नेताजी- ६९

जतीन दासजी के शहीद होने से सुभाषबाबू के मन पर गहरा ज़ख्म हुआ। लेकिन भला समय किसके लिए रुका है? एक-एक दिन के पदन्यास से आगे बढ़ते हुए १९२९ का काँग्रेस का लाहोर अधिवेशन क़रीब आ रहा था।

वैसे तो अधिवेशन था दिसम्बर में, लेकिन सुभाषबाबू का़फ़ी व्यस्त थे। उन्हें एक अलग ही मोरचे पर लड़ना पड़ रहा था – अन्तर्गत शत्रुओं के साथ। बंगाल प्रांतीय काँग्रेस के अध्यक्षपद के चुनाव ऩजदीक आ रहे थे। दो वर्ष पहले सुभाषबाबू के मण्डाले से रिहा होकर आने के बाद जब बंगाल प्रान्तीय काँग्रेस के सदस्यों ने सेनगुप्ताजी को इस्ती़फ़ा देने पर मजबूर करके सुभाषबाबू का अध्यक्षपद के लिए चयन किया था, तबसे अपमान की भावना सेनगुप्ताजी को चुभ रही थी। किसी न किसी तरह अपना पुराना हिसाब चुकता करने का अवसर वे ढूँढ़ ही लेते थे। उसके बाद हुए कोलकाता मेयर पद के चुनाव में महानगरपालिका में काँग्रेस का बहुमत होते हुए भी सुभाषबाबू को प्रागतिक पक्ष के उम्मीदवार के सामने हार का सामना करना पड़ा, वह इस अन्तर्गत मनमुटाव के कारण ही। इस बार तो सेनगुप्ताजी ही अध्यक्षपद के चुनाव में ठेंठ सुभाषबाबू के खिला़फ़ मैदान में उतरे थे। चुनाव का़फ़ी कड़ी टक्कर का रहा। कौन जीतेगा, वह आखरी पल तक समझ में नहीं आ रहा था। आख़िर सुभाषबाबू ही जीत गये। लेकिन सेनगुप्ताजी को वह फ़ैसला मंज़ूर नहीं था और इसी मुद्दे पर बंगाल काँग्रेस का विभाजन हुआ। दोनों गुट, हमारा दल ही दरअसल काँग्रेस का अधिकृत दल है, यह दावा करने लगे। लाहोर अधिवेशन में भी दोनों दलों ने स्वतन्त्र रूप में हिस्सा लिया – बंगाल प्रान्तीय काँग्रेस (सु) और बंगाल प्रान्तीय काँग्रेस (से) इन दो भिन्न झंड़ों को कन्धों पर लेकर!

‘उननिवेशीय स्वराज्य’ के बारे में निश्चित घोषणा करने के लिए सरकार को दी हुई मोहलत खत्म होने आ रही थी। लेकिन लाहोर अधिवेशन के एक ह़फ़्ते पहले एक विपरित घटना हुई। व्हाईसरॉय और उनके परिजन दक्षिणी भारत के दौरे पर से दिल्ली लौट रहे थे, तब उनकी रेलगाड़ी के नीचे क्रान्तिकारी देशभक्त चंद्रशेखर आझादजी ने बारुदी विस्फ़ोट कराया। लेकिन व्हाईसरॉय की बोगी आगे जाने के बाद विस्फ़ोट होने के कारण व्हाईसरॉय बाल बाल बच गये। लेकिन अब इस पार्श्‍वभूमि पर सरकार द्वारा किसी भी अनुकूल घोषणा का किया जाना नामुमक़िन था।

अधिवेशन के लिए रावी नदी के तट पर दो सौ एकर की जमीन पर ‘लाला लजपतराय नगर’ बसाया गया था। अधिवेशन का मुख्य मण्डप, विभिन्न नेताओं के ठहरने के लिए टेन्ट्स और शिबिर इस तरह का भारी-भरकम इन्त़जाम किया गया था। दस वर्ष पूर्व जालियनवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद अमृतसर में अधिवेशन हुआ था। उसके बाद दस सालों बाद पंजाब प्रान्त में अधिवेशन हो रहा था। उसमें भी भगतसिंग मामले के कारण माहौल का़फ़ी जोशभरा था। पंजाब में तो, लाला लजपतरायजी के साथ सन १९०९ में तड़ीपारी की स़जा भुगत रहे सरदार अजितसिंगजी के भतीजे रहने के कारण पहले से ही भगतसिंगजी के बारे में आत्मीयता की भावना थी। उसमें भी ज़ुल्मी अँग्रे़जी हुकूमत को ललकारकर उसकी नींव हिला देनेवाले सच्चे देशभक्त के रूप में उनकी जनप्रियता देशभर में शिखर पर पहुँच चुकी थी। इस मामले में अब काँग्रेस क्या रवैया अपनाती है, इसके बारे में लोगों में का़फ़ी उत्सुकता थी।

