नेताजी-२४

netajiआय.सी.एस. की पढ़ाई करने के लिए सुभाष को पहले ही बहुत थोड़ासा समय मिला था। इसलिए छुट्टी के दिनों के अलावा वह सामान्यतः कहीं बाहर जाकर लोगों से नहीं मिलता था। इस आय.सी.एस. की पढ़ाई का और कुल मिलाकर इंग्लैंड़ में किये हुए वास्तव्य का उपयोग सुभाष की ज्ञानसीमाओं का विस्तार होने में अवश्य हुआ। भारत से कुछ अलग रहनेवाला इंग्लैंड़ का सामाजिक माहौल, उद्यमशीलता, ज्ञानार्जन के लिए पोषक रहनेवाला कॉलेज का माहौल, निष्ठापूर्वक पढ़ानेवाले प्राध्यापक, आय.सी.एस. की पढ़ाई के कारण, दुनिया के इतिहास को नया मोड़ देनेवाले गगनस्पर्शी व्यक्तित्वों के जीवनकार्य तथा विचारधाराओं से परिचित होने से सुभाष का अनुभवविश्‍व काफी समृद्ध हो चुका था। निरन्तर अनाज के दाने की खोज में रहनेवाली पिपीलिका (चींटी) की तरह उसे जीवन में प्राप्त हुए प्रत्येक क्षण का उपयोग वह अपने ध्येय की दिशा में कदम उठाने के लिए कर रहा था। आगे चलकर जीवन में समय समय पर महत्त्वपूर्ण निर्णय करने में उसे उसके इस समृद्ध अनुभवविश्‍व का काफी उपयोग हुआ।

इस तरह कॉलेज की पढ़ाई और आय.सी.एस. की पढ़ाई इस द्वि-आयामी पथ पर सफलतापूर्वक  चलने में सात-आठ महीनें कैसे बीत गये, इसका पता ही नहीं चला और परीक्षा का – १९२० का जुलाई महीना आ गया।

सुभाष ने अपनी पूरी क्षमता के साथ पढ़ाई की थी। उसकी अविश्रान्त मेहनत करने की क्षमता को देखकर उसके दोस्त दंग रह जाते थे। पूर्व वर्षों की मॉडेल प्रश्नपत्रिकाओं के उत्तर लिखने का अभ्यास करना और सहपाठियों के साथ ग्रुप डिस्कशन करना, इसपर उसने अधिक जोर दिया था, क्योंकि यह कोई रटी-रटायी पढ़ाई से पास की जानेवाली परीक्षा नहीं थी। इस परीक्षा में पास होनेवाले भारत में सरकारी नौकरी कर वहाँ के प्रशासन को समय समय पर नीति निश्चित करने में सहायभूत होकर कारोबार को भली-भाँति चलायें, यही अपेक्षा उनसे रहती थी। अर्थात् अधिकतर भारतीय छात्रों के मन में इस परीक्षा के प्रति आकर्षण इसलिए हुआ करता था कि इसमें पास हो जानेपर भारत में सर्वत्र मिलनेवाला बहुमान, ऐशोआराम की जिंदगी और बूढ़ापे की फिक्र  न रहे इतना प्राप्त होनेवाला धन और सुभाष को इसी बात से चीढ़ थी। ऐसी द्विधा मनःस्थिति में ही परीक्षा की तिथि क़रीब आ रही थी।

प्रमुख परीक्षा लगभग महीने तक लंदन में होनेवाली थी। सुभाष एक दिन पहले ही लंदन रहने गया। एक तरफ क़ामयाबी का यक़ीन था, वहीं दूसरी तरफ अपेक्षित पढ़ाई न होने के कारण व्यर्थ ही मनोरथ मत करना ऐसा बुद्धि मन को कोस रही थी।
आख़िर ‘वह’ परीक्षा का दिन आ ही गया।

