क्रान्तिगाथा- ३७

भारत को आज़ाद करने के लिए भारत में ही जब तेज़ी से कोशिशें शुरू हो गयी थीं, तब भारत के बाहर रहनेवाले भारतीयों का ख़ून भी अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्रता दिलाने के लिए खौलने लगा था।

२० वीं सदी के प्रारंभ में ही ये कोशिशें शुरू हो गयी और थोडे ही समय में उन कोशिशों ने का़फी जोर पकड लिया।

विदेश की भूमिपर रहकर ऐसी कोशिशें करनेवाले ये भारतीय लोग वहाँ पर नौकरी-व्यवसाय के कारण रह रहे थे और साथ ही भारत से पढ़ाई करने गये छात्र भी उनमें थे।

मातृभूमि

इन कोशिशों में जिन्होंने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, उनमें अग्रक्रम पर नाम आता है ‘इंडिया हाऊस’ का और साथ ही श्यामजी कृष्ण वर्मा का। श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म अक्तूबर १८५७ को मांडवी, कच्छ में हुआ था। संस्कृत के गाढ़े अध्ययन के बाद उन्हे ‘पंडित’ यह उपाधि प्रदान की गयी। मोनियर विल्यम्स इन संस्कृत अध्ययनकर्ता पश्‍चिमी विद्वान की सहायता के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया और इस वजह से वे इंग्लैंड़ गये थे। वहाँ पर उच्च शिक्षा प्राप्त कर वे भारत लौट आये। साल था १८८५। यहाँ पर उन्होंने अपनी क़ानूनी डिग्री का उपयोग करना शुरू कर दिया। फिर भारत की कुछ रियासतों के दिवान के रूप में वे कार्य करने लगे और इसी दौरान अँग्रेज़ों की नीति और भारत के प्रति रहनेवाले अँग्रेज़ों के रवयै से वे परिचित हो गये। इसी में से उनके मन में एक स्फुल्लिंग उत्पन्न तो हुआ, लेकिन इस चिंगारी से क्रान्तियज्ञ साकार हुआ उनके इंग्लैंड़ जाने के बाद ही।

अँग्रेज़ों के द्वारा कुचले जा रहे शोषित भारतीयों का पक्ष रखने के लिए उन्होंने ‘द इंडियन सोशिऑलॉजिस्ट’ नाम का मासिक अँग्रेज़ी में शुरू किया। ‘भारत में भारतीयों की सरकार’ इस ध्येय की पूर्ति करने के लिए उन्होंने फरवरी १९०५ में ‘द इंडियन होमरुल सोसायटी’ की स्थापना की।

साथ ही अँग्रेज़ों की भूमि पर आकर पढ़नेवाले भारतीय छात्रों को विद्यावेतन के रूप में सहायता करना भी शुरू कर दिया और यहीं पर जन्म हुआ ‘इंडिया हाऊस’ का। ‘इंडिया हाऊस’ से जुड़ गये, भारत से इंग्लैंड़ पढ़ने गये छात्र और अनेक भारतीय, जो मातृभूमि को मुक्त करने के लिए सक्रिय थे।

देश को आज़ाद करने के लिए सशस्त्र मार्ग पर चलकर कोशिशें करनी चाहिए, इस विचार से फिर ‘इंडिया हाऊस’ से संबंधित सभी देशभक्त काम में जुट गये।

अँग्रेज़विरोधी लेखन और अँग्रेज़विरोधी कार्रवाई की कई रूपरेखाएँ अब भारत के बाहर से भी भारत भेजे जाने लगी और उस पर अमल करने की शुरुआत भी हो गयी। ख़ुद अँग्रेज़ों की भूमिपर ही यह कार्य चल रहा था, तो अँग्रेज़ों को इस बात का पता चलना यह तो स्वाभाविक ही था। अँग्रेज़ों की कड़ी नज़र अब श्यामजी कृष्ण वर्मा पर थी। अत एव अपना कार्य जारी रखने हेतु उन्होंने पॅरिस स्थलान्तरण किया। यहाँ पर स्वतन्त्रताप्राप्ति के लिए जूझनेवाले अनेक देशों के क्रान्तिकारियों से उनका संपर्क हुआ।

भारतीयों की परिस्थिति सारी दुनिया को बतानेवाले कई पत्रक, मासिक और समाचारपत्र विदेश की भूमि पर से प्रकाशित हो रहे थे। तारकनाथ दास ने ‘फ्री हिन्दुस्तान’ की शुरुआत की। फिर ‘स्वदेश-सेवक’, ‘आर्यन’ और ‘वन्दे मातरम्’ भी प्रकाशित होने लगे।

इसी दौरान भारत में भी गरम और नरम दल अपने मार्ग पर चलकर कोशिशें कर ही रहे थे।

पॅरिस में ‘पॅरिस इंडियन सोसायटी’ की स्थापना हो चुकी थी। इस का काम देख रही थीं मॅडम कामा और उनके साथ थे सरदारसिंह राणा, लाला हरदयाल, व्ही.एन्.चॅटर्जी आदि देशभक्त।

श्यामजी कृष्ण वर्मा के लंदन स्थित इंडिया हाऊस से संबंधित क्रान्तिवीरों में एक महत्त्वपूर्ण नाम था विनायक दामोदर सावरकर का, जो उस व़क़्त क़ानून का अध्ययन करने इंग्लैंड़ गये थे।

भारत के बाहर विदेशी भूमि पर स्थापित हुए इन संगठनों का भारत के बाहर और भारत में भी क्रान्ति की आँधी चलाने में का़फी योगदान रहा, क्योंकि अँग्रेज़ यह नहीं जानते थे कि आनेवाला समय उनके लिए बहुत ही मुश्किलों भरा था।

विदेश की भूमि पर से भारत की स्वतन्त्रता के लिए की जा रही कोशिशों में एक महत्त्वपूर्ण नाम था – ‘मॅडम कामा’ या ‘मादाम कामा’ का।

मुंबई स्थित एक अमीर पारसी परिवार में इनका जन्म हुआ था। सितंबर १८६१ में जन्मी मादाम कामा की पढ़ाई मुंबई में ही हुई।

अक्तूबर १८९६ में बाँबे प्रेसिडन्सी में पहले सूखा पड़ा था और फिर तबाही मचा दी थी, ‘ब्युबॉनिक प्लेग’ के संक्रमण ने। उस समय आपादग्रस्तों की सहायता करनेवाले स्वयंसेवकों में से एक थी ‘मॅडम कामा’। दुर्भाग्यवश प्लेग के संक्रमण से वे भी ग्रस्त हो गयीं, लेकिन इससे वे बच गयीं। इसके बाद उन्हें १९०१ में हवाबदली के लिए इंग्लैंड़ भेजा गया। इंग्लैंड़ में उनका परिचय हुआ ‘इंडिया हाऊस’ से और यहीं से भारत की क्रान्तिगाथा में एक नया अध्याय जुड गया।

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