१६. ‘एक्झोडस्’- रेगिस्तान में दौड़धूप

इस प्रकार सेना के साथ ज्यूधर्मियों का पीछा करनेवाले फारोह से होनेवाला ख़तरा ईश्‍वर की कृपा एवं लीला से टल गया था और ज्यूधर्मियों ने अब निश्‍चिंत होकर आगे का प्रवास शुरू किया। लेकिन अब धीरे धीरे मनुष्यबस्ती पीछे छूट गयी थी और उनका प्रवास सुनसान रेगिस्तान में शुरू हुआ था।

अब उनके पास का खाना और पानी भी ख़त्म होने की कग़ार पर था। रेगिस्तानी प्रदेश होने के कारण आसपास पेड़पौधे-झुरमुट, प्राणि भी बिलकुल कम मात्रा में दिखायी दे रहे थे। ऐसी स्थिति में वे ‘माराह’ इस स्थान पर पहुँच गये।

यहाँ पर बहुत ढूँढ़ने के बाद उन्हें पानी का एक स्रोत मिला। लेकिन उससे हुई खुशी कुछ ही पलों में मुरझायी – वह पानी कड़वा और खारा होकर पीनेलायक बिलकुल भी नहीं था। इस अपेक्षाभंग से ग़ुस्सा होकर, भूख़-प्यास से तिलमिला रहे लोगों में से कइयों ने पुनः मोझेस को दोष देना शुरू किया। मोझेस ने पुनः ईश्‍वर से दयायाचना की। तब ईश्‍वर ने उसे वहीं नज़दीक होनेवाला एक पेड़ दिखाया और उसकी एक टहनी तोड़कर उस पानी में फेंकने के लिए कहा। वैसा करने के बाद वह खारा और कड़वा पानी मीठा लगने लगा और सभी ने यथेच्छ अपनी प्यास बुझायी।

यहाँ ईश्‍वर ने उनके लिए कुछ मार्गदर्शक नियम निर्धारित किये और ‘उनका सदैव पालन करने पर और ईश्‍वर की दृष्टि से जो योग्य है वही करते रहने पर, तुम्हारी स्थिति कभी भी, आपत्तियों से घिरे इजिप्शियन लोगों जैसी नहीं होगी’ ऐसा अभिवचन दिया।

रेगिस्तान

वहाँ से आगे ‘एलिम’ इस स्थान पर यह समूह पहुँचा। लेकिन यहाँ पर उन्हें, वह रेगिस्तानी इलाक़ा होने के बावजूद भी अच्छे पानी से भरे बारह कुँए और सत्तर ताड़ के वृक्ष (पाम ट्री) दिखायी दिये। ईश्‍वर ने अच्छाख़ासा खानेपीने का प्रबंध किया, इसलिए ईश्‍वर का शुक्रिया अदा करके ये लोग कुछ समय वहाँ विश्राम करके आगे के प्रवास के लिए रवाना हुए।

अब इजिप्त छोड़े लगभग महीना बीत चुका था और इन लोगों ने माऊंट सिनाई के रास्ते पर के सीन के रेगिस्तान में प्रवेश किया था। पुनः भूख़-प्यास से व्याकुल हो जाने के कारण वे मोझेस को दोष देने लगे कि ‘क्या तुम हमें भूख़े मरने के लिए इस रेगिस्तान में ले आये? इजिप्त में भले ही हम ग़ुलामी में थे, मग़र कम से कम पेट भरकर खाना तो मिलता था।’

