नेताजी – ८

501341337137283 (1)

तीर्थस्थलों में गुरु की खोज करते समय सुभाष (नेताजी) को हुए वर्गविग्रह के, उच्चनीचता की दीवारों के दर्शन ने उसे भीतर से पूरा हिलाकर रख दिया था। ऐसे धर्म के दलालों में सच्चे गुरु तो मिलने से रहे। धार्मिक सत्ता का ग़ुरूर सिर पर चढ़ा मनुष्य मानवता को भूलता हुआ देखकर उसका मन खिन्न तो हो चुका था, लेकिन फिर भी वह हार मानने के लिए तैयार नहीं था। जिस ऊर्मि के कारण वह घर छोड़कर यहॉं तक आया था, वह ऊर्मि उसे हार मानने से रोक रही थी।

उसी जोश में वह वाराणसी आ पहुँचा। वाराणसी में रामकृष्ण मिशन के मठ में उसने कुछ दिन वास्तव्य किया। वहॉं पर उसे पहले कटक में मिल चुके स्वामी ब्रह्मानन्दजी मिले। उन्होंने सुभाष को पहचान लिया और उसके इस तरह अचानक घर से ग़ायब होने से घर के लोगों को बड़ी चिन्ता हो रही है और मॉं तो बीमार ही पड़ गयी है, ऐसी ख़बर उसे देकर फ़ौरन घर जाने की सलाह दी।

लेकिन सुभाष (नेताजी) का मन हार मानने को तैयार नहीं था। उसके साथ आये हुए बच्चे तो तंग आ चुके थे, दो महीनों की भागदौड़ से उनका सब्र टूट चुका था। उन्होंने घर लौटने का फ़ैसला किया। लेकिन सुभाष ने निश्‍चयपूर्वक ‘ना’ कह दिया। तब तक उसे किसीसे दो-तीन पहाड़ियों के पार रहनेवाले किसी साधु के बारे में पता चला था और एक आख़री प्रयास के तौर पर उसने वहॉं हो आने का तय किया। तीन पहाड़ियों को पार कर जाना है और उसके लिए दो दिन लगातार प्रवास करना पड़ेगा, यह सुनते ही बाक़ी लोग तो मोरचा छोड़कर पीछे हट गये। केवल एक ही मित्र उसके साथ चलने के लिए रा़जी हो गया।

सभी अड़चनें पार कर वे उन साधु तक पहुँच गये। उनके विचारों में सुभाष को फिर विवेकानन्दजी के ही दर्शन हुए। लेकिन उस समय भाये हुए विवेकानन्दजी के विचार आज उन साधु के मुख से सुभाष के सामने आते हुए परमार्थ का व्यवहार के साथ मेल जोड़कर (प्रॅक्टिकली) आ रहे थे।

सुभाष भी विवेकानन्दजी का अभ्यासक है, यह जानने के बाद तो स्वामीजी और भी प्रसन्न होकर उसके साथ खुलकर बातें करने लगे। युवावस्था में विवेकानन्दजी के विचारों से प्रेरित हुए उन साधुमहाराज ने, विवेकानन्दजी के क्रान्तिकारी विचारों का व़जन सहन करने की शक्ति उनमें नहीं थी, यह बड़ी प्रांजलतापूर्वक क़बूल किया। वे बोलते जा रहे थे और उनकी वाणि सुनकर सुभाष मन्त्रमुग्ध-सा हो चुका था। ‘विवेकानन्दजी ने भी शास्त्रों-पुराणों का सखोल अध्ययन किया था, लेकिन उनका सही अर्थ उन्हें विश्‍वभ्रमण करते समय ही ध्यान में आ गया। इंग्लैंड़ के श्रमिकवर्ग की खुशहाल स्थिति और उस समय उन्हीं अँग्रे़जों के राज्य का ही एक हिस्सा होनेवाले भारत की श्रमिक जनता का – खाना न मिलने पर या छोटी-मोटी बीमारियों में ठीक से दवाई न मिलने पर कीड़ों-मकोड़ों की तरह मर जाना, इस विरोधाभास से अँग्रे़जों का स्वार्थी दोमुँहापन विवेकानन्दजी की समझ में आ गया और उसके पश्चात्काल में उन्होंने अपने विचारों द्वारा शोषितों की कैफ़ियत नीडरतापूर्वक दुनिया के सामने प्रस्तुत की और शोषितों को संगठित होने का दिव्य संदेश दिया; लेकिन चालाक़ अँग्रे़जों ने उनके विचार सामान्य जनता तक पहुँच ही न सकें, इस बात की पूरी ख़बरदारी ले ली। सन १८९२ की शिकागो की सर्वधर्मपरिषद के बाद विवेकानन्दजी की श़ख्सीयत ने आन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इस कदर आसमान को छू लिया था कि उनपर कोई कार्रवाई करने की अँग्रे़ज सरकार की हिम्मत नहीं थी, लेकिन उन्होंने पूरी तरह से यह एहतियाती बरती कि स्वामीजी के विचार ज्यादा लोगों तक पहुँच ही न सकें। वास्तविकता का इतना कटु एहसास होने के बाद भी विवेकानन्दजी ने – वास्तविकता का सामना कर समस्याओं के साथ लड़ने का प्रवृत्तिवाद ही प्रतिपादित किया था, उनसे दूर भागने के लिए बदन पर राख पोतकर बन-बन भटकने का निवृत्तिवाद नहीं’ यह बात साधुमहाराज ने सुभाष को अनुरोधपूर्वक बतायी। लेकिन साथ ही, विवेकानन्दजी के विचारों द्वारा सामने आनेवाले कड़वे सच को पचाने की, समस्याओं का सामना करने की हिम्मत मुझमें नहीं थी, केवल इसीलिए सच्चाई से भागकर, बदन पर राख पोतकर मैं यहॉं पर इस जंगल में छिपकर बैठा हूँ, यह भी उन्होंने खेदपूर्वक सुभाष को बताया और ‘तुम ऐसी ग़लती मत कर बैठना और घर जाकर वास्तविकता का सामना करके ही इस परिस्थिति का मुक़ाबला करना’ ऐसा परामर्श उन्होंने सुभाष को दे दिया।

