नेताजी-५६

गव्हर्नर के अधिकृत डॉक्टर का समावेश रहनेवाले पॅनेल ने गव्हर्नर की ख़ास बोट पर सुभाषबाबू की बारीक़ी से वैद्यकीय जाँच की और उसके बाद अपनी रिपोर्ट, उस समय दार्जिलिंग गये हुए गव्हर्नर को टेलिग्राम से भेज दी। सुभाषबाबू को वह दिन गव्हर्नर की बोट पर ही बिताना पड़ा।

दूसरे दिन सुबह संबंधित पुलीस अधिकारी हाथ में एक टेलिग्राम लेकर सुभाषबाबू के पास आया और सुभाषबाबू को रिहा किया जा रहा है, ऐसा कहकर उस बात की अधिकृत ऑर्डर सुभाषबाबू को सौंप दी।

Netajisubhash- वैद्यकीय जाँच

मेडिकल पॅनेल की रिपोर्ट से काम हो गया था। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि सुभाषबाबू की तबियत काफी नाज़ूक हो चुकी है और ऐसी स्थिति में सुभाषबाबू को जेल में रखना ख़तरे से खाली नहीं है। इसलिए उन्हें जल्द से जल्द ट्रीटमेंट की और आराम की स़ख्त जरूरत है।

परिस्थिति ने अचानक लिये हुए इस मोड़ को अपनी क़ामयाबी मानकर न ऐंठते हुए सुभाषबाबू ने ठण्डे दिमाग से उस पूरी ऑर्डर को अच्छी तरह से पढ़ा। उसपर तारीख थी, ११ मई १९२६ औैर वह दिन था, १६ मई का। यानि कि उन्हें रिहा करने की ऑर्डर यदि पाँच दिन पहले ही निकाली गयी थी, तो फिर  कल मेडिकल जाँच की नौटंकी भला क्यों की गयी? सुभाषबाबू ने उस पुलीस अफसर को जोर देकर पूछने पर उसने एक एक करते हुए सारी हकीक़त बतायी। सुभाषबाबू पर हो सकनेवालीं संभाव्य कार्रवाई के तीन ऑडर्स पर गव्हर्नर ने एक ही समय दस्तख़त किये थे – एक थी उन्हें स्वित्झर्लंड भेजने की, दूसरी उन्हें अल्मोडा जेल भेजने की और यह तीसरी थी उन्हें रिहा करने की। लेकिन मेडिकल पॅनल के रिपोर्ट के बाद ही अंतिम निर्णय लिया जायेगा ऐसी सूचनाएँ पुलीस अधिकारियों को दी गयी थीं। उस रिपोर्ट के बाद ही इस रिहाई की ऑर्डर को वैध मानने का टेलिग्राम पुलीस अफसर को मिला था। साथ ही, सुभाषबाबू को एक और हकीक़त का पता चल गया कि मेडिकल पॅनल जब उनकी रिपोर्ट बना रहा था, तब वह रिपोर्ट कुछ इस तरह बनायी जाये, जिससे कि उनकी रिहाई न हो सके और उन्हें स्वित्झर्लंड या अल्मोड़ा भेजा जाये। संक्षेप में, उनकी तबियत कुछ ख़ास बिगड़ी नहीं है ऐसा डॉक्टर उस रिपोर्ट में लिखें इसके लिए पुलीस कमिशनर टेगार्ट ने काफी कोशिशें की थी। लेकिन पूर्व प्रतिशोधपरस्त गव्हर्नर लिटन के स्थान पर बदलकर आये हुए नये गव्हर्नर स्टॅनले जॅक्सन समझदार आदमी थे। सुभाषबाबू की गिऱफ़्तारी को लेकर और कुल मिलाकर टेगार्ट की पुलिसी कार्यपद्धति के कारण धधकते हुए जनक्षोभ का उन्हें एहसास था। लिटन के गव्हर्नर रहते हुए उनका दाहिना हाथ ही माने जानेवाले टेगार्ट पर तब किसी का अंकुश नहीं रहा था। नये गव्हर्नर ने आते ही कुछ ही दिनों में उसके पर काट दिये थे। टेगार्ट के विषय में निर्माण हुए जनक्षोभ में कई बार गव्हर्नर ने जनता का पक्ष लिया था। इसी कारण उन्होंने सुभाषबाबू के स्वास्थ्य के बारे में निःपक्षपाती रिपोर्ट देने के लिए मेडिकल पॅनल को अभय दिया था। साथ ही, सुभाषबाबू के सौभाग्य से मेडिकल पॅनल ने भी अपने मेडिकल के पेशे के साथ ईमानदारी निभाकर सुभाषबाबू के स्वास्थ्य की सत्यपरिस्थिति गव्हर्नर तक पहुँचायी और फिर  गव्हर्नर ने सुभाषबाबू की रिहाई के आदेश दिये।