देश भर में से धीरे धीरे प्रतिनिधियों का आना शुरू हो गया था। आनेवाले प्रतिनिधि लालाजी को श्रद्धान्जली अर्पण कर सकें, इसलिए लालाजी के विशाल तैलचित्र को प्रांगण में रखा गया था। सारा माहौल प्रखर पंजाबी देशभक्ति से महक रहा था।

बड़े बड़े नेता आने लगे। उनके अपने समर्थक उनके टेन्ट्स में चर्चा-बैठक आदि के लिए इकट्ठा होने लगे। ज़ाहिर है, युवा कार्यकर्ताओं की भीड़ से सुभाषबाबू घिरे हुए थे। पंजाब के डॉ. किचलू, मुंबई के बॅ. नरिमन, उत्तर प्रान्त के गणेश शंकर विद्यार्थी ऐसे एक-एक नेता उनसे मिलकर विचारविमर्श कर रहे थे। भगतसिंगजी का सम्मानस्थान तथा अँग्रे़ज सरकार के खिला़फ़ रहनेवाले अपने मन के असन्तोष को काँग्रेस के व्यासपीठ पर से निर्भयतापूर्वक प्रस्तुत करनेवाले नेता के रूप में सुभाषबाबू के लिए पंजाबी युवामन में सम्मान का स्थान पहले से ही था। गत वर्ष के कोलकाता युवक काँग्रेस के अधिवेशन में सुभाषबाबू ने किया हुआ ज्वलज्जहाल भाषण लगभग सभी के मन में तर्रोता़जा था। लेकिन इस वर्ष हालाँकि कल से अधिवेशन शुरू हो रहा है, मग़र तब भी इस साल युवक काँग्रेस अधिवेशन के आसार ऩजर न आने के कारण युवा गुट में बेचैनी बढ़ने लगी। इस बारे में सुभाषबाबू ने जवाहरलालजी से पूछने के बाद, ‘अखिल भारतीय काँग्रेस का ही अध्यक्षपद एक युवक के पास सौपने के बाद अब अलग से युवक काँग्रेस अधिवेशन की जरूरत ही क्या है?’ यह युक्तिवाद जवाहरलालजी के साथ रहनेवाले बुज़ुर्ग काँग्रेस नेताओं ने किया।

३१ दिसम्बर १९२९ इस अधिवेशन के दिन लाला लजपतरायजी के तैलचित्र के सामने उन्हें आदरांजली अर्पण करके गाँधीजी बोलने के लिए खड़े हो गये। गाँधीजी ने पिछले कोलकाता अधिवेशन में अँग्रे़ज सरकार को दी हुई एक साल की मोहलत अब समाप्त हो चुकी थी। उपनिवेशीय स्वराज्य का पुरस्कार करनेवाली ‘नेहरू रिपोर्ट’ को ज्यों का त्यों स्वीकार करने का आग्रह करनेवाला गाँधीजी का गत वर्ष का भाषण और उसमें से ‘उपनिवेशीय स्वराज्य’ इन शब्दों पर ऐतरा़ज जताकर उसके बदले ‘सम्पूर्ण स्वतन्त्रता’ यह सुभाषबाबू द्वारा सूचित सुधार सभी को ज्ञात था। इसीलिए अब गाँधीजी क्या कहते हैं, इस जिज्ञासा से सर्वत्र सन्नाटा फ़ैल गया था।

गाँधीजी ने सबसे पहले व्हाईसरॉय आयर्विन पर हुए हिंसक हमले का निषेध करनेवाला प्रस्ताव प्रस्तुत किया। ‘फ़टनेवाला हर एक बम स्वराज्य से हमारा फ़ासला बढ़ा रहा है’ यह निग्रहपूर्वक प्रतिपादित करते हुए गाँधीजी ने ‘अहिंसात्मक मार्ग पर चलकर मिलनेवाला स्वराज्य ही चिरकालीन होगा’ यह सा़फ़ सा़फ़ कहा। लेकिन कइयों को, ख़ास कर युवावर्ग को गाँधीजी का जतीन दासजी और भगतसिंगजी जैसे देशभक्तों के बारे में चुप्पी साधना, उल्टा ज़ुल्मी अँग्रे़जी हुकूमत का प्रतिनिधि रहनेवाले व्हाईसरॉय पर उस ज़ुल्म के प्रतिसाद के रूप में हुए हमले का निषेध करना रास नहीं आया। हालाँकि इसके पीछे गाँधीजी की कुछ निश्चित रणनीति थी, लेकिन धधकते अँगारभरे मनों को भला इस बात का एहसास कैसे हो सकता था? यह प्रस्ताव हालाँकि ९४२ बनाम ७९४ मतों से पारित तो हुआ, लेकिन अहिंसा को विरोध करनेवालों की बढ़ती हुई संख्या को देखकर गाँधीजी दुखी हो गये।

प्रस्ताव पारित होने के बाद गाँधीजी फ़िर एक बार भाषण करने खड़े हो गये।

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