तब सुभाष ने उन्हें यह बताया कि वह गुरु की खोज करने घरबार छोड़कर निकला है। ‘मैं कोई भी कष्ट उठाकर यहॉं रहने के लिए तैयार हूँ, लेकिन ईश्वर मिले बग़ैर मैं यहॉं से नहीं जानेवाला’ ऐसा सुभाष ने उन्हें स्पष्ट रूप से कह दिया। उसपर साधुमहाराज ने उसे प्रेमपूर्वक कहा – ‘ईश्वर कहीं घने जंगलों में नहीं रहते, वे रहते हैं मेहनत करनेवाले श्रमिकों के साथ। भारत की ग़रीब दीनदुखियारी जनता तुम्हें पुकार रही है, सुभाष। उससे मुँह फेरकर जंगल में ईश्वर की खोज करते घूमना, यह भगोड़ापन है। तुम तेजस्वी हो, लेकिन इस तेज को इस तरह जाया न करते हुए उसका सही उपयोग करो, इस देश को संगठित करो।’ इस देश के अनगिनत दीनदुखियारों के आंसू पोछना ही उन ईश्वर की सेवा है, ऐसा ‘संदेश’ उन स्वामीजी ने सुभाष को दिया।

इतने दिनों की दौड़धूप के बाद, मन जिसकी खोज करते हुए अँधेरे में टटोल रहा था, उसे पाने का एहसास आख़िर सुभाष को स्वामीजी से मुलाक़ात करने के बाद हो रहा था। अपने हाथों जो जीवनकार्य होने जानेवाला था, उसका अँदाजा न होने के कारण अँधेरे में ही टटोल रहे अपने इस बालक ‘सुभाष’ तक उन ईश्वर ने ‘किसी मनुष्य के जरिये ही’ प्रकाश को पहुँचाया था। किसी अँधेरे कमरे में अचानक रौशनी फैलने के बाद जैसे होता है, वैसा अनुभव उसका मन कर रहा था। मूलतः श्रद्धावान होनेवाले सुभाष को उसकी सब्र का मीठा फल मिल गया था और उसके नियत जीवनकार्य की दिशा उसके लिए स्पष्ट हो गयी थी। उसकी भारतमाता अब उसे पुकार रही थी।

सुबह अपने मित्र को नींद से जगाकर घर लौटने का अपना फ़ैसला सुभाष ने उसे सुनाया। वह मित्र तो चौंककर उसकी ओर देखते ही रह गया कि एक ही रात में मेरे सोते हुए इसपर यह क्या जादू चल गया। अपनी मॉं अपने घर से चले जाने के कारण बीमार पड़ चुकी है, यह जानते हुए भी जिसने लौटने से इनकार कर दिया था, वही श़ख्स आज अपने आप ही घर लौटने की बात कर रहा है, यह देखकर वह मित्र तो ताज्जुब में पड़ गया। लेकिन सुभाष के मन ने एक बार यदि कुछ ठान लिया हो तो बस्स, फिर वह अन्य किसी की परवाह न करते हुए अपने निश्‍चय को अंजाम दे देता।

Leave a Reply

Your email address will not be published.