क्रान्तिगाथा-३३

भारत को स्वतन्त्रता दिलाने के लिए जो क्रान्तियज्ञ शुरू हुआ था, उस क्रान्तियज्ञ में लगातार हौतात्म्य की आहुतियाँ अर्पण की जा रही थीं और यह यज्ञ अहर्निश चल रहा था।

भारतीय स्वतन्त्रता की लगन अब प्रत्येक भारतीय के मन में जाग उठी थी और इसी वजह से सर्वसामान्य भारतीय मन भी अब इसमें किसी न किसी रूप में सम्मिलित हो रहा था। चाफेकर भाइयों के द्वारा देश के लिए किये गये बलिदान के बाद फिर एक बार भारतीय मनों में सशस्त्र क्रान्ति के बीज बोये गये थे। अँग्रेज़ों के द्वारा भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों तथा दबावतन्त्र में वृद्धि ही हो रही थी और भारतीयों के मन में दास्यमुक्ति के बीज अब तेज़ी से पनपने लगे थे।

इसी दौरान इंडियन नॅशनल काँग्रेस ने क़ानूनी मार्ग से अँग्रेज़ों के खिला़फ अपनी जंग जारी रखी थी। इंडियन नॅशनल काँग्रेस में अब तक भारत के कई प्रज्ञावान और लोकनेता शामिल हुए थे। इंडियन नॅशनल काँग्रेस के सदस्य इकठ्ठा हो रहे थे, उनकी वार्षिक सभाएँ भी हो रही थीं और इस व्यासपीठ से जनता की समस्याओं पर विचार करके उपाय योजनाएँ की जा रही थीं।

१८९९ के आसपास अँग्रेज़ों के द्वारा ‘कर्झन’ नाम के व्यक्ति को भारत के ‘व्हॉइसरॉय’ के पद पर नियुक्त किया गया और उसने भारत आकर पदभार सँभाला। उसने आते ही कई प्रशासकीय मामलों में बदलाव करना शुरू कर दिया और ज़ाहिर है की इस बारे में अँग्रेज़ों की यह भूमिका थी कि ये बदलाव हम भारतीयों के फायदे और भले के लिए ही कर रहे हैं।

इसी दौरान इंडियन नॅशनल काँग्रेस के विचारकों और लोकनेताओं में दो प्रमुख विचारधाराओं का जन्म हुआ था। इनमें से एक विचारधारा यह थी – भारतीय स्वतन्त्रता के लिए शुरू हुई यह जंग  क़ानूनी मार्ग से आगे बढ़नी चाहिए। वहीं दूसरी विचारधारा थी – एक राष्ट्र के द्वारा दूसरे राष्ट्र पर इस तरह की ग़ुलामी थोंपना यही मूलत: ग़लत है, इसलिए उनके खिला़ङ्ग  लडकर देश और देशवासियों को आज़ादी दिलाना ज़रूरी है।
इन दो विचारधाराओं को क्रमश: ‘गरमदल’ और ‘नरमदल’ कहा जाता है। क़ानूनी मार्ग से स्वतन्त्रता प्राप्त करने की विचारधारा को ‘नरमदल’ माना जाता है और मातृभूमि को आज़ादी दिलाने के लिए हर संभव कोशिश करते हुए हमें ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़नेवालों के खिला़फ जंग छेड़ने की विचारधारा को ‘गरमदल’ माना जाता है।

‘नरमदल’ में गोपाळ कृष्ण गोखले, फिरोज़शाह मेहता आदि नेता थे; वहीं ‘गरमदल’में लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक, लाला लाजपत राय, बिपिनचन्द्र पाल आदि नेता थे। टिळक, लालाजी और बिपिनचन्द्र पाल की परस्पर वैचारिक संगती इतनी दृढ़ थी कि भारत के इतिहास में इस त्रिमूर्ति को ‘लाल-बाल-पाल’ कहा जाता है।

क्रान्तियज्ञबिपिनचन्द्र पाल का जन्म उस ज़माने के बंगाल इला़के के एक गाँव में नवंबर १८५८ में हुआ। अध्यापक, पत्रकार आदि विभिन्न ज़िम्मेदारियाँ निभा रहे बिपिनचन्द्र पाल का उल्लेख ‘क्रान्तिकारी विचारों के जनक’ के रूप में किया जाता है।

‘भारत को स्वतन्त्र करने के लिए अँग्रेज़ों के खिला़फ जंग छेड़ना ज़रूरी ही है’ यह मनोभूमिका रहनेवाले बिपिनचन्द्रजी के कदम भी उसी दिशा में उठ रहे थे। उन्होंने ‘वन्दे मातरम्’ नाम की पत्रिका की शुरूआत की और उस माध्यम से अपने विचार दूसरों तक पहुँचाना शुरू कर दिया। बाद में जब वे इंग्लैंड गये, तब वहाँ के ‘इंडिया हाऊस’ से उनका संपर्क हुआ और वहाँ पर भी उन्होंने ‘स्वराज्य’ नाम की पत्रिका की शुरुआत की।

इस त्रिमूर्ति में से ‘लाल’ के रूप मे जिनका गौरव किया गया, वे थे ‘लाला लाजपत राय’। पंजाब इला़के में जनवरी १८६५ में उनका जन्म हुआ। उनके कार्य के कारण उनका उल्लेख ‘पंजाब केसरी’ के रूप में भी किया जाता है। छात्रजीवन में ही उन्होंने कुछ पत्रिकाओं का संपादन किया था। अँग्रेज़ों के द्वारा भारतीयों पर किये जा रहे ज़ुल्मों का विरोध करने के लिए वे जीवनभर लड़ते रहे। उम्र के ६० साल पूरे हो जाने के बाद भी वे अँग्रेज़ों का विरोध करते ही रहे। इसके लिए मोरचाओं, आंदोलनों में वे शामिल होते थें, उनका नेतृत्व करते थें। अँग्रेज़ों का विरोध करनेवाले ऐसे ही एक मोरचे में वे शामिल हुए थें। उस मोरचा का दमन करने के लिए तब अँग्रेज़ों ने लाठियाँ बरसायी। उस मोरचे का नेतृत्व कर रहे बुज़ुर्ग लाला लाजपत राय इसमें घायल हुए और दुर्भाग्यवश इसी में उनका देहान्त हो गया।

समय था सन १९०५। कर्झन अब भी भारत का व्हॉइसरॉय था और उसकी एक कृति यह अँग्रेज़ों के खिला़फ प्रचंड जनक्षोभ निर्माण करने का कारण बननेवाली थी, इस बात का उसे अँदाज़ा भी नहीं था।

Leave a Reply

Your email address will not be published.