नेताजी-२५

netaji-boseसुभाष के दोस्त उसकी इस कामयाबी से काफी  खुश हुए थे और उसके जीवन के भावी पड़ावों के बारे में दिल खोलकर बातें कर रहे थे – ‘अब क्या, सिर्फ प्रोबेशन की कालावधि को पूरा करना, घुड़सवारी जैसीं एकाद-दो परीक्षाओं में पास होना इतना ही बस अब बाक़ी है और घुड़सवारी में तो सुभाष को महारत हासिल है ही। एक बार इन औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद तो सुभाष भारत जाते ही कलेक्टर भी बन जायेगा और धीरे धीरे कामयाबी के शिखर पर झंड़ा गाड़कर किसी प्रान्तिक सरकार का सेक्रेटरी भी बन जायेगा।’ और वे खुश हों भी क्यों नहीं? इतना कम समय मिलने के बावजूद भी उनका प्रिय दोस्त आय.सी.एस. परीक्षा में मह़ज पास ही नहीं हुआ था, बल्कि उसने मेरिट लिस्ट में चौथा नंबर प्राप्त किया था। की हुई पढ़ाई पर्याप्त न लगना, संस्कृत के पेपर में समय कम पड़ जाना आदि रुक़ावटों को पार कर सुभाष के यश का अश्‍व अनिरुद्धतापूर्वक दौड़ रहा था। सतीशदा के घर तो गुलदस्तों, बधाई के सन्देश इनकी मानो बरसात ही हो रही थी।

एक तरफ सुभाष इस नूतन सफलता  का स्वाद चख रहा था, नूतन वास्तव के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहा था; वहीं, दूसरी तरफ पंख लगे हुए मन को जमीन पर ले आने की कोशिश कर रहा था। आय.सी.एस. प्राप्त होने पर लोग ऐसा क्यों सोचते हैं कि सातवें आसमान में ही कदम रख दिया हो, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। दिनभर की इस व्यस्तता से रात को उसे कुछ फुर्सत मिली। बिछाने पर लेटे लेटे इस घटनाक्रम के बारे में उसके दिमाग में विचारचक्र शुरू हो गया और मानसपटल पर उसके भूतकाल का चित्रपट दिखायी देने लगा। कटक में बीता बचपन, रॅव्हेनशॉ स्कूल में प्राप्त हुए बेणीमाधवबाबू के संस्कार, कोलकाता का प्रेसिडेन्सी कॉलेज, ओटन प्रकरण के बाद कुछ समय तक आया हुआ अकेलापन, फिर स्कॉटिश चर्च कॉलेज में नयी उम्मीद के साथ की हुई पढ़ाई की शुरुआत और अपनी ही राख में से उठनेवाले फ़ीनिक्स पंछी की तरह बी.ए. में दूसरे नंबर से पास होना, पिताजी के द्वारा अचानक इंग्लैंड़ में जाकर उच्च शिक्षा तथा आय.सी.एस. उपाधि अर्जित करने का प्रस्ताव, उसे हाँ करने के बाद पल्लवित हो चुकीं पिताजी की आशाआकांक्षाएँ, मुझे आय.सी.एस. करने के लिए भेजने के पीछे पिताजी का सपना और ‘मैं आय.सी.एस. में अवश्य कामयाब हूँगा’ यह पिताजी का मुझपर रहनेवाला भरोसा, इंग्लैंड़ का वास्तव्य और उस वास्तव्य में शिक्षा के लिए पोषक ऐसे वातावरण में एक अनोखी  जिद के साथ की हुई आय.सी.एस. की पढ़ाई, पढ़ाई करते हुए बिस्मार्क, गॅरिबॉल्डी, काव्हूर इनके साथ हुआ परिचय, इंग्लैंड़ में रहनेवाली व्यक्तिस्वतन्त्रता के मुक्त आविष्कार से और फिर भारतीयों के विषय में उस व्यक्तिस्वतन्त्रता को पैरों तले कुचलने की अँग्रे़जो की वृत्ति को देखने से ‘जित’ और ‘जेता’ इनके बीच के कभी भी न बदलनेवाले सम्बन्धों का नये सिरे से हुआ परिचय – उससे प्रगल्भ हो चुकीं राजकीय संवेदनाएँ….और पढ़ाई के लिए इतना कम समय मिलने के बावजूद भी अब प्राप्त हो चुका आय.सी.एस. का यह नतीजा! सब कुछ उसे याद आ रहा था।

….और हाँ, कटक-कोलकाता के शैक्षणिक सफर में स्वामी विवेकानन्दजी के विचारों का हुआ परिचय, श्रमजीवी वर्ग के बारे में जागतिक पटल पर भी सच साबित हो चुकी स्वामीजी की भविष्यवाणी, नवविवेकानंदसमूह द्वारा भारत की पिछडी हुई जनता का पुनरुत्थान करने की तथा ज़ुल्मी अँग्रे़जी हुकूमत की जंजीरों में जकड़ी हुई भारतमाता को मुक्त करने की खायी हुई कसमें….वे भी याद आयीं।
यहाँ पर उसके विचारों की गाड़ी आकर रुक गयी। वह एकदम से चौंक गया।

