नेताजी-६५

कोलकाता काँग्रेस अधिवेशन से पहले हुई विषयनियामक समिति की बैठक में ‘नेहरू रिपोर्ट’ पर भारी-भरकम ‘भवति न भवति’ होकर नाट्यपूर्ण ढंग से ‘नेहरू रिपोर्ट’ को पास किया गया। उसे स्वीकारने के लिए सरकार को एक वर्ष की मोहलत दी जाये, ऐसा प्रस्ताव पारित हो गया। गांधीजीसमर्थकों के मन का तनाव थोड़ासा शिथिल हो गया।

यहाँ पर ‘बंगाल व्हॉलंटिअर्स’ के कार्यकर्ता, ‘युथ लीग’ के श्रीनिवास अय्यंगार आदि कार्यकर्ता, युगान्तर एवं अनुशीलन समिति के जतीन दास आदि कार्यकर्ता, साथ ही पंजाब के नवजवान भारत संगठन के भगतसिंग आदि युवा कार्यकर्ता, इन सबके मन में ग़ुस्से का आग धधक रही थी। वे अधिवेशन के मंडप में ही सुभाषबाबू और जवाहरलालजी को घेरकर खड़े थे। उनके कारण हमें मुँह की खानी पड़ी, ऐसी भावना इन कार्यकर्ताओं की हुई थी। विषयनियामक समिति की बैठक में संपूर्ण स्वतन्त्रता के मुद्दे पर आप समझौता कर ही कैसे सकते हैं और ज़ुल्मी अँग्रे़जों का राज भला कबतक सहना पड़ेगा, यह सवाल वे ग़ुस्से से कर रहे थे। उन्हें किस तरह समझाया जाये, यह सुभाषबाबू की समझ में नहीं आ रहा था। दरअसल बैठक में सुभाषबाबू ने अपना मन्तव्य निर्भयतापूर्वक प्रस्तुत किया था और उनकी राय को बढ़ता समर्थन रहने के बावजूद भी जनमत को मह़ज भावनिक प्रवाह ने विरोधी दिशा में खींच लिया था और इसीलिए इसमे सुभाषबाबू का कोई क़सूर नहीं था। लेकिन ग़ुस्से से आगबबूले हुए कार्यकर्ता इस बात को समझने की मनःस्थिति में नहीं थे। अत एव जैसे तैसे उन्हें समझाबूझाकर, कुछ और देर तक सब्र रखने का परामर्श देकर सुभाषबाबू ने उन्हें थाम लिया। वैसे भी, गाँधीजी काँग्रेस का त्याग करेंगे इस डर के दबाव में आकर अन्तिम क्षण में दो कदम पीछे हटने के कारण उनका अन्तर्मन उनसे सवाल कर ही रहा था। अब क्या किया जाये, इस सोच में रात बीत गयी।

सुबह खुले अधिवेशन की शुरुआत हुई। पिछले दिन की बैठक में पारित हुए प्रस्ताव को प्रस्तुत करने के लिए गाँधीजी स्वयं उठकर खड़े हो गये – ‘३१ दिसम्बर १९२९ तक यदि सरकार ने भारत को उपनिवेशीय स्वराज्य देने के बारे में निश्चित अभिवचन नहीं दिया, तो काँग्रेस को असहकार आन्दोलन छेड़ना पड़ेगा।’

सब कुछ परिपाटी के अनुसार पूरा हो जायेगा, ऐसा लग ही रहा था कि यक़ायक़ सुभाषबाबू उठकर खड़े हो गये और उन्होंने इस प्रस्ताव के सन्दर्भ में उपसूचना प्रस्तुत करने की अनुमति माँगी। अब यह क्या नयी मुसीबत आन पड़ी, इस विचार में ही गाँधीजी एवं अध्यक्ष ने कुछ अनिच्छापूर्वक ही उन्हें अनुमति दे दी।

सुभाषबाबू ने बोलना शुरू कर दिया। पहले ही उन्होंने ‘नेहरू रिपोर्ट’ के मुद्दें अभिनंदनीय हैं यह कहकर उसके लिए अध्यक्षमहोदय की प्रशंसा की। लेकिन मैं ‘संपूर्ण स्वतन्त्रता’ का पुरस्कर्ता होने के कारण इस रिपोर्ट के ‘उपनिवेशीय स्वराज्य यह काँग्रेस का ध्येय रहेगा’ इस एक ही मुद्दे के बारे में मुझे आपत्ति है’ यह कहा और उसकी कारणमीमांसा भी प्रतिपादित की। सबसे अहम बात यह थी कि गत वर्ष की मद्रास (चेन्नई) काँग्रेस में संपूर्ण स्वतन्त्रता के प्रस्ताव के पारित होने के बावजूद भी पुनः उपनिवेशीय स्वराज्य की माँग करना यह गत वर्ष आसमान में बुलंदी से लहराये हुए ध्वज को उतारकर लपेट रखने जैसा है। साथ ही अँग्रे़ज सरकार पर हमारा रत्ती भर भी भरोसा नहीं रहा है और क्या एक वर्ष में अँग्रे़ज सरकार उपनिवेशीय स्वराज्य भी देगी, ऐसा आपको लगता है? यह सवाल उन्होंने उपस्थित किया। तब सभी ओर से विशेषतः युवा वर्ग में से ‘नहीं, नहीं’ ऐसा ही जवाब आने लगा। ‘तो फ़िर ऐसा होते हुए हमारे आन्दोलन के ध्वज को बारह महीनों तक भी भला क्यों लपेटकर रख दिया जाये?’ ऐसा क़रारा सवाल उन्होंने सबसे पूछा।

