क्रान्तिगाथा- ३६

भारतीयों की इस भारतभूमि को अनेक सहस्रकों की भक्ति की परंपरा है और भारतीयों की वीरता इस भक्ति की बुनियाद पर ही खड़ी है। देश की स्वतन्त्रता के लिए की जानेवालीं कोशिशों में भारतीय समाज को भक्तिमार्ग का मार्गदर्शन करनेवाले अनेक श्रेष्ठ मार्गदर्शक प्राप्त हुए थे।

बंगाल में १९वी सदी में ही रामकृष्ण परमहंस ने जगन्माता की भक्ति करते हुए समाज को दिशा दिखाना शुरू किया था। रामकृष्ण परमहंस की यह सीख अपना चुके उनके अनेक शिष्यों में से एक थे – स्वामी विवेकानन्द।

भक्तिमार्गराष्ट्रसंत और आधुनिक समय के महान दार्शनिक इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द को गौरवान्वित किया जाता है। स्वामी विवेकानंद ने हमारे भारतीय अध्यात्म एवं तत्त्वज्ञान से सारी दुनिया को सितंबर १८९३ में शिकागो में हुई सर्वधर्मपरिषद् में परिचित कराया। जीवन भर स्वामी विवेकानन्द भारत में और प्रसंगवश भारत के बाहर भ्रमण करते रहे। भक्ति के माध्यम से भारतीयों के मन में देशभक्ति की ज्योति को प्रज्वलित रखने का प्रमुख कार्य उन्होंने किया। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य रहनेवाले स्वामी विवेकानंद ने समाज और समाज के हर एक घटक का मनोबल उन्नत करने पर विशेष ध्यान दिया। रामकृष्ण परमहंस के विचारों का प्रचार एवं प्रसार करने के उद्देश्य से उन्होंने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना भी की। भक्ति और समाजप्रबोधन के साथ साथ सामान्यजनों की सेवा ये कार्य इस संस्था के द्वारा किये जाने लगे।

१८६३ में कोलकाता के एक अमीर घर में पैदा हुए नरेन्द्रनाथ दत्त के खानदान में विद्या के साथ साथ अध्यात्म एवं समाज सेवा की समृद्ध परंपरा थी। दुर्भाग्यवश, नरेन्द्रनाथ को युवा आयु में ग़रीबी की आँच सहनी पड़ी। रामकृष्ण परमहंस से परिचय होने के बाद उनका जीवन पूरी तरह बदल गया और इसी प्रक्रिया में से ‘नरेन्द्रनाथ दत्त’ इस व्यक्तित्व का ‘स्वामी विवेकानन्द’ तक का स़ङ्गर हुआ। समाज और देश का मार्गदर्शन करनेवाले इस महान विभूति ने १९०२ में देहत्याग किया।

इस तरह भारत में अनेक महान व्यक्तित्वों की परंपरा का इस स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान उदय हुआ था।

२० वीं सदी की शुरुआत हुई थी और बंगाल के बँटवारे के बाद सारे भारत में हो रही घटनाओं से एक नवचेतना आयी थी। अब बात महज़ ‘स्वदेशी’ तक ही सीमित नहीं रही थी, बल्कि ‘स्वराज्य’ इस संकल्पना ने भी ज़ोर पकड़ लिया था। १९०६ में कोलकाता में हुए इंडियन नॅशनल काँग्रेस के अधिवेशन में दादाभाई नौरोजी ने ‘स्वराज्य’ की माँग प्रस्तुत की थी।

अब भारत के विभिन्न इलाक़ों में स्वतन्त्रताप्राप्ति की कोशिशें ज़ोरों से की जा रही थी। इसी का एक हिस्सा था, विभिन्न संगठनों की स्थापना की जाना। इन संगठनों के सदस्य थें – देशभक्त, जो विभिन्न मार्गों का अवलंबन करके देश को आज़ाद करने में जुट गये थें और महत्त्वपूर्ण बात यह थी की इनका कार्य गुप्त रूप से होता था।

इनमें से ही एक थी – ‘अनुशीलन समिति’। १९०२ के आसपास बंगाल में इस समिति की स्थापना की गयी। राष्ट्रचेतना जागृत करने वाले बंगाली लेखक बंकिमचन्द्र चॅटर्जी के विचारों का प्रभाव इस समिति के सदस्यों पर था। अर्थात् ‘अनुशीलन’ का काम गुप्तरूप से चलने के कारण समाज में इसका स्वरूप एक ‘फिटनेस क्लब’ का था और इससे अँग्रज़ों को गुमराह करना आसान हो गया था। इसमें युवाओं को बल-संपादन करने के लिए कसरत के पाठ सिखाये जाते थे। इसीलिए इसे ‘फिटनेस क्लब’ का नाम दिया गया था, जिससे की इस संगठन के कार्य और स्वरूप की अँग्रेज़ों को भनक तक न लगे।

कोलकाता के बॅरिस्टर प्रमथ मित्रा ये इस समिति के संस्थापक थे। दर असल ‘अनुशीलन समिति’ के नाम के अन्तर्गत उस समय कुल ३ संगठन कार्यरत थे। एक -प्रमथ मित्रा के मार्गदर्शन में कार्यरत था, दूसरे को सरलादेवी मार्गदर्शन कर रही थी, वहीं तीसरा संगठन अरविन्द घोष के मार्गदर्शन में कार्य कर रहा था।

कोलकाता और ढाका इन दोनों जगह इस समिति का कार्य शुरू हो चुका था। १९०५ में हुए ‘बंगाल बँटवारे’ के बाद बंगाल के सजग समाज का इस ‘अनुशीलन समिति’ को बड़े पैमाने पर समर्थन मिलने लगा।

‘अनुशीलन समिति’ का बलोपासना करना यह जो जनमानस के सामने रहनेवाला चेहरा था, वह चेहरा गुप्त रूप से भी कार्यरत था ही। क्रान्तिवीरों को मातृभूमि की सेवा करने के लिए बलसमृद्ध बनाना, उन्हें शस्त्र-अस्त्र चलाने का प्रशिक्षण देना, ये शस्त्रास्त्र प्राप्त करना, बम बनाना और भारतभूमि को दास्यमुक्त बनाने के लिए अँग्रेज़ों के खिलाफ इन सब का उपयोग करना, ज़रूरत पड़ने पर अँग्रेज़परस्त भारतीयों के खिलाफ भी इसका इस्तेमाल करना यह ‘अनुशीलन समिति’ का कार्य था।

‘अनुशीलन समिति’ को प्राप्त हुआ नेतृत्व और उसके सदस्य इन सब के लिए ‘भारत की दास्यमुक्ति’ यह मानो साँस ही बन गयी थी।

भारत में जिस समय यह सब कुछ हो रहा था, उसी समय भारत के बाहर से भी भारत को आज़ादी दिलाने की कोशिशें ज़ोरों पर थीं।

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