नेताजी-५४

दासबाबू के निधन के कारण सुभाषबाबू के जीवन में, जिसे कभी भी भरा नहीं जा सकता ऐसा अवकाश उत्पन्न हुआ और निराशा ने उन्हें घेर लिया। दासबाबू के अन्तिम समय में मैं उनके साथ नहीं था, इस बात की और मुख्य रूप से माँ – वासंतीदेवी पर हुए इस वज्राघात के वक़्त उन्हें सहारा देने के लिए मैं उनके साथ नहीं था, इसकी चुभन उन्हें सता रही थी। ऐसी विषादावस्था में कुछ दिन बीत गये।

subhas_babuअक्तूबर का महीना आया। सुभाषबाबू को कोलकाता में प्रतिवर्ष मनायी जा रही दुर्गापूजा की याद बार बार आने लगी। उन्होंने जेल सुपरिन्टेन्डन्ट फिंडले से जेल में दुर्गापूजा उत्सव मनाने के लिए अनुमति देने की गु़जारिश की। वैसे तो ईसाई कैदियों को जेल में ख्रिसमस मनाने की अनुमति पहले ही मिल चुकी थी और उसका खर्चा भी सरकार की तरफ़ से दिया जाता था। इसीलिए सुभाषबाबू ने भी इस दुर्गापूजा की अनुमति प्राप्त करने के विषय को छेड़ा था। फिंडले ने उसे इस बात से ह़र्ज नहीं है, यह कहकर फ़िलहाल कैदियों के खर्च से ही दुर्गापूजा का उत्सव मनाने की तैयारी करने के लिए कहा; लेकिन आख़िरी फैसला तो सरकार की मंज़ुरी मिलने के बाद ही होगा, यह भी कहा। ब्रह्मदेश सरकार ने इस गेंद को बंगाल सरकार के कोर्ट में डाल दिया। बंगाल सरकार ने स्वाभाविक तौर पर मंज़ुरी देने से इन्कार कर दिया; साथ ही सरकार से अनुमति लिये बिना ही कैदियों को पूजा की तैयारी करने के लिये कहने का इल़जाम फिंडले पर लगाया। मंज़ुरी न मिलने के कारण सुभाषबाबू और उनके साथी कैदियों ने सत्याग्रह के शस्त्र का प्रयोग कर १५ फरवरी १९२६ से अन्नत्याग करते हुए आमरण अनशन शुरू कर दिया।

अनशन की यह ख़बर जनता तक न पहुँचे, इसके लिए सरकार ने लाख कोशिशें कीं, यहाँ तक कि कैदियों के ख़त भेजने पर भी पाबन्दी लगायी। मग़र न जाने कैसे, तीन-चार दिन के बाद ‘फॉरवर्ड’ में यह ख़बर छपकर आयी। इसी दौरान ‘फॉरवर्ड’ ने, भारत की जेलों में सुधार लाने की दृष्टि से छानबीन करने वाली पूर्वनियुक्त ‘इंडियन जेल कमिटी’ की १९२१ की एक रिपोर्ट भी छापी थी। उसमें जेलखाते के वरिष्ठ अधिकारी ले. कर्नल मुलवानी की इस कमिटी के सामने दी हुई गवाही भी छपी थी; जिसमें मुलवानी ने, अपने वरिष्ठ अफ़सर  – बंगाल के जेल महानिरीक्षक ने, अपनी जेल के कुछ कैदियों के बिग़ड़ते हुए स्वास्थ्यसंबंधित रिपोर्ट को बदलने पर मजबूर करके झूठी रिपोर्ट लिखने की सूचना दी थी, यह कमिटी के सामने कहा था।

‘फॉरवर्ड’ में सुभाषबाबू के आमरण अनशन की यह ख़बर और जेल कमिटी की यह रिपोर्ट प्रकाशित होते ही देशभर में तहलका मच गया। फ़ौरन स्वराज्य पक्ष के सदस्य श्री. टी.सी.गोस्वामीजी ने केंद्रीय असेंब्ली में सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया और स्थगन प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया। वैसे तो सुभाषबाबू की रिहाई के लिए बंगाल और देशभर में से विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न मार्गों से कोशिशें चल ही रही थीं। उसीमें यह घटना सामने आयी और सरकार की मुश्किलें बढ़ने के आसार ऩजर आने लगे।

यहाँ पर सुभाषबाबू का अनशन तो जारी ही था और उनकी तबियत का़फ़ी बिग़ड़ गयी थी। बंगाल सरकार से सलाह-मशवरा करके इस बात पर निर्णय लिया जायेगा, ऐसा कहकर केन्द्र सरकार ने अब इस गेंद को बंगाल सरकार के कोर्ट में डाल दिया। बंगाल सरकार ने भी तुरन्त ही जाहिर कर दिया कि वे दुर्गापूजा में आनेवाले खर्च के लिए अनुमति दे रही है।

