नेताजी-३४

Subhash१६  जुलाई १९२१ को सुभाष की बोट भारत के किनारे पर दाखिल हुई। सुभाष ने दो साल की अवधि के बाद फिर  एक बार अपनी मातृभूमि में कदम रखा था। दो साल की अवधि दुनिया के इतिहास की दृष्टि से देखा जाये, तो बहुत ही छोटी है, लेकिन यह कालावधि सुभाष की संवेदनाएँ परिपक्व होने की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण साबित हुई। सुभाष के भावी संघर्षमय जीवन की नींव इसी कालावधि में रखी गयी। एक मानव का महामानव में रूपान्तरण होने के बीज भी इसी कालखण्ड में बोये गये। दुनिया पर राज करने की क्षमता रखनेवाली मेरी भारतमाता केवल बदनसिबी के कारण आज ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई है; उसे मैं फिर  से उसका वैभवपूर्ण स्थान दिलवाकर रहूँगा, इस सुभाष के निश्चय पर मुहर लगी, वह इसी कालखण्ड में।

….और आय.सी.एस. को ठुकराकर देशसेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने का सुभाष का….नहीं नहीं, ‘सुभाषबाबू’ का, भारतमाता को उसकी स्वतन्त्रता के क़रीब ले जाने का निर्णय इसी कालावधि में लिया गया।

अब सुभाषबाबू को उत्सुकता थी उन महामानव से – गाँधीजी से मिलने की। उस समय गाँधीजी का वास्तव्य मुंबई – मणिभवन में ही था। अत एव सुभाषबाबू ने बन्दरगाह से अपने सामान के साथ फ़ौरन मणिभवन की ओर प्रस्थान किया। मन में कईं विचारों का ताँता लगा हुआ था, कई सवाल थे। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम का केन्द्रस्थान रहनेवाले गाँधीजी से मिलने के लिए मैं जा रहा हूँ, इस विचार से मन में एक सूक्ष्म कँपकँपी भी हो रही थी। इतना बड़ा व्यक्तित्व, क्या उनके पास मुझ जैसे सामान्य मनुष्य को देने के लिए वक़्त रहेगा? क्या वे मेरे सवालों के जवाब देंगे? ये सवाल दिमाग में मँड़रा रहे थे।

सुभाषबाबू मणिभवन पहुँचे। पता चला कि गाँधीजी ऊपरी मंजिल  पर हैं। गाँधीजी के स्वीय सचिव महादेवभाई ने सुभाषबाबू से ऊपर जाकर उनसे मिलने के लिए कहा।

ऊपर जाकर देखते हैं, तो क्या! गाँधीजी जमीन पर बैठे अपने चुनिन्दा शिष्यों के साथ सूत-कताई करने में मग्न थे। यह सुभाषबाबू को हुआ गाँधीजी का प्रथम दर्शन।

दरवा़जे में खड़े रहकर ही सुभाषबाबू गाँधीजी को निहारने लगे। खादी की मात्र एक छोटी धोती पहने हुए, दूरदरा़ज के देहातों में कड़ी धूप में पैदल यात्रा करने के कारण काला पड़ चुका त्वचा का रंग, कई बार भुगती हुई कारावास की स़जा के कारण स्वास्थ्य पर हुआ असर, मुंडित किये हुए बाल, पतली देहयष्टि ऐसे गाँधीजी प्रथम दर्शन में ही सुभाषबाबू को ऋषितुल्य महसूस हुए।

वहाँ पर इकट्ठा हुए सभी लोग खादी के मोटे-जाड़े कपड़ों में ही थे। स्वयं गाँधीजी भी सिर्फ  खादी की छोटी धोती पहनकर एकाग्रतापूर्वक सूत-कताई करने में मग्न थे। इस पार्श्‍वभूमि पर नखशिखान्त पश्चिमी पोशाक़ पहने हुए सुभाषबाबू के मन में संकोच की भावना उत्पन्न हुई।

इतने में दरवा़जे के पास खड़े सुभाषबाबू की ओर गाँधीजी का ध्यान गया और उन्होंने हँसकर उनका स्वागत किया। सुभाषबाबू ने अपना परिचय देते हुए कहा – ‘मैं सुभाषचंद्र बोस’।

हालाँकि गाँधीजी की सुभाषबाबू के साथ हुई यह पहली ही मुलाक़ात थी, मग़र तब भी ‘आय.सी.एस. पास होने के बावजूद भी उससे इस्तीफा  देनेवाला पहला भारतीय युवक’ इस रूप में भारतवर्ष में उनका नाम सबकी जबान पर था। गाँधीजी भी इस बारे में सुन चुके थे। इसलिए यह नाम सुनते ही उनके चेहरे पर ‘पहचानप्रदर्शक’ स्मित प्रकट हुआ।