सुभाषबाबू बड़ी आत्मीयता के साथ बोल रहे थे और एक मंत्रमुग्ध, भारित ऐसा माहौल बन गया था। जनमत को मनचाही दिशा में मोड़कर पूरे माहौल को बदल देने का सुभाषबाबू के वक्तृत्व का जादू उपस्थित सभी महसूस कर रहे थे। मूल प्रस्ताव में ‘उपनिवेशीय स्वराज्य’ के बजाय ‘संपूर्ण स्वतन्त्रता’ इस सुधार को इस उपसूचना द्वारा करने की दरख़ास्त कर सुभाषबाबू नीचे बैठ गये। उनके बाद जवाहरलालजी बोलने के लिए खड़े हो गये। पिछले दिन की बैठक में अपनी प्रस्तावविरोधी बात कहने से वे पीछे हटे थे, इसलिए कम से कम वे तो आज मूल प्रस्ताव का समर्थन करेंगे, ऐसी आशा अध्यक्ष महोदय के मन में थी। लेकिन उन्होंने भी सुभाषबाबू की ही बात को दोहराया और संपूर्ण स्वतन्त्रता का ही पुरस्कार किया। फ़िर अन्य भी कुछ वक्ताओं ने – किसी ने इस पक्ष में, तो किसी ने उस पक्ष में – अपनी बात कही। शरदबाबू ने भी अपने भाषण में – दोनों गुटों को एक होकर फ़ौरन आन्दोलन छेड़ देना चाहिए, ऐसी मध्यममार्गीय सूचना की। इस रामकहानी में शाम तक का वक़्त कैसे बीत गया, यह किसी की भी समझ में नहीं आया।

एक घण्टे के विश्राम के बाद सुधार की उपसूचना को जवाब देने के लिए गाँधीजी स्वयं खड़े हो गये। मंडप में सन्नाटा फ़ैल गया और सभी प्रतिनिधि दिल थामकर उनकी बात सुनने लगे।‘स्वराज्य यह यक़ीनन हमारा ध्येय है। लेकिन उसे हम जल्दबा़जी में हासिल करना नहीं चाहते और हिंसा से तो बिल्कुल ही नहीं’ ऐसा उन्होंने सा़फ़ सा़फ़ कहा। ‘स्वतन्त्रता के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़नेवाली है और उसके लिए इस वक़्त देश तैयार नहीं है, यही मेरा मानना है। देश के लिए मौत को गले लगाने के लिए हालाँकि आप तैयार हैं, लेकिन अब भी वह वक़्त नहीं आया है। यदि प्राणार्पण ही करना हो, तो उसके लिए उचित समय आने दो, जिससे कि तुम्हारा प्राणार्पण व्यर्थ नहीं जायेगा। पहले अपने आत्मबल को बढ़ाइये और उसके बाद ही बलिदान करने के लिए तैयार हो जाइए’ ऐसा उन्होंने प्रतिपादित किया।

अब मतदान की शुरुआत होनेवाली थी। यदि सुभाषबाबू का सुधार मंज़ूर हो गया, तो शायद गाँधीजी काँग्रेस छोड़कर जायेंगे और हो सकता है कि वे सक्रिय राजनीति से हमेशा के लिए निवृत्त हो जायेंगे, यह डर गाँधीसमर्थकों के मन में था और उसे उन्होंने प्रतिनिधियों तक पहुँचाया। उस एक सन्देश ने अपना काम किया और सुभाषबाबू के सुधार को १३५० बनाम ९७८ मतों से नकारा गया।

हालाँकि नेहरू रिपोर्ट उसके मूल स्वरूप में पास हो भी चुकी हो, मग़र तब भी उसके विरोध में ९७८ यह मतसंख्या यक़ीनन ही छोटी नहीं थी। अत एव इस विजय से आनंदित होने के बजाय, उल्टा अहिंसा से दूर जानेवालों के बढ़ते प्रमाण को देखकर गाँधीजी चिन्तित हुए, अन्तर्मुख हुए। साथ ही उन्हें सुभाषबाबू की आवा़ज यह युवामन की आवा़ज प्रतीत हो रही थी और इसीलिए वे उसे अनदेखा भी नहीं कर सकते थे। आज उन्हें बार बार देशबन्धु की याद आ रही थी और ताज्जुब लग रहा था कि इतने वर्षों तक उन्होंने इस आग के गोले के – सुभाषबाबू के ‘गुरु’पद को भला कैसे सँभाला होगा!

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