नेताजी -०१

नेताजी

‘मुझे वाकई बहुत मज़ा आ रहा है, एक गोरे अँग्रेज़ को मेरे जूतें पॉलिश करते हुए देखकर|’

सन १९१९ में अपने इंग्लैंड़ के निवास के दौरान नेताजी ने अपने परिवार को लिखे हुए एक ख़त में यह कहा था। आयसीएस की सम्मानित डिग्री अर्जित करने इंग्लैंड़ आये सुभाषबाबू केंब्रिज युनिव्हर्सिटी में शिक्षा हासिल कर रहे थे। वहाँ के सभी नौकर प्रायः अँग्रेज़ ही रहते थे, इस बात से उन्हें काफ़ी अचरज होता था, क्योंकि अँग्रेजों के ग़ुलाम बन चुके भारत में ‘ऐसे’ कामों में विशेष रूप से भारतीयों को ही देखने की आदत पड़ चुकी थी। केंब्रिज में बूटपॉलिश करनेवाला भी गोरा अँग्रेज़ ही रहता था। उससे जूतों को पॉलिश कराते हुए सुभाषबाबू को बड़ा मज़ा आता था।

आज हम हमारे स्वतन्त्रतासंग्राम के बारे में केवल पढ़कर ही अँदाज़ा लगा सकते हैं। हमारी पीढी़ ने उस नरकसदृश भयानक दौर का अनुभव नहीं किया है। इसलिए हमारे मन में यह सवाल उठ सकता है कि इतनी छोटीसी बात को लेकर नेताजी इतने खुश क्यों हुए? लेकिन वह दौर ऐसा था कि केवल गोरे युरोपीयों के लिए ही खुले रहनेवाले, भारत के ही उच्चभ्रू क्लब्ज तथा होटेल्स के प्रवेशद्वारों पर ‘डॉग्ज अँड इंडियन्स आर नॉट अलाऊड’ ऐसा बोर्ड लिखा हुआ होता था। इसी कारण, उस गोरे बूटपॉलिशवाले से अपने जूतों को पॉलिश कराते हुए; भारतीयों को अपने हक़ के ग़ुलाम समझकर, कदम कदम पर अपने साम्राज्यवादी जूतों के नीचे कुचलना चाहनेवाले अँग्रेज़ों के प्रति अपनी रग रग में चिढ़ भरकर इंग्लैंड़ आये सुभाषबाबू के ध्यान में यह सांकेतिक विरोधाभास आया और उनके दिल में आनन्द की लहर दौड़ गयी कि जो अँग्रेज़ हम भारतीयों को पैर की जूती का दर्ज़ा दे रहे हैं, उन्हीं के देश आकर मैंने – अँग्रेज़ों की ग़ुलामी में रहनेवाले देश के एक नागरिक ने – एक गोरे अँग्रेज़ से अपने जूतें पॉलिश करवाये। इतनी आत्यंतिक चिढ़ ज़ुल्मी अँग्रेज़ो के ख़िला़फ सुभाषबाबू के मन में दहक रही थी।

ऐसे ज़ुल्मी, घातक तथा चालाक़ अँग्रेज़ों का सामना करने के लिए ईश्वर ने भारत में नररत्नों की खान ही उपजायी थी और भारतमाता के अनगिनत सपूतों ने खून-पसीना एक कर, अपना सबकुछ निछावर कर और वक़्त आनेपर बलिदान कर भारतमाता को जकड़नेवालीं परतन्त्रता की जंजीरों को तोड़कर उसे आ़जाद करा दिया। उनके लिए उनकी भारतमाता यह मात्र भौतिक जमीन, नदियाँ, पहाड़ रहनेवाला कोई प्रदेश नहीं था, बल्कि वह उनके लिए उनकी ‘माँ’ ही थी और भारतीय समाजमन की, विशेषतः स्वातन्त्र्यवीरों की इस मनोभूमिका को सिद्ध करने में अग्रसर थे – लोकमान्य टिळकजी।

