क्रान्तिगाथा-२४

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के वीर हौतात्म्य से अब भारत के उत्तरी इलाक़ों में क्रान्ति की ज्वालाएँ कुछ कम सी हो जाने के आसार दिखायी दे रहे थे। लेकिन जब उत्तरी भारत में स्वतन्त्रता का यज्ञकुंड प्रज्वलित था, तब दक्षिणी और पश्‍चिमी भारत में क्या परिस्थितियाँ थीं, यह देखना भी उतना ही ज़रूरी है।

भारत के दक्षिणी तथा पश्‍चिमी इलाक़ों में भी क्रान्ति की चिंगारियाँ भड़क उठी थीं, लेकिन उनकी प्रखरता उत्तरी भारत जितनी नहीं थी। महाराष्ट्र के साथ साथ दक्षिणी भारत में कई छोटी बड़ी रियासतें थीं और उनके राजा भी थे। उनमें से अनेकों ने उत्तरी भारत में चल रही घमासान का नतीजा क्या निकलता है, इस बात पर अपनी भविष्यकालीन नीति तय करने का निर्णय कर लिया था। यहाँ पर दक्षिणी तथा पश्‍चिमी भारत में सन १८५७ की १० अगस्त यह तिथि निर्धारित की गयी थी और इस दिन अँग्रेज़ों का तख़्त पलट देने के लिए जंग छेड़ने की बात भी तय की गयी थी।

भारतइस योजना के अनुसार फिर कोल्हापुर में भारतीय सैनिकों ने अँग्रेज़ों के खिला़फ जंग छेड़ दी; लेकिन उत्तरी भारत में प्राप्त हुए अनुभव से सबक ले चुके अँग्रेज़ों ने इस इला़के में पहले से ही अपनी फौज को तैयार रखा था। मग़र जुलाई महीने के अन्तिम दिन अँग्रेज़ों के खिला़फ खड़े हो गये कोल्हापुर के सैनिक कुछ अँग्रेज़ों का खात्मा करके सावंतवाड़ी जाकर वहाँ के क्रान्तिप्रमुख से जा मिले और उन्होंने एक होकर जूझना शुरू कर दिया।

सातारा, सांगली, जमखंड़ी जैसी रियासतों में भारतीय सैनिकों ने अँग्रेज़ों को मात देने की कोशिश की। नागपुर, जबलपुर जैसी जगहों पर भी इसी तरह की घटनाएँ थोड़े बहुत फर्क से हो रही थीं। लेकिन अब चौकन्ने हो चुके अँग्रेज़ों ने यहाँ के सारे भारतीय सैनिकों की कोशिशों को मात देना शुरू कर दिया और अधिकतर जगहों पर उन्हें कामयाबी भी मिली।

भारत में कई जगह इस भूमि पर प्राचीन समय से बस रहे निवासी लोगों के छोटे छोटे राज्य भी थे। सन १८५७ की क्रान्ति की एक और विशेषता यह थी कि इस तरह के कुछ राज्यों के राजा स्वयंप्रेरणा से अपनी प्रजा के साथ इस क्रान्ति में शामिल हुए थे। लेकिन दुर्भाग्यवश उनकी ये कोशिशें सफल नहीं हो सकीं और स्थानीय जनता के मन में अपने प्रति खौंफ पैदा करने के लिए अँग्रेज़ों ने उनके राजा को उनके ही सामने तोप से उड़ा देना या गाँव के बाहर के मुख्य स्थल पर फाँसी पर लटका देना इन जैसे अमानुष तरी़के अपनाये। अँग्रेज़ों के इस खूँखारपन से स्थानीय जनता के मन में स्वाभाविक रूप से अँग्रेज़ों के प्रति का़फी खौफ पैदा हो गया और अँग्रेज़ों को विरोध करने का विचार अब भारतीयों के मन में से समाप्त हो गया, ऐसा शायद अँग्रेज़ों ने सोचा। ।

इस तरह भारत के दक्षिणी और पश्‍चिमी इलाक़ों के भारतवासी भी अपनी मातृभूमि को आज़ाद करने के कार्य में अपना योगदान दे रहे थे।