तब ईश्‍वर ने मोझेस को बताया कि ‘मैं अब हररोज़ तुम्हारे लिए आकाश से दैवी (ईश्‍वरीय) खाना भेजनेवाला हूँ। सुबह ब्रेड़ की बरसात होगी; वहीं, शाम को मांसाहार का प्रबन्ध होगा। सुबह के खाने में ब्रेड खाएँ, शाम के भोजन में मांसाहार करें। लेकिन एक ही शर्त है – हर एक जन उसके परिवार के लिए केवल उतने ही खाद्यपदार्थ जमा करेगा, जितने एक दिन के लिए आवश्यक हैं, ना ज़्यादा, ना कम। क्योंकि आज का खाना कल के लिए नहीं रखना है। दूसरे दिन पुनः आकाश से गिरनेवाले खाद्यपदार्थ जमा करें। अपवाद (एक्सेप्शन) केवल शुक्रवार का है। उस दिन, दो दिन के लिए पर्याप्त हों इतना खाना हर एक जन जमा करें। क्योंकि दूसरे दिन यानी शनिवारी को ‘सब्बाथ*’ होगा। इस कारण उस दिन खाने की बरसात नहीं होगी और तुम लोग भी ‘सब्बाथ’ का पालन करनेवाले होने के कारण, खाना जमा करने के लिए घर से बाहर नहीं निकलोगे। इस कारण शनिवार के लिए आवश्यक खाद्यपदार्थ भी शुक्रवार को ही इकट्ठा करने हैं। लेकिन यह नियम केवल शुक्रवार-शनिवार इन दो दिनों के लिए ही है। अन्य दिन पुनः, एक दिन के लिए पर्याप्त होंगे उतने ही खाद्यपदार्थ इकट्ठा करने हैं।’

ईश्‍वर द्वारा यह बताया जाने के बाद उसी दिन ज्यूधर्मियों को उसकी प्रचिति हुई। शाम को वहाँ पर इतने ‘क्वेल’ पक्षी (बटेर जैसे पक्षी) इकट्ठा हुए कि उनके पेट भर खाने का इन्तज़ाम हो चुका था। सुबह उठकर देखते हैं, तो ज़मीन पर ओस की तरह दिखनेवाले दानों के रूप में खाद्यपदार्थ फैला हुआ था। यह पदार्थ उन्होंने पहले कभी भी देखा नहीं था। उसे चखकर देखा, तो उन्हें उसका स्वाद शहद में डुबोए ब्रेड की तरह लगा। हर एक ने खुशी से अपने परिवार को दिन भर के लिए पर्याप्त होगा उतना वह पदार्थ इकट्ठा किया। उसका नाम उन्होंने ‘मन्ना’ (‘स्वर्गीय अन्न’) ऐसा रखा था। उसके बाद यही ‘मन्ना और क्वेल’ का सिलसिला शुरू हुआ और भूखमरी से ज्यूधर्मीय बच गये। अचरज की बात यह थी कि यदि कभी किसीसे, अँदाज़ा ग़लत होने को कारण ज़रूरत से कम अन्नपदार्थ इकट्ठा किये गये, तो भी उनके परिवार को वे पदार्थ पूरी तरह पर्याप्त होते थे।

लेकिन कुछ लोगों ने ईश्‍वर की आज्ञा ठुकराकर शुक्रवार-शनिवार के अलावा अन्य किसी दिन, एक दिन की ज़रूरत से अधिक खाना इकट्ठा किया। लेकिन उसका कुछ भी फ़ायदा नहीं हुआ। दूसरे दिन बचे उस खाने में कीड़ें पड़े दिखायी दिये और उससे दुर्गंध भी आ रही थी। केवल शुक्रवार को इकट्ठा किये दो दिन के खाने को लेकर ऐसा घटित नहीं हुआ।

साथ ही, कुछ लोगों ने शुक्रवार को ईश्‍वर की आज्ञा के अनुसार दो दिन का खाना इकट्ठा न करके, केवल एक ही दिन का खाना इकट्ठा किया और शनिवार को ‘सब्बाथ’ का पालन करने के बजाय वे खाना ढूँढ़ने घर से बाहर निकले। उन्हें कुछ भी नहीं मिला और वे खाली हाथ ही वापस लौट आये और उन्हें उस दिन भूख़े पेट रहना पड़ा।

