क्रान्तिगाथा-१६

वह १८५७ के जून महीने का आखिरी ह़फ़्ता था, मग़र अब भी कानपुर के अँग्रेज़ अपने आश्रयस्थल में से हटने के लिए तैयार नहीं थे। आख़िर इसपर एक तरकीब सोची, नानासाहब पेशवा और उनके साथियों ने।

२४ जून १८५७ को अँग्रेज़ों के आश्रयस्थल में नानासाहब पेशवा का सन्देश लेकर एक युध्दबंदी चला गया। नानासाहब के दस्तख़त के साथ उनकी मुहर लगाया गया एक खत लेकर अगले ही दिन एक अन्य युध्दबंदी वहाँ आ गयी। उसमें लिखा था कि अँग्रेज़ कानपुर छोडकर चले जायें। स्वयं नानासाहब ने अँग्रेज़ों को कानपुर में से बाहर महफ़ूज़ ले जाने की ज़िम्मेदारी ली थी। सत्तीचौरा घाट पर से बोट में बिठाकर कानपुर में स्थित सभी अँग्रेज़ों को इलाहाबाद भेजने की सारी व्यवस्था करने का आश्‍वासन नानासाहब पेशवा ने उस खत के साथ दिया था।

सत्तीचौरा घाट

आखिर २७ जून की सुबह कानपुर में से सारे अँग्रेज़ रवाना हो रहे थे। उन्हें सत्तीचौरा घाट तक पहुँचाने का पुख्ता इंतज़ाम किया गया था। एक के बाद एक करके अँग्रेज़ों को इलाहाबाद जा रही बोट्स् में बिठाया जा रहा था। लेकिन इस घटनाक्रम में कहीं कुछ़ गड़बड़ी हो गयी और इतिहास के पन्नों में सत्तीचौरा का नाम खून की स्याही से लिखा गया। १८५७ के इतिहास में सत्तीचौरा की घटना का वर्णन प्रत्येक इतिहासकार या लेखक अपने दृष्टिकोन से करता है इस बात पर हमें ग़ौर करना चाहिए।

मई के अन्त में ही उत्तरी भारत के कई शहर और छोटे बडे गाँव अँग्रेज़ों का हु़कूमत का तख़्त पलट देने के लिए जंग में उतर गये और अँग्रेज़ अब उनके पास रहनेवाली और उनसे व़फ़ादार रहनेवाली फ़ौज के साथ हर जगह मुक़ाबला कर रहे थे। क्योंकि अन्य देशों में से भारत की ओर कूच कर चुकी अँग्रेज़ सेनाएँ अब भी बीच रास्ते में ही थीं।

अवध (अयोध्या) इला़के की राजधानी रहनेवाले लखनौ में अँग्रेज़ों की रेसिडन्सी थी। रेसिडन्सी यानी अँग्रेज़ों की उस उस इला़के की मुख्य कचहरी। इस रेसिडन्सी में अँग्रेज़ों द्वारा नियुक्त किया गया एक मुख्य अँग्रेज़ अ़फ़सर रहता था। यह मुख्य अधिकारी ही उस रियासतदार और ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच का कारोबार देखता था। यह बताने का कारण यह है कि भारत में जहाँ अँग्रेज़ों की रेसिडन्सीज़ सबसे पहले स्थापित हुईं, उनमें से एक ‘अवध’ रियासत की रेसिडन्सी थी। आम तौर पर रेसिडन्सी की स्थापना उस रियासत की राजधानी में की जाती थी और अँग्रेज़ वहाँ का कारोबार अपनी रेसिडन्सी में से चलाते थे।

लखनौ के आसपास के इलाक़ों में हो रही भारतीय सैनिक और अँग्रेज़ों के बीच की झडपों को देखते हुए लखनौस्थित अँग्रेज़ अ़फ़सर ने आपातकालीन आश्रयस्थल के रूप में स्थानीय रेसिडन्सी और मच्छीभवन इन दो जगहों को चुनकर सारी व्यवस्था की थी।

लखनौ के आसपास के कुछ इलाकों में क्रान्ति का शंख मई के आख़िरी ह़फ़्ते में बजाया जा चुका था और उसके कुछ ही समय बाद अँग्रेज़ो ने अवध के राजा को कोलकाता भेज दिया।

लखनौ के सैनिकों ने जिस पल वहाँ के अँग्रेज़ो के खिलाफ़ जंग छेड़ दी, उसके ह़फ़्ते भर बाद ही अयोध्या यानी अवध इला़के के कई जिलों तथा तहसीलों ने भी अँग्रेज़ों को मातृभूमि में से खदेड़ देने के लिए जंग छेड़ दी। मई के महिने से लेकर जून महिने तक अवध प्रांत में ऐसी घटनाएँ हो ही रही थी।

जून के आखिरी ह़फ़्ते में अवध के चीफ़ कमिशनर का सामना भारतीय सेना के साथ हुआ, ‘चिन्हत्’ नाम की जगह।

अवध के चीफ़ कमिशनर और उसकी सेना पर भारतीय सैनिकों ने जमकर आक्रमण किया। गाँव की सीमा पर रहनेवाली दीवार के पीछे यह सेना घात में बैठी थी और बाक़ी की फ़ौज गाँव में से आवश्यक सामग्री की आपूर्ति करने के लिए तैयार ही थी।

जब अँग्रेज़ और भारतीय सेना आमने सामने आ गयी, तब प्रत्यक्ष युध्द शुरू हो गया। यहाँ पर भारतीय सेना का पलड़ा भारी हो रहा था और अँग्रेज़ों को घेर लेने में वह सफ़ल भी हो गयी। अब अँग्रेज़ लखनौ वापस लौटने की तैयारी करने लगे। साथ ही कुछ अँग्रेज़ अ़फ़सर घायल सैनिकों को लखनौ तक ले जाने की तैयारी में जुट गये और आखिर अँग्रेज़ों को पीछे हटना पडा और वे लखनौ लौट गये। लखनौ पहुँचते ही वे अपनी रेसिडन्सी में चले गये, क्योंकि अब वही उनका आश्रयस्थल था।

‘चिन्हत्’ की इस घटना से क्रान्तिवीरों का मनोबल यक़ीनन ही बढ़ गया।

वहाँ कानपुर में भी जून के अंत में नानासाहब पेशवा, तात्या टोपे और उनकी सेना बाज़ी जीत चुकी थी। कानपुर अब पुरी तरह नानासाहब पेशवा के अधिकार में आ चुका था। जून का आख़िरी सप्ताह और जुलाई का पहला सप्ताह कानपुर के क्रान्तिकारियों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण साबित हुआ था, क्योंकि अब कानपुर में से अँग्रेज़ों का नामोंनिशान तक मिट गया था।

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