आख़िर इतनी सारी उधेड़बून के बाद सुभाषबाबू को रिहा करके उनके रिश्तेदारों को सौंपा गया।

लगभग ढाई साल की निर्वासितता के बाद सुभाषबाबू मातृभूमि लौटे थे, लेकिन किस हालत में? गंभीर बीमारी के कारण बहुत ही दुर्बल हो चुके उनके शरीर में चार कदम चलने तक की भी ताकत नहीं थी। बदहजमी, टी.बी. जैसे शत्रुओं ने शरीर पर कब़्जा किया था। उन्हें खाँसी आती थी, सीने में बार बार दर्द होता था। अधिकांश समय तो वे ग्लानि में ही रहते थे। उन्हें लेने आये शरदबाबू को उनकी यह पर काटे हुए पंछी जैसी हालत देखकर गहरा सदमा पहुँचा और वे रोने लगे। लेकिन उस शक्तिहीन स्थिति में भी सुभाषबाबू का मनोबल तथा वज्रनिग्रह पहले की तरह ही क़ायम था। बल्कि वह अब और भी बढ़ गया था। अन्याय के खिलाफ रहनेवाला उनका क्रोध भी उतना ही तीव्र था।

अब इसके आगे क्या?

कुछ नहीं – बस् मजबूरन् आराम। सुभाषबाबू के घरवालों को तो यह इष्टापत्ति ही महसूस हुई। इंग्लैंड़ से लौटने के बाद घरवालों को उनके साथ आराम से समय बिताने का मौक़ा ही नहीं मिला था। मंडाले जाने से पहले व्यस्त दिनचर्या के कारण वे केवल खाने और सोने के लिए रात को ही घर आते थे, फिर फुरसत में बात करना तो दूर की बात है। आगे चलकर जब चुनावों का दौर आया और उनके दौरे शुरू हुए, तब कभी कभी चार-पाँच दिन तक भी वे घर नहीं जा पाते थे। इसलिए अब काफी सालों बाद घर लौटे सुभाषबाबू का घरवालों की प्यार भरी निगरानी में पूरे आराम का समय शुरू हुआ। उनसे असीम प्रेम करनेवाले उनके मातापिता ने अब उनकी देखभाल करना शुरू किया। नवजात शिशु की जिस आत्मीयता और सावधानी से देखभाल की जाती है, उसी प्रकार उनके माता-पिता ने दिनरात एक करके उनकी देखभाल की। कभी कभी वासंतीमाँ भी उनकी मदद करने आ जाती थी। उन्हें देखते ही सुभाषबाबू को देशबन्धु की याद आकर रोना आता था। ऐसे समय वे ही सुभाषबाबू का सहारा बनती थीं और उन्हें प्रेमपूर्वक समझाती थीं कि ‘बेटे, तुम्हारे गुरु की इच्छा पूरी करने के लिए तुम्हें जीना होगा। भारतमाता के लिए तुम्हें फिर  से एक बार उठकर अँग्रे़ज सरकार के खिलाफखड़ा रहना होगा। यही तुम्हारी तुम्हारे गुरु को सच्ची श्रद्धांजली होगी।’

महीनेभर के लिए अपरिहार्य आराम करने के बाद सुभाषबाबू की हालत में अब काफी सुधार हो गया। उनकी तबियत पहले जैसी होने के लिए उन्हें डॉक्टरों ने हवाबदली करने की सलाह दी। उसके अनुसार घरवालों ने उन्हें शिलाँग के केल्सॉल आरोग्यधाम में भर्ती किया। वहाँ की आबोहवा से उनकी तबियत आहिस्ता आहिस्ता सुधरने लगी। टीबी की बीमारी भी नष्ट हो गयी। सीने का दर्द कम हो गया। अब उन्हें भूख भी लगने लगी। नियमित अन्नग्रहण के कारण उनका घटा हुआ व़जन अब बढ़ने लगा। अब वे थोड़ा चल फिर  सकते थे।

उन सुभाषसूर्य को लगा हुआ ग्रहण अब समाप्त हो चुका था।

Leave a Reply

Your email address will not be published.