मग़र उसी वक़्त कुछ ऐसी रियासतें भी थीं जो कि पूरी तरह अँग्रेज़ों के पक्ष में थी और उन्हींके इशारों पर चल रही थीं और इसी कारण इस स्वतन्त्रता यज्ञ में अपना योगदान देने से उन्होंने पूरी तरह इनकार कर दिया।

उत्तरी भारत में बीच बीच में भारतीय और अँग्रेज़ों के बीच रणसंग्राम हो रहा था, लेकिन अब उसका स्वरूप पहले जितना व्यापक नहीं था। ८० वर्ष की आयुवाले जगदीशपुर के ज़मीनदार बाबू कँ वरसिंह, जो अब भी लड़ रहे थे, उन्हें १८५८ के अप्रैल में जगदीशपुर के पास ही की अँग्रेज़ सेना पर जीत प्राप्त हुई थी। वहाँ से अपने घर लौटने के बाद ङ्गौरन २६ अप्रैल १८५८ को वे इस दुनिया को छोड़कर चले गये और फिर उनके भाई अमरसिंह ने क्रान्ति के सूत्र अपने हाथ में ले लिये। अक्तूबर १८५९ में भी उनका अँग्रेज़ों के खिला़फ संघर्ष चल ही रहा था।

१८५७ की क्रान्ति के ‘रणधुरंधर सेनापति’ के रूप में जाने जानेवाले ‘तात्या टोपे’! यह वीर व्यक्तित्व समूचे उत्तरी भारत में अँग्रेज़ों के खिलाफ जूझ रहा था, अनेक व्यूहरचनाओं और दाँवपेंचों की सहायतासे उन्होंने कई बार अँग्रेज़ों को परास्त भी किया था। लगातार नये नये इलाक़ों में जाना, वहाँ पर जाकर शस्त्र-अस्त्र, सेना और पैसा इकठ्ठा करना और अँग्रेज़ों की नाक में दम कर देना यह तात्या टोपे की कार्यपद्धति थी और इस तरह वे निरंतर सक्रिय ही थे।

इसी दौरान तात्या टोपेने नर्मदा पार करके जाने की कोशिश भी की, जिससे कि भारत के पश्‍चिमी और दक्षिणी प्रदेशों के क्रान्तिकारियों को बल मिल जाये और इसमें वे कुछ अंश तक सफल भी हो गये थे। तात्या टोपे अँग्रेज़ों के लिए सिरदर्द बन चुके थे और इसी वजह से कुछ भी करके तात्या टोपे को गिऱफ़्तार करने के लिए अँग्रेज़ों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। बड़े बड़े अँग्रेज़ अफसर अब अपनी सेना के साथ तात्या टोपे को पकड़ने के एकमात्र मक़सद से निकल पड़े।

इन हालातों में भी तात्या टोपे ने अँग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया था। लेकिन आख़िर जिसपर भरोसा किया, उसी ने तात्या टोपे का भरोसा तोड़ दिया। फिर एक बार नमकहरामी ने सिर उठाया था और यह वीर योद्धा लंबे अरसे तक अखंडित रूप से परिश्रम करने के बाद जब जंगल में विश्राम कर रहा था, तब अँग्रेज़ों ने उसे पकड़ लिया।

अँग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप रखकर तात्या टोपे की तहकिकात करने का फार्स भी अँग्रेज़ों के द्वारा किया गया और आख़िर अप्रैल १८५९ में यह वीर योद्धा मौत को ही खौफ दिखाते हुए सीना तानकर फाँसी के तख्ते पर चढ़ गया।

अब शायद आज़ादी प्राप्त करने का पागलपन भारतीयों के सिर से रफा दफा हो गया है, ऐसा अँग्रेज़ों को लग रहा था, क्योंकि क्रान्ति की ठंड़ी पड़ रही ज्वालाएँ उनकी नज़र देख रही थी। लेकिन राख के नीचे रहनेवाले अंगारों को भला वे कहाँ जानते थे!

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