ज़ाहिर है कि वहाँ का वस्त्रोद्योग तो पूरा ही नष्ट हो गया और इंग्लंड से लाये जानेवाले कपडें की माँग बढने लगी।

इस घटना के बाद इनमें से कुछ बुनकर अवध जाकर बस गये। भले ही उनके हाँथों के अँगूठें नहीं थें, मगर उनके द्वारा आत्मसात की गयी कला अब भी जिवित थी। यह कला उन्होंने अपनी अगली पीढी को सिखायी और २३ सालों में उनका गांव, वस्त्रोद्योग के लिए, महुआ डाबर इस नाम से विख्यात हुआ।

१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वहाँ के निवासियों को महज़ ६ अँग्रेज़ों को घेरने का अवसर मिला, लेकिन उन्होंने इस अवसर का पूरी तरह लाभ उठाया। लेकिन इससे पूरे गांव को बहुत भयानक परिणामों का सामना करना पडा। जून १८५७ में अँग्रेज़ी सेना के एक टुकडी ने पूरे गांव को घेर लिया। गांव के हर एक घर के हर एक व्यक्ति को काट डाला और पूरे गांव को जला दिया। गांव का हर एक घर जला और इस तरह जलकर राख हो गया की कभी यहाँ पर एक गांव बसता था, इस बात पर कोई भी यकिन नहीं करेगा। ५००० लोगों के एक पूरे गांव का अँग्रेज़ों ने नामोनिशानही मिटा दिया।

देश के किसी एक प्रांत में भले ही इस प्रकार की घटनाएँ घटित हो रही थी, मगर उसकी गूँज पूरे भारत में सुनायी देती थी; अँग्रेज़ों द्वारा भारतीयों पर किये जानेवाले ज़ुल्म की खबरें पूरे भारत में किसी न किसी मार्ग से पहुँचती ही थी।

अँग्रेज़ों के अत्याचार कुछ इस कदर थे कि किसी एकाद समय पर कोई अकेली शासकस्त्री भी उनके विरोध में लडने के लिए खडी हो जाती थी।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़इसके दो महत्त्वपूर्ण उदाहरण हम पहले ही देख चुके है। अवध की रानी और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। ऐसी ही अँग्रेज़ों से जूझनेवाली एक रानी थी कित्तूर की रानी चेन्नम्मा

इसकी लड़ाई भी अँग्रेज़ों के खिलाफ और १९वीं सदी में हुई।

सन १८५७ से ३०-३२ वर्षों पहले घटित हुई यह घटना और कित्तूर की रानी द्वारा केवल अपने राज्य के लिए ही नहीं, बल्कि इस देश के लिए किया गया बलिदान। इस घटना का वर्णन करने के पीछे यही उद्देश है कि जब अँग्रेज़ों का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में भारत में जड़े मज़बूत कर रहा था, उस समय भी हमारी स्वतंत्रता को छिना जानेवाला है, इस बात का भारतीयों को एहसास हुआ था और उस समय भी भारतीय अँग्रेज़ों के खिलाङ्ग खडे हो गये थे।

२३ अक्तूबर १७७८ में काकती नामक गांव में जन्मी एक लडकी का मल्लसर्जा नामक राजा से विवाह होने के पश्‍चात् वह कित्तूर की रानी बन गयी।

उसे घुडसवारी, तलवार चलाना और युद्ध शस्त्रास्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त था। शादी के बाद उसके पुत्र के रूप में कित्तूर के राजघराने को वारिस मिला। लेकिन दुर्भाग्यवश कित्तूर की राजगद्दी के इस वारीस की अकालमृत्यु हो गयी और राजगद्दी के वारीस के रूप में रानी ने एक लडके को गोद ले लिया। अब इस गोद लिये गये पुत्रे के रूप में कित्तूर की राजगद्दी को वारीस मिल गया।

लेकिन भारत में चली आ रही यह परिपाटी भारत में व्यापार करने के लिए आये हुए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मंजूर नहीं थी।

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