क्रान्तिगाथा-२३

दास्यता और स्वतन्त्रता के बीच का फर्क मानवों की तरह अन्य सजीवों को महसूस नहीं होता और इसीलिए हमारी भूमि पर और स्वाभाविक रूप से हमारे संपूर्ण जीवन पर जब विदेशी लोग सत्ता स्थापित करते हैं, अत्यधिक ज़ुल्म, तानाशाही और अन्याय करते हैं, तब एक आम आदमी भी ‘स्वतन्त्रता’ के अपने मूलभूत मानवी हक़ को प्राप्त करने के लिए लड़ने लगता है, उसे जो शस्त्र मिलता है उसके साथ। सन १८५७ में भारतभर में बिलकुल ऐसा ही हुआ। इतने सालों से अँग्रेज़ों के अन्याय को चुपचाप सह रही भारतीय जनता एक पल में विदेशियों को स्वदेश में से खदेड़ देने के लिए सिद्ध हो गयी। सन १८५८ में भी यह संघर्ष चल ही रहा था। अब तक इस संघर्ष में कई भारतीय शहीद हो चुके थे। इनमें से कुछ शहिदों के नाम इतिहास जानता है, वहीं कइयों के नाम तक कोई नहीं जानता; लेकिन इन सबका मूल परिचय एक ही था- उनकी प्रखर मातृभूमिभक्ति।

स्वतन्त्रतामध्य भारत स्थित झाँसी अब रानी के राज्य में सुख से रह रही थी। जाँबाज़ बहादुर के रूप में झाँसी की रानी सुपरिचित हैं ही, लेकिन अत्यंत बुद्धिमान रहनेवाली ये रानी लक्ष्मीबाई भगवान की भक्ति भी बड़ी ही तन्मयता से करती थीं। वे स्वयं राज्य के कारोबार पर कड़ी नज़र रखती थीं। उत्तम प्रजापालक के रूप में भी वे मशहूर थीं। इतना ही नहीं, बल्कि उनके दरबार में अनेक विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय भी मिला था।

सन १८५८ के मार्च के महीने में झाँसी की यह शान्ति टूट गयी। अँग्रेज़ फौज लेकर झाँसी पर हमला करने आ गये और उनकी माँग यह थीकी रानी लक्ष्मीबाई अँग्रेज़ों को झाँसी सौंप दे। रानी ने स्वाभाविक रूप से उसे नामंज़ूर कर दिया और साथ ही अपनी आख़िरी साँस तक युद्ध करने का निर्धार भी मन में कर लिया। झाँसी की सुरक्षा करने के लिए रानीने पेशवा से सहायता माँगी और उसके अनुसार झाँसी के लिए क्रान्तिकारियों की सेना रवाना भी हो गयी।

यहाँ पर रानी लक्ष्मीबाई ने ११ दिनों तक अँग्रेज़ों का डँटकर मुक़ाबला किया और उन्हें झाँसी में कदम तक नहीं रखने दिया। लेकिन १२ वें दिन नज़ारा बदल गया, अँग्रेज़ों का पलड़ा भारी हो गया और रानी लक्ष्मीबाई और उनकी सेना द्वारा अबतक सुरक्षित रखी गयी झाँसी पर कब्ज़ा करने में अँग्रेज़ों को क़ामयाबी मिल गयी। झाँसी पर कब्ज़ा करने के बाद अँग्रेज़ों ने हमेशा की तरह ही झाँसी में लूटपाट करना, बेगुनाहों को कत्ल करना शुरू कर दिया।

लेकिन दुश्मन को मात देने के लिए अब झाँसी छोड़कर जाना रानी के लिए अनिवार्य हो गया। तब आप्तों एवं परमर्शदाताओं की सलाह मानकर रानी लक्ष्मीबाई झाँसी से निकलीं। घोड़े पर सवार होकर शस्त्रों से लैस रानी लक्ष्मीबाई अपनी पीठ पर अपने गोद लिये छोटेसे बेटे को बाँधकर झाँसी से निकलीं।

