क्रान्ति गाथा – २

History of the Indian Mutiny of 1857
क्रान्तिगाथा

वेदमन्त्रों का घोष जहाँ नित्य गूँजता था, वेदों की ऋचाओं का जहाँ पाठ होता था ऐसी इस भारतभूमि में अनेक पुण्यवान, कीर्तिवान राजा हुए हैं, अनेक वीरों और योद्धाओं ने इसका गौरव बढ़ाया हैं और इसी पुण्यभूमि में भगवान ने भी बार बार अवतार लिये हैं, दुष्टों का निर्दालन करने के लिए।

ऐसी हमारी यह भारतभूमि, जिसकी संतानों को आज दुख भुगतना पड़ रहा था। विदेशी हुकूमत का फंदा कसा जा रहा था और यह भारतभूमि अपनी संतानों के साथ ग़ुलामी का दर्द सह रही थी। इसी वजह से स्वतन्त्रता और उसके साथ अन्य कई बातों पर अतिक्रमण हो गया था। इस ग़ुलामी के साथ ही अन्याय, अत्याचार, ज़ुल्म, अनीति भी कहर ढा रहे थे। पवित्रता और नीति-मर्यादाओं का पालन ये शब्द तो मानो जैसे गायब ही हो गये थे। यहाँ के मानवी समाज के मूलभूत अधिकारों को ही रौंदा जा रहा था और इन सब बातों के खिलाफ़ बग़ावत कर उठे मनों ने जन्म दिया था, एक क्रान्ति को। दर असल वह एक समर (जंग) की शुरुआत थी।

वैसे देखा जाये तो क्रान्ति यह कोई २-५ मिनट में घटित होनेवाली घटना नहीं है। क्रान्ति की नींव तो किसी एकाद कालावधि की कई घटनाओं से रची जाती है और सब से अहम बात यह है कि विचारशील मन जब किसी भी घटना की अनुचितता को महसूस करते हैं, तब उचितता की स्थापना करने के लिए उन मनों में बसनेवाले विचार कृति में अवतरित होते हैं और तब क्रान्ति का जन्म होता है।

इतिहास में कई क्रान्तियाँ हुई हैं और आज वर्तमान युग में भी कुछ क्रान्तियों को हमने देखा है। क्रान्ति करानेवाले इन अशान्त मनों में इच्छा होती है कि ईश्‍वरप्रदत्त स्वतन्त्रता जिस पवित्रता और नीति-मर्यादाओं के अधिष्ठान पर खड़ी होती है, वह संपूर्ण समाज को प्राप्त हो।

भारत के इतिहास में सन १८५७ में जिस स्वतन्त्रता समर की शुरुआत हुई, वह समर सन १९४७ तक लड़ा जा रहा था। कोई भी क्रान्ति बहुत बड़े परिवर्तन कराती है। ये परिवर्तन केवल मानवी समाज तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि उनसे इतिहास और भूगोल भी बदल जाता है।

भारत की स्वतन्त्रताप्राप्ति के लिए हुई इस क्रान्ति की ख़ासियत यह थी कि यह क्रान्ति भारत के किसी विशिष्ट भूभाग तक सीमित नहीं थी, बल्कि उस वक़्त का अखंड भारत यही उसका क्षेत्र था। इसी तरह यह किसी भी विशिष्ट समाज तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि राजा-महाराजाओं से लेकर एक आम भारतीय नागरिक तक सभी इसमें सम्मिलित हुए थे। अत एव यह मेरी मातृभूमि है और उसके खिलाफ़, उसके बच्चों के खिलाफ़ जो कुछ अनुचित चल रहा था, उसका विनाश होना ही चाहिए यह माननेवाला हर एक भारतीय इस क्रान्ति का अविभाज्य अंग बन गया था।

अँग्रेज़ जिस तरह व्यापारियों का मुखौटा पहनकर भारत में दाख़िल हुए थे, उसी तरह पुर्तग़ाली, डच और फ्रान्सिसी भी इस भूमि पर व्यापार करने के लिए ही आये थे। वजह एक ही थी कि इस भूमि में सोने का धुआँ निकलता है ऐसी इसकी ख्याति ही दुनिया में थी। भारत में आये अँग्रेज़ों को हालाँकि कुछ विदेशी प्रतिस्पर्धियों को यहाँ पर मात देनी थी, लेकिन आगे चलकर उन्होंने बड़ी ही चालाक़ी से एवं सेना के बलबूते पर आसानी से इसमें क़ामयाबी हासिल की।