जब लोकमान्य टिळकजी भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में दोपहर के सूरज की तरह रोशन थे, उसी समय इस तेज से स्फूर्ति लेकर कई ज्योतियाँ प्रज्वलित हुईं। ‘भारतीय असन्तोष के जनक’ माने जानेवाले लोकमान्य ने यदि भारतीयों के मन में स्वतन्त्रता का ख्वाब जगाकर उसे सच बनाने का राजमार्ग  दिखाया, तो उस ख्वाब को सच बनाने के लिए उस असन्तोष को ही अपना जीवन मानकर चलनेवालों में नेताजी सुभाषचंद्र बोस इस दूसरे दीप्तिमान स्वातन्त्र्यसूर्य का नाम अग्रक्रम से लिया जायेगा।

लोकमान्य के निधन के बाद भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की बाग़डौर गॉंधीजी ने सँभाली। टिळकजी ने नींव म़जबूत बनाकर रखे हुए इस संग्राम को इन ‘महात्मा’ ने ही अँजाम दिया। लेकिन उसमें भी, अँग्रेज़ों ने ११ बार जेल में डाले हुए सुभाषबाबू का अमूल्य योगदान था, इस बात को हम अनदेखा कैसे कर सकते हैं?

दरअसल सच पूछा जाये, तो इस भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में जिसने जिसने भी दिलोजान से अपना योगदान दिया, वे सभी हम भारतीयों के लिए समान रूप से आदरणीय होने चाहिए; क्योंकि इस भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के महावस्त्र की बुनाई इतनी दृढ़ थी कि किसी एक के समावेश के बिना वह पूर्ण होना भी नामुमक़िन था। किसीका योगदान एक दीये के जितना रहेगा, तो किसीका दीप्तिमान सूरज जितना। योगदान चाहे कितना भी हो, वह तो हर एक ने अपनी अपनी क्षमता के अनुसार पूर्णत्व से की हुई भारतमाता की आरती ही तो थी; फिर चाहे कोई कितना भी ‘बड़ा’ या ‘छोटा’ क्यों न हो! लेकिन जनमानस का नेतृत्व करने की क्षमता रखनेवाले नेता हमेशा समर्थकों के ही घेरे में फँस जाते हैं और ये समर्थक ही उस नेता को औरों से बढ़कर साबित करने के चक्कर में पड़ जाते हैं। ऐसा करते हुए वे दूसरे नेताओं को नीचा दिखाते हैं। लेकिन उस सच्चे स्वतन्त्रतासैनिक को इससे कुछ लेनादेना नहीं रहता है, वह तो सिर्फ अपनी भारतमाता से ही प्यार करता है। यह कहने का उद्देश्य यही है कि उसमें भी सुभाषबाबू के बारे में लिखित साहित्य बहुत ही कम उपलब्ध होने के कारण उनकी महान शख़्सियत की जानकारी नयी पीढ़ी को उतनी नहीं हुई। लेकिन इससे सुभाषबाबू की महानता कम नहीं होती।