यह ईश्‍वर की अवज्ञा होते देखकर ग़ुस्सा होकर मोझेस ने उन्हें खरी खरी सुनायी। ईश्‍वर द्वारा प्रदान किये गये ‘सब्बाथ’ जैसे सुन्दर उपहार का क्यों इस तरह अपमान कर रहे हों, ऐसा मोझेस ने उन्हें साफ़ साफ़ पूछा। उन ज्यूधर्मियों को भी अपनी ग़लती का एहसास हो गया और वे भी ईश्‍वर की आज्ञा का पालन करने लगे।

इस घटना के बारे में कई अभ्यासकों ने ऐसी राय ज़ाहिर की है कि यहाँ पर ईश्‍वर ने उन्हें यह सीख दी कि ‘जो तुम चाहते हो वही देना ईश्‍वर के लिए बंधनकारक नहीं है, बल्कि जो तुम्हारे लिए आवश्यक है, वही वह देगा।’ (क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

 

(‘सब्बाथ’‘सब्बाथ’ यह ज्यू संस्कृति में होनेवाली एक सुंदर संकल्पना है। परंपरावादी ज्यूधर्मियों की मान्यता के अनुसार – ईश्‍वर ने यह बहुत ही विशाल विश्‍व (पर्वतखाइयाँ, नदियाँ, आकाश, ग्रहतारें, प्राणि, इन्सान आदि विश्‍व में होनेवालीं यच्चयावत सभी चीज़ें) निर्माण किया (‘क्रिएशन ऑफ द वर्ल्ड’), वह क्रमानुसार छः दिन में (पहले दिन प्रकाश – ‘लेट देअर बी लाईट’, दूसरे दिन आकाश, तीसरे दिन पृथ्वी, इस क्रम से); छठे दिन के अन्त में उसने मानव को बनाया और उसके बाद सातवें दिन उसने विश्राम किया।

यह सातवाँ – ईश्‍वर के विश्राम का दिन परंपरावादी ज्यूधर्मियों में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस सातवें दिन को ज्यूधर्मियों में ‘सब्बाथ’ कहा जाता है और हर हफ़्ते शनिवार को यह ‘सब्बाथ’ का दिन ज्यूधर्मियों द्वारा बहुत ही सम्मानपूर्वक तथा भक्तिभाव के साथ मनाया जाता है। ‘यह हमारे लिए ईश्‍वर ने प्रदान किया हुआ सुन्दर उपहार है’ ऐसी भावना मन में रखकर ज्यूधर्मीय हफ़्तेभर इस ‘सब्बाथ’ की बेसब्री से राह देखते हैं।

शुक्रवार को शाम सूर्यास्त से कुछ समय पहले यह ‘सब्बाथ’ शुरू होता है, वह शनिवार शाम सूर्यास्त के कुछ समय बाद तक मनाया जाता है। इस दिन घर घर में विशेष व्यंजन पकाये जाते हैं। ‘सब्बाथ’ का पालन करनेवाले ज्यूधर्मीय उस दिन कोई कार्यक्रम या काम नहीं रखते। उस दिन जितना हो सके उतना मौन का पालन किया जाता है और अधिक से अधिक अंतर्मुख होने का प्रयास करते हैं। मोमबत्तियाँ जलाकर भगवान से प्रार्थना करते हैं। साथ ही, पिछले हफ़्तेभर में जो कुछ भी हाथों हुआ है, उसे शान्ति से मन ही मन दोहराते हैं। यदि कुछ अच्छा घटित हुआ हो, तो उसके लिए ईश्‍वर का शुक्रिया अदा करते हैं; यदि कुछ ग़लत हुआ हो, तो उसके लिए ईश्‍वर से क्षमायाचना करते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी यह बिना चूके होता आया है, इस कारण घर के छोटे बच्चों पर बचपन से ही अनुशासनपूर्वक ये संस्कार हुए होते हैं और स्वाभाविक रूप से बचपन से ही इन बच्चों के मन पर ‘सब्बाथ’ का महत्त्व अंकित हुआ होता है। इस कारण ज्यूधर्मीय मनुष्य भले दुनिया के किसी भी कोने में हो, हर शनिवार वह ‘सब्बाथ’ का पालन करता ही है।)

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