अँग्रेज़ उनका पीछा करने लगे। इतिहास कहता है कि रानी लक्ष्मीबाई  झाँसी से निकलकर कहीं पर भी न रुकते हुए चौबीस घण्टों तक घुडसवारी करते हुए १०० मील से भी अधिक दूरी तय करके काल्पी तक जा पहुँचीं।

काल्पी में रावसाहब पेशवा के साथ क्रान्तिकारी सेना युद्ध की अगली योजना बना ही रही थी। रानी लक्ष्मीबाई की उनसे मुलाक़ात हो गयी।

काल्पी और काल्पी से चंद कुछ ही दूरी पर स्थित कुंच में जंग छिड़ गयी। अँग्रेज़ों का पलड़ा यहाँ पर भी भारी साबित हो रहा था। अब अँग्रेज़ों का प्रतिकार करने के लिए कहीं पर आश्रय लेना चाहिए, यह बात सर्वानुमत से तय की गयी और रानी लक्ष्मीबाई, रावसाहब पेशवा और तात्या टोपे ग्वालियर की ओर रवाना हुए। लेकिन यहाँ पर उनकी घोर निराशा हो गयी।

फिर कुछ ही समय के लिए ही सही, ग्वालियर पर क्रान्तिकारियों ने कब्ज़ा कर लिया। लेकिन क्रान्तिकारियों का यह आनन्द क्षणभंगुर साबित हुआ और अँग्रेज़ों ने पुन: ग्वालियर पर कब्ज़ा कर लिया। ग्वालियर में क्रान्तिकारी अब अँग्रेज़ों से जान की बाज़ी लगाकर लड़ रहे थे और उनमें सबसे आगे थीं, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। बचपन से ही युद्धकला उनकी नस नस में बह रही थी और ऐसी इन रानी के साथ उनकी निष्ठावान दासियाँ भी लड़ रही थीं।

अब आरपार की जंग शुरू हो गयी। रानी लक्ष्मीबाई फिर एक बार दुश्मन के घेरे को तोड़कर बाहर निकलीं और उनका घोड़ा तेज़ी से दौड़ने लगा। दुश्मन अब उनसे कुछ ही दूरी पर आ गया था और किसी अँग्रेज़ सैनिक ने पीछे से रानी लक्ष्मीबाई पर वार कर दिया। कुछ ही पल बाद उनका घोड़ा रुक गया और रानी लक्ष्मीबाई ज़ख्मी होकर ज़मीन पर गिर गयीं। उस परिस्थिति में भी वे लड़ने की कोशिश कर ही रही थीं। लेकिन आख़िर हाथ की तलवार चलना रुक गया। ‘मेरा देह दुश्मन के हाथ में न पड़े’ यह रानी की इच्छा हमेशा से ही रही थी और अन्तिम साँसें ले रही रानी को उनके सेवक वहीं पर के एक साधु महाराज की कुटियाँ में ले गये।

१८ जून १८५८ को रणरागिनी रानी लक्ष्मीबाई रणभूमि पर ही शत्रु से लड़ते लड़ते वीरमृत्यु को प्राप्त हो गयीं। उनकी मृत्यु के बाद उनके सेवकों ने अँग्रेज़ों को भनक तक न लगने देते हुए रानी के अन्तिम संस्कार किये। तेज से चमकनेवाली बिजली आज शान्त हो गयी।

संग्राम में कई योद्धा शहीद होते हैं, लेकिन जब तक सेना होती है, तब तक संग्राम जारी रहता है। अब भी तात्या टोपे आस न छोड़ते हुए पुन: सेना को इकट्ठा करते हुए दुश्मन का मुक़ाबला कर रहे थे। अब भी कुछ छोटे छोटे इलाक़ों में अँग्रेज़ों को कड़ा विरोध किया जा रहा था। १८५८ समाप्त होने आ गया। आशा-निराशा का खेल चल रहा था। लेकिन १८५८ के समाप्त होते होते अधिकतर भारतवर्ष पर कब्ज़ा कर लेने में अँग्रेज़ क़ामयाब हो चुके थे और भविष्य में क्या होनेवाला है यह स़िर्फ समय ही जानता था।

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