भारत को आ़जादी प्रदान करनेवाले लेबर पार्टी के ब्रिटीश प्रधानमन्त्री क्लेमेंट ऍटली आगे चलकर जब इसवी १९५६ में भारत आये थे, तब उनसे यह सवाल पूछा गया कि इंग्लैंड़ द्वारा दूसरा विश्‍वयुद्ध जीता जाने पर भी भारत को इसवी १९४७ में इतनी जल्दबाज़ी में आज़ादी देने की क्या वजह थी? तब उन्होंने कहा – ‘नेताजी सुभाषचन्द्र बोस। उनके बढ़ते हुए प्रभाव के कारण ही यह निर्णय लेने की नौबत इंग्लैंड़ पर आ गयी। नेताजी के बढ़ते प्रभाव के कारण ही, तब तक ब्रिटीश सरकार के साथ राजनिष्ठ रहनेवाली भारतीय सेना और नौदल, ये ब्रिटीश साम्राज्य के प्रमुख आधारस्तम्भ कमज़ोर होना शुरू हुआ।’ उस समय तक अँग्रेज़ सरकार की वफ़ादार रहनेवाली भारतीय फ़ौज ने ब्रिटीश साम्राज्यविस्तार के कार्य में बहुमूल्य योगदान दिया था। तब तक तो ‘आसानी से उपलब्ध रहनेवाली अपनी ही  फौज ऐसे संबोधित की जानेवाली भारतीय सेना में, नेताजी द्वारा ‘आझाद हिंद सेना’ की स्थापना किये जाने की ख़बर फैलने लगी और अस्वस्थता की चिंगारी का निर्माण हुआ कि हम क्यों तो फिर अँग्रेज़ों की ही ग़ुलामी कर रहे हैं? यह बात अँग्रेज़ों के ध्यान में आते ही उनके तो पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी। यदि भारतीय सेना इस आज़ादी की जंग में अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हो गयी, तो भारत पर शासन करना नामुमक़िन है, इसका एहसास चालाक़ अँग्रेज़ों को हो गया। साम, दान, भेद तथा दंड इन तरीकों का कुछ भी उपयोग न होते हुए यह ‘रोग’ फैलता ही जा रहा है, यह बात जब अँग्रेज़ों की समझ में आयी, तब उन्होंने चूपचाप भारत छोड़ने का फ़ैसला किया।

एक ब्रिटीश प्रधानमन्त्री ने की हुई यह टिप्पणी ही नेताजी का भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में जो स्थान है, उसे अधोरेखित करने के लिए काफ़ी है। एक ख्वाब देखनेवाला नौजवान आत्मशान्ति की खोज में तीर्थस्थलों की यात्राएँ करते रहता है और उसे उसके नियत ध्येय का साक्षात्कार हो जाता है कि जब मेरी भारतमाता अशान्त है, तो मुझे भला शान्ति मिल भी कैसे सकती है? और योगमार्ग पर चलने की इच्छा रखनेवाले इस सुभाष में परिवर्तन होते होते वह ‘नेताजी’ कैसे बन जाता है, यही इस अध्ययन से हमें सीखना है।

किसी भी ऊँची इमारत को बनाने से पहले, भविष्य में वह धूप-बरसात-तेज़ हवाएँ इनका ड़टकर मुक़ाबला कर सके, इस उद्देश्य से उसकी नींव मज़बूत बनायी जाती है। इसी तरह ‘गगनस्पर्शी’ व्यक्तित्व बनता है, उस व्यक्ति के संवेदनशील मन को छात्रावस्था में प्राप्त संस्कारों के कारण ही। फिर चाहे वे संस्कार पढ़ाई-लिखाई से हुए हों या फिर आसपास की परिस्थिति के परिणामस्वरूप हुए हों। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के क्रान्तिकारियों की मानो ‘पहचान’ ही बन चुके नेताजी ने जिस बुलंदी को छू लिया था, उसकी जड़ थी बचपन में उनके संस्कारशील मन को प्राप्त हुए अनुभव।