आख़िरकार सरकार ‘सत्याग्रह’ के सामने झुक गयी थी। सुभाषबाबू ने उनका पंद्रह दिन का अनशन समाप्त कर दिया। लेकिन कड़ा बन्दोबस्त होने के बावजूद भी सुभाषबाबू के अनशन की यह ख़बर ‘फॉरवर्ड’ तक कैसे पहुँची, इस बात का पता लगाने के लिए सरकार ने बहुत कोशिशें की, लेकिन उनके हाथ कुछ भी सुराग नहीं लगे।

दिन कुछ इस प्रकार बीत रहे थे। जेल की अनारोग्यपूर्ण ‘सुविधाओं’ के कारण सुभाषबाबू का स्वास्थ्य बिग़ड़ता ही जा रहा था और उसीमें इस अनशन का भी काफ़ी असर हुआ। इसीमें १९२६ का नवम्बर महीना शुरू हुआ। केंद्रीय औैर राज्य असेंब्लियों का कार्यकाल ख़त्म होने के कारण उन्हें बरख़ास्त कर फिर से चुनावों की घोषणा कर दी गयी।

बंगाल प्रांतिक काँग्रेस ने कोलकाता चुनावक्षेत्र के लिए सुभाषबाबू की उम्मीदवारी की घोषणा की। इसके पीछे एक कारण यह था कि यदि सुभाषबाबू जीत जाते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर उनकी रिहाई के लिए सरकार पर दबाव बन जाता और दूसरी बात यह थी कि कोलकाता में से लिबरल पार्टी ने पिछली बार जीत चुके जे. एन. बसु को फिर से उम्मीदवार बनाकर चुनाव में खड़ा किया था। पिछली बार बसुजी ने स्वराज्य पक्ष के उम्मीदवार को हराया था और उस चुनावक्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय होने के साथ साथ उनका काफ़ी रोंब था। इसी कारण उन्हें टक्कर देने के लिए, कोलकाता म्युनिसिपालिटी के सीईओ के रूप में सफलतापूर्वक कार्यभार सँभाल चुके सुभाषबाबू के अलावा अन्य किसी का भी नाम काँग्रेस पार्टी के सामने नहीं था।

सुभाषबाबू के लिए यह पहला ही असेंब्ली चुनाव था। बाहर चुनाव हो रहे हैं और उम्मीदवार अँग्रे़ज सरकार के ख़िलाफ़ राजद्रोह करने के इल़जाम में जेल में, ये अजीबोंगरीब हालात देखकर सुभाषबाबू को आयर्लंड के स्वतन्त्रतासंग्राम की याद आयी। आयर्लंड की स्वतन्त्रता के लिए लड़नेवाले ‘सिन फेन’ पार्टी ने जब वहाँ के चुनावों में हिस्सा लिया, तब उनके अधिकांश उम्मीदवारों को अँग्रे़ज सरकार ने इसी प्रकार राजद्रोह के इल़जाम में जेल में बन्द करके रखा था। लेकिन भारत में ऐसा पहली बार ही हो रहा था। सुभाषबाबू से उम्मीदवारी परचा भरवाने के लिए उनके छोटे भाई शैलेशबाबू मंडाले आये थे। कोलकाता की इस प्रतिष्ठित सीट को जीतने के लिए स्वराज्य पक्ष ने भारी-भरकम कोशिशें की थीं। पहली ही बार पोस्टर्स, लीफलेट्स आदि आधुनिक प्रचारतन्त्रों का अवलंबन किया गया था। सलाखों के पीछे ऩजर आनेवाले सुभाषबाबू के पोस्टर्स कोलकाता की गली गली में मतदाताओं को आवाहन कर रहे थे और स्लोगन कुछ इस प्रकार था – ‘सुभाषबाबू को जेल से बाहर निकालने के लिए उन्हें असेंब्ली में भेजिए’ (‘पुट हिम इन, टू गेट हिम आऊट’)।

इस चुनाव के लिए सुभाषबाबू के हितचिंतकों तथा मित्रों ने दिनरात जी तोड़कर काम किया। वासंतीदेवी ने उनके समर्थन में एक पत्रक जारी किया और माँ तथा विभाभाभी स्वयं ही प्रचार के लिए निकल पड़ीं।

इस चुनाव में सुभाषबाबू भारी बहुमत से विजयी हो तो गये, लेकिन अपेक्षा के अनुसार जेल से बाहर नहीं आ सके।

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