समुद्री मार्ग से आये अँग्रेज़ों ने यहाँ के बंदरगाहों के आसपास व्यापार के लिए गुदाम और बखार बनाना शुरू कर दिया और इसके लिए उस वक़्त उस उस प्रदेश पर शासन करनेवाले राजाओं से उन्होंने बाक़ायदा इजाज़त भी ली थी। धीरे धीरे उन्होंने अपना रूख बंदरगाहों से अन्तर्गत भूमि की ओर करना शुरू कर दिया। इतना सब कुछ करने के लिए उन्होंने अपने लोग भी अपने साथ लाये थे और वे सब इस भूमि में अपनी जड़ें मज़बूत करने लगे थे। धीरे धीरे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम इस तरह भारत की चारों दिशाओं मे अँग्रेज़ों के उपनिवेश स्थापित हो गये। व्यापार करते करते उन्होंने कब यहाँ की जनता से लगान (टॅक्स) वसूल करने के अधिकार अपने पास ले लिये, इस बात का पता ही नहीं चला।
अपने प्रतिस्पर्धियों को मात देने के लिए उन्होंने अपनी फौज भी बनायी थी और कुछ प्रतिस्पर्धियों को खदेड़ दिया, तो कुछ को भारत के एक कोने में सीमित कर दिया। अब उन्होंने रुख किया, यहाँ की भूमि और उसके शासकों की तरफ़। उनकी राक्षसी महत्त्वाकांक्षा को अब यहाँ के भूप्रदेश पर कब्ज़ा कर लेने की ज़रूरत महसूस होने लगी थी। अब तक वह थी, भारत में व्यापार करने आयी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी।

जून २३ , १७५७ का दिन। इस दिन रॉबर्ट क्लाइव्ह के अधिपत्य में ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज की भिडंत हुई, बंगाल के नवाब सिराज उद्दौल की सेना के साथ। ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़ौजियों में अँग्रेज़ तो थे ही, साथ ही उसमें से लड़नेवाले भारतीय सैनिक भी थे। हालाँकि सैनिकों की संख्या की दृष्टि से सिराज उद्दौल की सेना बड़ी थी, मग़र अँग्रेज़ों की आधुनिक युद्धकला और गद्दारी के कारण सिराज उद्दौल को असफलता नसीब हुई। इसलिए प्लासी की जंग यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मिली हुई सब से पहली और बड़ी सैनिकी क़ामयाबी साबित हुई।

भारत के एक शासक को इस तरह हराने के बाद क्या अंग्रेज़ रुक गये? असंभव! वे बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे, नये नये इलाक़ों पर कब्ज़ा करने के लिए। इसी दौरान ब्रिटिश सेना में हो रही भारतीयों की भरती की प्रक्रिया भी उन्होंने तेज़ कर दी थी।

साथ ही अँग्रेज़ अपने विदेशी प्रतिस्पर्धियों से भी लड़ रहे थे। कर्नाटक प्रदेश पर अपना अधिकार जमाने के लिए फ्रान्सिसी और अँग्रेज़ काफ़ी लंबे अरसे तक आपस में लड़ रहे थे। लेकिन सन १७६० में हुई वांदिवाश की जंग में फ्रान्सिसियों को धूल चटाकर अन्य विदेशियों से अँग्रेज़ भारत में अधिक ताकतवर बन गये।

सन १७६४ में अँग्रेज़ो ने उनके खिलाफ़ लड़नेवाले मीर कासिम नाम के बंगाल के नवाब को परास्त करके बंगाल, बिहार, उड़ीसा के इला़के में लगान वसूल करने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया। फिर इस इला़के में अपने गव्हर्नर एवं सेना-अधिकारी को भी नियुक्त कर दिया।

यहाँ के राजाओं के साथ युद्ध और समझौते के मार्ग का अवलंबन करते हुए अँग्रेज़ यहाँ की भूमि को निगलते जा रहे थे। मग़र अब भी वीरों की इस भूमि को पूरी तरह निगल जाना उनके लिए मुमक़िन नहीं हुआ था, क्योंकि उनसे जूझने के लिए कोई तो युद्ध के मैदान में उतर गये थे।

आगे जारी…

क्रान्तिगाथा

भाग १, भाग ३, भाग ४,

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