नेताजी-११२

सिर्फ़ अपने बलबूते पर ही त्रिपुरी अधिवेशन के अध्यक्षीय चुनाव जीतने पर भी ऐन मौ़के पर गंभीर बीमारी से शक्तिहीन हो चुके सुभाषबाबू, अधिवेशन का पहला दिन शिविर में विश्राम करने में व्यतीत करने के बाद दूसरे दिन किसी की भी न सुनते हुए ज़िद से अधिवेशनमंडप में दाखिल हुए। कुर्सी पर बैठने जितनी ताकत के भी न होने पर उनके लिए मंच पर विशेष रुग्णशय्या का प्रबन्ध किया गया था। कामकाज की शुरुआत करने से पहले सुभाषबाबू ने बुज़ुर्ग नेताओं को ध्वनिक्षेपक पर से घोषणा करके सम्मानपूर्वक मंच पर बुलाया। उस दिन विभिन्न प्रस्तावों का प्रतिनिधियों द्वारा स्वीकृत किया जाना था। एक के बाद एक प्रस्ताव प्रस्तुत किये जाने के बाद पारित हो रहे थे।

नियोजित सभी प्रस्ताव प्रस्तुत हो चुके थे। अब दिन का कामक़ाज सम्पन्न होने ही वाला था कि अचानक उत्तरी प्रान्त के नेता पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्तजी जल्दी में कागज़ों की एक गड्डी लेकर मंच पर आ गये और वे कागज़ सुभाषबाबू को दिखाते हुए, एक प्रस्ताव प्रस्तुत करने की अनुमति उनसे माँगी। उस प्रस्ताव के साथ ही उसे समर्थन देनेवाले १६० प्रतिनिधियों के दस्तख़त रहनेवाला कागज़ भी जोड़ा हुआ था। सुभाषबाबू ने ‘उस’ प्रस्ताव को पढ़ा और वे हैरान रह गये…. उतने ही मायूस भी हो गये। लेकिन विचलित न होते हुए उन्होंने उस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने की अनुमति पण्डित पन्तजी को दे दी। वह प्रस्ताव कुछ इस कदर था –

‘इस प्रस्ताव के द्वारा हम पिछले वर्ष की कार्यकारिणी पर ही अपना विश्‍वास ज़ाहिर कर रहे हैं। साथ ही इस प्रस्ताव के द्वारा हम गाँधीजी के नेतृत्व पर भरोसा व्यक्त कर रहे हैं और नयी कार्यकारिणी की रचना भी गाँधीजी की ही इच्छा से और उनके ही कहेनुसार हो, यह हम इस प्रस्ताव के द्वारा घोषित कर रहे हैं।’

गंभीर बीमारी

इस प्रस्ताव के पढ़े जाने पर अधिवेशनमण्डप में एक ही कुहराम मच गया। दोनों तरफ़ से ज़ोरदार नारेबाज़ी शुरू हुई। एक-दूसरे पर इलज़ामों की बौछार शुरू हो गयी। कोई सामनेवाले की सुनने की मनस्थिति में नहीं था। इस प्रस्ताव को बहुसंख्यों का समर्थन रहने का दावा करते हुए, उसे दाख़िल किया जाना ही चाहिए ऐसी ज़िद सुभाषविरोधक पकड़े हुए थे। वहीं, इस प्रस्ताव के पारित होने पर अध्यक्ष के तौर पर सुभाषबाबू को रहनेवाली आज़ादी छीन ली जायेगी और अध्यक्ष महज़ एक कठपुतली बनकर रह जायेंगे, यह आशंका जताते हुए, यह प्रस्ताव जनतन्त्र की आवाज़ बन्द कर देनेवाला तथा काँग्रेस की घटना के कुछ कलमों को पैरोंतले कुचल देनेवाला होने का दावा करते हुए सुभाषसमर्थक उसका विरोध कर रहे थे। आधे घण्टे तक कामक़ाज के स्थगित होने पर भी यह कुहराम शान्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था। औरों की बात ही छोड़िए, सन्तप्त लोगों ने जवाहरलालजी तक को बोलने नहीं दिया। आधे-पौने घण्टे तक बात करने के नाक़ाम प्रयास करने के बाद जवाहरलालजी ग़ुस्से से नीचे बैठ गये। बढ़ते हुए विरोध को देखते हुए, यह प्रस्ताव खुले अधिवेशन में प्रस्तुत न करते हुए विषयनियामक समिती की बैठक में उसपर चर्चा की जाये, ऐसा रुख़ सुभाषविरोधकों ने अपनाया। सुभाषविरोधकों की ‘प्रस्ताव को पिछले दरवाज़े से अन्दर घुसाने की’ (‘बॅकडोअर एन्ट्री’) चाल से सुभाषसमर्थक और भी ग़ुस्सा हो गये। वैसे देखा जाये, तो अवधि खत्म हो जाने के बाद यह प्रस्ताव आया हुआ होने के कारण ‘टेक्निकली’ अवैध ही था, अतः सुभाषबाबू अपने अध्यक्षीय अधिकारों का इस्तेमाल करके इस प्रस्ताव को दाखिल होने से आसानी से रोक सकते थे। साथ ही, कुल मिलाकर वह प्रस्ताव ही काँग्रेस की घटना में रहनेवाले कई जनतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा करनेवाले कलमों के (‘काँग्रेस के सदस्य ही उनमें से एक को अध्यक्ष चुनेंगे और फिर नवनिर्वाचित अध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी चुनेंगे’ इस जैसे कलमों के) विपरित रहने के कारण इस मुद्दे पर भी सुभाषबाबू उस प्रस्ताव को दाखिल होने से बाक़ायदा रोक सकते थे। लेकिन फिर भी उन्होंने ऐसा नहीं किया।