इसवी १८९७ में ओरिसा के कटक में जन्में सुभाषबाबू का बचपन कटक में ही गु़जरा। उनके पिता जानकीनाथजी कटक के एक मशहूर वक़ील थे और अपनी मेहनत, लगन और बुद्धिमानी की ताकत से कामयाबी की एक एक पायदान चढ़ते हुए सरकारी वक़ील बन चुके थे। सरकारी वक़ील होने के कारण उन्हें समाज में काफ़ी सम्मान मिलता था। ‘रायबहादूर’ यह उस जमाने की सर्वोच्च उपाधि भी उन्हें मिली थी। ब्रिटीश सम्राट पंचम जॉर्ज जब भारत आये थे, तब उनके सम्मान में बुलाये गये शाही दरबार में भारत के रियासतदार, सरदार और कुछ गिनेचुने अमीर इन्हें आमन्त्रित किया गया था। जानकीबाबू भी उनमें से एक थे। इससे हम समझ सकते हैं कि उस जमाने में उन्हें कितनी शोहरत हासिल थी। वे कटक के पहले निर्वाचित नगराध्यक्ष भी थे। उस जमाने में जब केवल अँग्रेज़  अफ़सरों के पास ही अपनी घोड़ों की बग्गी रहती थी; तब जानकीबाबू के पास तीन तीन बग्गियॉं थीं। साथ ही बड़ी हवेली, नौकरचाकर इस तरह के सभी सुख जानकीबाबू के सामने हाथ जोड़कर खड़े थे। कामयाब वक़ील के तौर पर कटक में उनका बड़ा नाम था। अँग्रेज़ सिपाहसालार भी एक सुसंस्कृत, ज्ञानी मनुष्य की हैसियत से उनका सम्मान करते थे। लेकिन अँग्रेज़ों की नौकरी करने के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अँग्रेज़ों की ग़ुलामी नहीं की, अपना ईमान नहीं बेचा। इसीलिए आगे चलकर एक मुक़दमे में उनकी दलीलें सही होने के बावजूद भी गोरे अँग्रेज़ न्यायाधीश द्वारा उन दलीलों को ख़ारिज किये जाने के कारण उन्होंने फौरन सरकारी वक़िली का इस्तिफ़ा देकर प्राइवेट प्रॅक्टीस शुरू की और ‘रायबहादूर’ का ख़िताब भी सरकार को लौटा दिया।

छोटे सुभाष का दिमाग़ भी बहुत ते़ज था और परिस्थिति का आकलन भी उन्हें तुरन्त हो जाता था। लेकिन प्रखर बुद्धिमानी होने के साथ साथ सपनों में खोये रहनेवाले सुभाष के बारे में पिता को फिक्र के साथ साथ फिक्र भी लगी रहती थी। उन्होंने सुभाष को कटक के सर्वोत्तम माने जानेवाले बॅप्टिस्ट मिशन द्वारा संचालित प्रोटेस्टंट युरोपीय स्कूल में दाख़िल किया। चूँकि उस जमाने का कटक आज के कटक जितना विकसित नहीं था, कटक का माहौल आधुनिक नागरी चालचलन से अछूता था। घर घर में संस्कृत श्‍लोकों को रटाया जाता था। लेकिन स्कूल में पूरा का पूरा विलायती माहौल रहता था। ‘छडी लागे छम छम’ (हाथ में छड़ी लेकर ही बच्चों को सिखाया जा सकता है) यह मूलमंत्र रहनेवाले इस स्कूल में अँग्रेज़ी प्रार्थनाएँ बच्चों से रटायी जाती थीं। सुभाष का मन इस विरोधाभास को मानने के लिए तैयार नहीं था। साथ ही भारतीय छात्रों को सभी स्तरों पर पक्षपात भी सहना पड़ता था। चौथी और सातवी कक्षा की स्कॉलरशिप परीक्षाओं में भारतीय छात्रों को बैठने नहीं दिया जाता था। अग्रिम कक्षा के छात्रों को फौजी प्रशिक्षण दिया जाता था, लेकिन उसमें भी भारतीय छात्रों को प्रवेश नहीं था। स्कूल के विषय भी युरोपीय दृष्टिकोन से सिखाये जाते थे। इतिहास और भूगोल पढ़ाये तो जाते थे, लेकिन इंग्लैंड़ के। भारत के बारे में कुछ आंशिक वर्णन ही उसमें रहता था। भारतीय भाषाओं का प्रशिक्षण स्कूल में नहीं दिया जाता था। एक बार ‘बड़ा होकर मैं कौन बननेवाला हूँ’ इस विषय पर निबन्ध लिखते हुए सुभाष ने, घर में बार बार सुनायी देनेवाले शब्दों के आधार पर ‘पहले मैं कमिशनर बनूँगा और बाद में कलेक्टर’ ऐसा लिखने के बाद अध्यापक ने कुत्सिततापूर्वक उसका मज़ाक उड़ाते हुए सभी छात्रों के सामने उसे अपमानित किया था। इस विरोधाभास और पक्षपात को अनुभव करते हुए, बचपन से ही स्वतन्त्र विचारधारा रहनेवाले सुभाष का मन तिलमिला जाता था। ‘आख़िर ऐसा क्यों?’ यह एक ही सवाल अलग अलग रूप लेकर उसके मन के चारों ओर मँड़राता रहता था। अन्य बच्चों की तरह खेलकूद में उसे दिलचस्पी नहीं थी। कई घण्टों तक अकेले अटारी में बैठकर वह कुदरत के करिश्मों को निहारता रहता था। उसके घर में कुछ पालतू जानवर भी थे। उनकी गतिविधियॉं भी वह जिज्ञासापूर्वक देखता रहता था।