सभी पेपर्स सुभाष के लिए आसान थे। केवल संस्कृत के पेपर में थोड़ीबहुत गडबड़ी हुई। हुआ यूँ कि पेपर तो उसकी दृष्टि से आसान था और कॉलेज में भी उसे संस्कृत में हमेशा शत-प्रतिशत मार्क्स मिलते थे। इंग्लिश-संस्कृत अनुवाद का वह पेपर था। दोनों भाषाओं पर प्रभुत्व होने के कारण उसने बड़े आत्मविश्‍वास के साथ उत्तर लिखना शुरू किया। लेकिन सुव्यवस्थित मुद्दों के साथ उत्तर लिखने के लिए उसने पहले पेन्सिल द्वारा कच्चे मुद्दे लिखना शुरू किया। यह करने में उसका काफी समय खर्च हुआ और उत्तरपत्रिका में पेन द्वारा फ़ाइनल  जवाब लिखते लिखते सम्पूर्ण पेपर के उत्तर लिखने के लिए समय पर्याप्त नहीं रहा। आधा पेपर वैसा ही छोड़कर उसे घर लौटना पड़ा। ख़ैर अब तो पास होना दूर की बात है, ऐसा उसे यक़ीन होने लगा और उसने पिता को ख़त लिखकर यह बता भी दिया कि ‘ऐसा ऐसा होने के कारण अब अधिक अपेक्षा रखना फ़िज़ूल  है’ और उसने शान्ति से बी.ए. (ट्रायपोज्) की पढ़ाई शुरू कर दी। एक तरफ आय.सी.एस. के बोझ से मुक्त होने का एहसास हो रहा था; वहीं दूसरी तरफ, संस्कृत के पेपर में ऐसी मूर्खता भला मैं कैसे कर बैठा, समय का एहसास मुझे क्यों नहीं रहा, इस बारे में उसका मन उसे कोस रहा था। अर्थात् आय.सी.एस. करते हुए किये गये अतिरिक्त वाचन के कारण उसके ज्ञान में काफी वृद्धि हुई थी, विशेषतः आधुनिक युरोप के इतिहास के अध्ययन से वहाँ के बदलते हालात तथा बदलते समीकरणों का जो अनुमान उसके मन में स्थिर हो चुका था, उससे वह सन्तुष्ट था। लेकिन उसके दोस्तों को उसकी सफलता के बारे में पूरा यक़ीन था।

सितम्बर महीना आ गया। आय.सी.एस. के रिझल्ट का महीना। ठीक एक साल पहले सुभाष ने इंग्लैंड़ जाने के लिए बोट पर पहला कदम रखा था। सालभर के घटनाक्रम के बारे में सोचते हुए सुभाष को उसके लंदन के ही एक दोस्त द्वारा भेजा गया टेलिग्राम मिला। सुभाष का अभिनन्दन कर, ‘कल के ‘मॉर्निंग पोस्ट’ इस अख़बार को पढ़ना’ यह भी उसमें लिखा था। उस अख़बार में भला क्या होगा? सुभाष सोच रहा था। लेकिन काफी सोचने के बाद भी जब वह उसका अँदाजा नहीं लगा पाया, तब ‘जो भी होगा, कल का कल देखेंगे’ यह कहकर वह आराम से सो गया।

दूसरे दिन सड़क पर उतरकर उसने ‘मॉर्निंग पोस्ट’ ख़रीदा और पढ़ा, तो उसमें आय.सी.एस. का रिझल्ट घोषित हो चुका था।

रिझल्ट देखा तो क्या; सुभाष को अपनी आँखों पर यक़ीन ही नहीं हो रहा था। सुभाष आय.सी.एस. की परीक्षा चौथे नंबर से पास हुआ था!
हालाँकि संस्कृत में उसे कम मार्क्स मिले थे, मग़र तत्त्वज्ञान, अँग्रे़जी, अर्थशास्त्र, इतिहास आदि बाक़ी के सभी विषयों में वह अव्वल था। ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्रखर बुद्धिमत्ता को, गत सात-आठ महीनों से दिनरात खून-पसीना एक कर की गयी मेहनत का जो साथ मिला था, उसीका यह नती़जा था।

फ़ौरन  तैयार होकर सुभाष सतीशदा के घर गया। वहाँ देखा, तो उसके दोस्त वगैरा पहले ही वहाँ पर इकट्ठा हो चुके थे और सुभाष का शानदार स्वागत करने की तैयारियों में जुट गये थे। भारत में पहले ही इस विषय में टेलिग्राम किया गया था। दिनभर में और उसके बाद भी पुष्पगुच्छ, अभिनंदनपर संदेश इनकी बौछार हो रही थी। उसे रह रहकर अपने माता-पिता की और उसके मेजदा-सतीशबाबू की याद आ रही थी। कोलकाता के घर में दिवाली मनायी जा रही होगी और वहाँ तो हर्षोल्लास का माहौल होगा। कटक में पिताजी को बधाई देने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी होगी।

पिताजी द्वारा मुझपर किये गये भरोसे को मैंने व्यर्थ नहीं होने दिया, इसका सन्तोष सुभाष को था।

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