‘मैं पक्का जनतन्त्रवादी रहने के कारण सुदृढ़ जनतन्त्र की स्थापना होने की दृष्टि से विरोधकों के मतों की भी इ़ज़्ज़त करता हूँ, अत एव महज़ ‘टेक्निकल’ मुद्दों पर इस प्रस्ताव को ख़ारिज करना मुझे रास नहीं आया। दूसरी बात यह है कि यह प्रस्ताव मेरे ही ख़िलाफ़ होने के कारण उसे ‘टेक्निकल’ मुद्दों पर दाख़िल न कराना, इसमें मुझे क़ायरता महसूस हुई’ ऐसा उन्होंने बाद में गाँधीजी को लिखे हुए ख़त में लिखा था।

सामनेवाला मेरे ख़िलाफ़ मत प्रदर्शित करनेवाला है, यह जानते हुए भी, उसके उस मत को प्रदर्शित करने के अधिकार की इ़ज़्ज़त करनेवाले सुभाषबाबू जैसे नेता शायद ही कोई हों और उनकी इस शराफ़त का फ़ायदा ही उस प्रस्ताव को प्रस्तुत करते समय उठाया गया।

सुभाषबाबू की इस ‘उदारता’ के कारण सुभाषसमर्थक भी उनसे नाराज़ हो गये। बिना किसी भी पूर्वसूचना के प्रस्तुत किये गये इस प्रस्ताव को ‘टेक्निकली’ अवैध क़रार दिया जा सकता है और उस प्रस्ताव के मुद्दे भी काँग्रेस की घटना के विपरित होनेवाले रहने के कारण उसे ख़ारिज कर देने में कोई आपत्ति नहीं है; दरअसल ऐसा ‘ज़हरीला’ प्रस्ताव ख़ारिज कर देना ही बेहतर है, ऐसी आग्रही भूमिका बॅ. नरिमन, एम. एन. रॉय, शार्दूलसिंग कवीश्‍वर, बापूजी अणे इन जैसे सुभाषसमर्थकों ने ली थी। इसके बावजूद भी जनतन्त्र के मूल्य और सुविधाओं का अपने अपने हिसाब से मनचाहा इस्तेमाल करने के ख़िलाफ़ रहनेवाले सुभाषबाबू ने उस प्रस्ताव को दाख़िल करा लेने का फ़ैसला किया। इस प्रस्ताव को दाख़िल करके सुभाषबाबू अपना राजकीय करिअर ही दाँव पर लगा रहे हैं, ऐसा ही बहुतांश सुभाषसमर्थकों का कहना था। लेकिन सदस्यों की ‘सदसद्विवेकबुद्धि’ पर भरोसा रहनेवाले सुभाषबाबू ने इस जंग को, जंग के उसूलों के अनुसार खेलने का तय किया। लेफ्टिस्ट, क्रान्तिकारी तथा सोश्यालिस्ट गुटों के सदस्यों पर ही वे भरोसा रखे हुए थे। लेकिन वह भरोसा फल देगा की नहीं, इसका फ़ैसला समय ही करनेवाला था। सुभाषबाबू की लड़ाई तो केवल सुभाषविरोधकों के साथ नहीं थी, बल्कि समय के साथ ही थी, क्योंकि जिस प्रकार उन्हें ऐन मौ़के पर बीमार पड़ बिस्तर पर लेटना पड़ा था, उससे यह साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि समय बिलकुल ही उनके पक्ष में नहीं है।

आख़िर उस चल रहे कुहराम में ही, यह प्रस्ताव दूसरे दिन खुले अधिवेशन में प्रस्तुत करने का निर्णय लिया गया और उस दिन का कामक़ाज सम्पन्न हुआ। अब लड़ाई आख़िरी पड़ाव पर आ पहुँची थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.