‘उस समय क्या करना है, वह वक़्त आने पर देखा जायेगा’ यह आय.सी.एस. करने के लिए ‘हाँ’ करते हुए अपने मन में किया हुआ विचार अचानक उसके सामने आ गया और वह पसीना पसीना हो गया। ‘वह वक़्त’ आ चुका था। अब फैसले की घड़ी आ चुकी थी।

‘देशसेवा’ यह एकमात्र ध्येय सुभाष के मन में सूर्यप्रकाश जितना साफ़ था और उसके आड़े आनेवाली हर एक बात को दूर हटाने की उसकी तैयारी थी। लेकिन इतनी दिक्कतों का सामना कर प्राप्त की हुई आय.सी.एस. उपाधि का त्याग करने पर, आज आनन्द के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान पिताजी की ग़ुस्से और उद्वेग की भावना से क्या प्रतिक्रिया होगी, इसका अँदाजा वह नहीं कर पा रहा था। दरअसल यह परीक्षा देनी ही नहीं चाहिए थी और भले ही देनी भी पड़ी हो, लेकिन उसमें यदि मैं पास न हुआ होता, तो कितना अच्छा होता, ऐसा उसे बार बार महसूस हो रहा था। उसे हेमन्त की याद आयी। मुझसे अलविदा कहते हुए, कहीं यह हमें भूला तो नहीं देगा, इस डर से मायूस हुआ उसका चेहरा सुभाष की आँखों के सामने आ गया। मुझसे पहले आय.सी.एस. करने गये और वापस कभी न लौटे सभी की उसे याद आ गयी। नव-विवेकानंद समूह द्वारा की गयी निर्भर्त्सना भी याद आयी।

‘हरग़िज नहीं! सुभाष, अब तो जाग जाओ।’ वह अपने आप से ही कहने लगा, ‘अब भी वक़्त बीता नहीं है। यह सोने का पिंजड़ा है। एक बार इसमें इन्सान फ़स जाये और इससे अपने आप ही मिलनेवाली ऐशोआराम की जिंदगी की लत उसे लग जाये, तब उसमें से बाहर निकलने की उसकी इच्छा ही नष्ट हो जाती है। याद करो, भारतमाता को ग़ुलामी से मुक्त करने की तुमने खायी हुईं क़समें; याद करो, ग़रीबों की बस्तियों में समाजसेवा करते हुए तुम्हारी ओर बड़ी उम्मीद के साथ देखनेवाले दीन-दुखियों के चेहरें! बड़ी शेखी बघार रहे थे ना कि ये सोने की जंजिरें मुझे बाँध नहीं सकतीं। तो तोड़ दो उन्हें….पक्की होने से पहले ही तोड़ दो इन जंजिरों को।’

हर पल उसकी बेचैनी की लहरें उसके मन के किनारे से टकराने लगीं और एक क्षण ऐसा आया कि उन्होंने सारे किनारें तोड़ दिये। सुभाष यक़ायक़ उठकर खड़ा हुआ और उसने ‘नहीं….नहीं चाहिए मुझे आय.सी.एस.’ ऐसा मानो अपने आप से ही ऊँची आवा़ज में दृढ़तापूर्वक कहा। उसकी आवा़ज सुनकर दिलीप दौड़कर आ गया और सुभाष की हालत देखकर डर गया। सुभाष ने उसे अपने ‘आय.सी.एस. से इस्तीफ़ा  देने के और देशसेवा करने के लिए भारत लौटने के’ फैसले के बारे में बताया। दिलीप को लगा कि कहीं यह पगला तो नहीं गया! एक तो उस वर्ष आय.सी.एस. की केवल छः सीट ही भरी जानेवाली हैं, यह ख़बर उसे मिल चुकी थी और सुभाष उनमें से एक था। जिसे प्राप्त करना यह उस समय के लगभग हर एक बुद्धिमान भारतीय छात्र का सपना रहता था, जिसे प्राप्त करने के बाद भारत में राजा जैसा सम्मान दिया जाता था, उस आय.सी.एस. को यह ठुकरा रहा है! वैभव के शिखर तक पहुँचने का निष्कंटक रास्ता सामने दिखायी दे रहा है, मग़र फिर भी यह उसपर कदम तक रखने के लिए तैयार नहीं है, क्या यह नासमझी नहीं है?

दिलीप उसे समझाने की कोशिश करने लगा। यह सुनकर तुम्हारे मातापिता पर क्या बीतेगी, इस बारे में तो कम से कम सोचो, यह दऱख्वास्त करने लगा।

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