लेकिन बोट से ठेंठ यहाँ आने के कारण पश्चिमी कपड़ों में ही रहनेवाले सुभाषबाबू ने स्वयं के पश्चिमी कपड़ों के बारे में अफ़सोस जताया। तब खुले दिल से हँसते हुए गाँधीजी ने उन्हें बैठने के लिए कहा। गाँधीजी द्वारा किये गये इस प्रशस्त स्वागत के कारण सुभाषबाबू के मन में स्थित तनाव कुछ कम हो गया। राजा जैसी शानोंशौकत प्रदान करनेवाली आय.सी.एस. की नौकरी पर देशसेवा करने के लिए एक ही झटके में लात मारनेवाले इस होनहार युवक के बारे में गाँधीजी के मन में भी प्रशंसा की भावना थी।

सहकर्मियों के जाने के बाद अब केवल गाँधीजी और सुभाषबाबू दोनों ही उस कक्ष में थे। असहकार आन्दोलन का अगला पड़ाव क्या होगा, यह जानने की सुभाषबाबू के मन में काफी उत्सुकता थी। अत एव उन्होंने गाँधीजी से विनम्रतापूर्वक उस सन्दर्भ में प्रश्न पूछना शुरू किया। मह़ज असहकार द्वारा स्वराज का ध्येय भला कैसे हासिल हो सकता है, यह प्रश्न सुभाषबाबू के चेहरे पर साफ़  साफ़ झलक रहा था। नौजवानी के खौलते उत्साह की इस झील ने – सुभाषबाबू ने गाँधीजी का मन जीत लिया। गाँधीजी को स्वराज्य की प्राप्ति के लिए उतावले बन चुके इस युवक के बारे में काफी कौतुहल था। सर्वप्रथम देशसेवा के लिए आय.सी.एस. की नौकरी को लात मारने का धीरज दिखाना यह काबिलेतारीफ  है, यह कहकर सुभाषबाबू की प्रशंसा करते हुए उन्होंने सुभाषबाबू को अपनी अगली नीति के बारे में बताया – ‘असहकार आन्दोलन का अगला पड़ाव है, किसानों को चुँगी न भरने के लिए कहना। एक बार यह बात सर्वत्र फ़ैल  जायेगी, तब सरकार की आय में कमी होगी और फिर  सरकार भी स़ख्त रवैया अपनाकर दमनतन्त्र का इस्तेमाल करेगी। परिणामस्वरूप आन्दोलन की तीव्रता और भी बढ़ेगी। सरकार स्वयंसेवकों को धर-दबोचकर जेलें भरना शुरू कर देगी। लेकिन ऐसे कितने लोगों को वह जेल भेज सकने में क़ामयाब हो सकती है? आख़िर एक ना एक दिन थककर, परेशान होकर सरकार को जनता के सामने सिर झुकाना ही पड़ेगा। इस आन्दोलन के लिए गाँधीजी को एक करोड़ स्वयंसेवक अपेक्षित थे और एक करोड़ की जमापूँजि भी।

असहकार आन्दोलन का पूरक कार्यक्रम गाँधीजी के पास है, यह सुनकर सुभाषबाबू को तसल्ली मिली। उनके मन पर काफी समय से मँड़रा रहे सवाल का समाधान हुआ था। लेकिन मह़ज चरखा चलाने का लँकशायर की कपड़ों की मिल्स पर भला क्या परिणाम हो सकता है अथवा मह़ज असहकार से आधी दुनिया पर हुकूमत करनेवाली उद्धत एवु ज़ुल्मी अँग्रेजी सियासत को भला कैसे झुकाया जा सकता है, ये शंकाएँ अब भी बाकी ही थीं; साथ ही अन्य कई शंकाएँ भी थीं। लेकिन उस विषय में गाँधीजी ने अधिक विवरण न करते हुए ‘मेरे अंतर्मन की आवा़ज मुझे वैसा कह रही है’ यह जवाब दिया। हालाँकि सुभाषबाबू को अधिक स्पष्टीकरण की अपेक्षा थी, लेकिन उनकी बातचीत शुरू हुए लगभग एक घण्टा बीत चुका था और बाहरगाँव के कुछ लोग पहले से ही अपॉईन्टमेंट लेकर गाँधीजी से मिलने आये थे। इसलिए उन्होंने गाँधीजी से विदा ली।

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