सात साल तक इस स्कूल में पढ़ने के बाद सुभाषबाबू रॅव्हेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में दाख़िल हुए और यहीं पर उनके जीवन ने पहली करवट बदली – यहीं पर उनकी मुलाक़ात हुई उनके जीवन के पहले ‘आप्त’ के साथ – बेणीमाधव दास, रॅव्हेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल के मुख्य अध्यापक। उनके तेजस्वी तथा भावनाप्रधान व्यक्तित्व ने और प्रभावी वक्तृत्व ने सुभाषबाबू को मोह लिया। देशभक्ति तो मानो बेणीमाधवजी के नस नस में ठसाठस भरी थी। अध्यापन करते समय वे कभी भी रटी-रटायी बातें छात्रों को नहीं सुनाते थे, बल्कि बच्चों के माता-पिता ने बड़े भरोसे के साथ उनके हवाले किये हुए बच्चों को उचित संस्कार देकर, उनके मनोदर्पण को साफ़-सुथरा बनाकर उन्हें एक समर्थ नागरिक बनाने की दृष्टि से उनकी वैचारिक बैठक किस तरह तैयार की जा सकती है, इसी दिशा में उनकी कोशिशें रहती थीं। उनका पिरियड़ कभी ख़त्म ही न हो, ऐसा बच्चों को लगता था। एक बार इतिहास के पिरियड़ में उन्होंने एक सवाल पूछा था। तब सुभाषबाबू ने रटा-रटाया क़िताबी जवाब न देते हुए, अपनी स्वतन्त्र प्रज्ञा की सोच के आधार पर जवाब दिया। सभी छात्रों ने उन्हें ‘बुद्धू’ समझकर उनका उपहास किया। लेकिन बेणीमाधवजी नहीं हँसे। उन्होंने सुभाषबाबू से स्वयं ही उनका नाम-पता पूछकर सभी छात्रों से यह साफ़ साफ़ कहा कि सुभाष ने दिया हुआ जवाब ही दरअसल सही है।

वैसे तो सुभाषबाबू मातापिता भी उनसे बेहद प्यार करते थे। लेकिन वह प्यार था, एक साधारण सुखवस्तु परिवार की चौख़ट में सीमित रहनेवाला प्यार – सन्तान के लिए ठीक से खाने-पिने की व्यवस्था करना, अच्छी शिक्षा प्रदान करना, उसे अच्छे संस्कार मिले और वह नेकी के रास्ते पर चले, इतनी ही अपेक्षा रखना आदि| वैसे तो सुभाषबाबू को किसी भी ची़ज की कमी नहीं थी….मग़र फिर भी कहीं तो कुछ तो उन्हें अपूर्ण लग रहा था| निरन्तर अन्तर्मुख रहनेवाले उनके मन को कौनसी व्यथा खाये जा रही है, इसका पता भी नहीं चलता था| बेणीमाधवजी से मिलने के बाद, मुझे उलझानेवाले सवालों के जवाब इन्हीं के पास से मिल सकते हैं, ऐसा भरोसा अपने आप ही सुभाषबाबू के मन में उत्पन्न हुआ। घर में भी वे निरन्तर बेणीमाधवजी के बारे में बड़े उत्साह के साथ बातें करते थे। इस ‘आप्त’ के ‘आप्तवचन’ सुनते हुए सुभाषबाबू के छोटे से भावविश्‍व की कक्षाएँ अब फैलती जा रही थीं।

 

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