३०. सॅमसनपश्‍चात् ज्यूधर्मियों के नेता – ‘एली द कोहेन’ और ‘सॅम्युएल’

सॅमसन की मृत्यु से ज्यूधर्मियों ने बड़ा ही रक्षाकर्ता खो दिया था। क्योंकि जब तक सॅमसन था, तब तक ज्यूधर्मियों के दुश्मनों को उसका अच्छाख़ासा ख़ौ़फ़ था और केवल छलकपट से ही फिलिस्तिनी सॅमसन को बंदी बनाने में क़ामयाब हुए थे। सॅमसन की विशेषता यह मानी जाती है कि अब तक के सभी जज्जेस ने ज्यूधर्मियों की सेना बनाकर उस उस समय के दुश्मनों से मुक़ाबला किया था; लेकिन ईश्‍वरीय ताकत शरीर में संचार कर रही होने के कारण सॅमसन उसकी जीवन की सभी लड़ाइयाँ, यहाँ तक कि संख्या से सैंकड़ों-हज़ारों होनेवाले दुश्मनों के ख़िला़फ़ की लड़ाइयाँ भी अकेला ही – बिना किसी से मदद लिये लड़ा था और जीता था।

आम तौर पर सॅमसन को आख़िरी ‘जज्ज’ माना जाता है। कुछ अभ्यासक, सॅमसन के बाद आये ‘एली द कोहेन’ इस शिलोह स्थित ज्यूधर्मियों के सर्वोच्च धार्मिक स्थल के तत्कालीन सर्वोच्च धर्मोपदेशक को और उसके द्वारा प्रशिक्षण देकर बचपन से ही अपने जैसा तैयार किये सॅम्युएल को भी ‘जज्ज’ मानते हैं।

सॅमसन की मृत्यु के बाद कुछ साल ज्यूधर्मियों के अच्छे गुज़रे। मरते वक़्त सॅमसन ने अपने साथ हज़ारों फिलिस्तिनियों को भी एक ही समय पर मारा होने के कारण फिलिस्तिनियों के दिलों में दहशत पैदा हुई थी, जो उसकी मृत्यु के बाद भी कुछ समय तक बरक़रार रही। अतः उस दौर में ज्यूधर्मियों पर बाहर से कहीं से आक्रमण नहीं हुए। तत्कालीन ज्यूधर्मियों का सर्वोच्च सम्मान का स्थान होनेवाले टॅबरनॅकल की स्थापना जहाँ की थी, उस शिलोह इस गाँव में पुनः ज्यूधर्मियों का ताँता लगना शुरू हुआ था। वहाँ का सर्वोच्च धर्मोपदेशक ‘एली द कोहेन’ अपने आचरण के कारण तथा ईश्‍वर के प्रति होनेवाली भक्ति के कारण सभी ज्यूधर्मियों के सम्मान का स्थान बन चुका था और इसी कारण इस शांतिकाल में ज्यूधर्मियों का प्रमुखपद अनौपचारिक रूप में उसके पास चला आया था। ज्यूधर्मीय अपनी छोटीं-बड़ीं समस्याएँ सुलझाने के लिए एली के पास ही दौड़े चले आते थे। मोझेस-जोशुआ-पिन्हॅस इस सर्वोच्च धर्मोपदेशकों की शृंखला की ‘एली’ यह ‘चौथी कड़ी’ था। यह तक़रीबन इसापूर्व दसवीं सदी का कालखंड माना जाता है।

इसी बीच, एफ्रैम पर्वत के पास के रामाथैम-झोफ़िम भाग में लेव्ही की ज्ञाति का ‘एल्काना’ नामक एक ज्यूधर्मीय रहता था। एल्काना स्वभाव से बहुत ही धार्मिक होकर, ईश्‍वर पर उसकी एकनिष्ठ भक्ति थी। उसका सारा परिवार ही धार्मिक होकर, एल्काना अपने परिवार को लेकर ‘टोराह’ में बतायेनुसार साल में तीन बार शिलोह की यात्रा करता था। उसके गाँव से शिलोह तक जाने के पूरे मार्ग के आसपास होनेवाले गाँवों में, एल्काना की इन यात्राओं के कारण, एल्काना और उसका परिवार सभी को परिचित हो गया था। सभी एल्काना को सम्मान की भावना से देखते थे। इतना ही नहीं, बल्कि कई लोग अपने अपने गाँवों से शिलोह तक यह तीर्थयात्रा करने के लिए एल्काना के साथ सम्मिलित हो जाते थे। शिलोह का धार्मिक महत्त्व तत्कालीन ज्यूधर्मियों के मन में सुस्थिर होने में, एल्काना की इन वार्षिक यात्राओं का अहम हिस्सा था।

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सॅम्युएल थोड़ा बड़ा हो जाते ही उसकी माँ हॅना, पहले मानी मन्नत के अनुसार उसे लेकर शिलोहस्थित सर्वोच्च धर्मोपदेशक एली के सामने जाकर खड़ी हुई और उसने अपने बेटे को ईश्‍वर की सेवा के लिए एली के हवाले कर दिया।

ऐसे इस एल्काना की दो पत्नियाँ थीं – हॅना और पेनिन्ना। उनमें से हॅना के अभी तक कोई सन्तान न होकर, इस बात के कारण उसे तत्कालीन प्रचलित सामाजिक धारणाओं के अनुसार बहुत ही परेशानियाँ झेलनी पड़ीं। एक बार वह ऐसे ही अपनी वार्षिक तीर्थयात्रा के लिए जब शिलोह गयी थी, तब ईश्‍वर के सामने बहुत रोयी और ‘यदि मुझे बेटा हुआ, तो मैं उसे ईश्‍वरचरणों में ही समर्पित करूँगी’ ऐसी मन्नत उसने मानी। अचरज की बात यह है कि उसके कुछ ही महीनों बाद उसे गर्भधारणा होकर, यथावकाश उसने एक पुत्र को जन्म दिया। खुशी से हॅना फूले नहीं समा रही थी। इस बच्चे का नाम ‘सॅम्युएल’ रखा गया। उसकी बाललीलाओं से हॅना बहुत ही मोहित होती थी। लेकिन ईश्‍वर को दिया वचन वह भूली नहीं थी। अत एव, जब वह थोड़ा बड़ा हुआ, तब वह वचन के अनुसार बच्चे को लेकर शिलोहस्थित सर्वोच्च धर्मोपदेशक एली के सामने जाकर खड़ी हुई और उसे सारी हकीक़त बयान कर, सीने पर पत्थर रखकर उसने अपने बेटे को ईश्‍वर की सेवा के लिए एली के हवाले कर दिया।

उस तेजस्वी बच्चे को देखकर एली को उसमें अपना उत्तराधिकारी दिखायी देने लगा। एली के खुद के दोनों बेटे नालायक साबित हुए होकर, अपने पिता के एवं घराने के सामाजिक स्थान का वे नाजायज़ फ़ायदा उठाते थे और अब एली बहुत ही बूढ़ा हुआ होने के कारण उसकी परवाह भी नहीं करते थे ऐसा बताया जाता है। इस कारण एली को यह ईश्‍वरीय संकेत ही प्रतीत हुआ और उसने खुशी खुशी उस बालक का स्वीकार किया और एली के मार्गदर्शन में सॅम्युएल की शिक्षा शुरू हुई।

उसके बाद बचपन में ही सॅम्युएल को पहला ईश्‍वरी साक्षात्कार हुआ। एक बार जब वह टॅबरनॅकल में अपने काम संपन्न कर विश्राम कर रहा था कि तभी कोई उसका नाम लेकर उसे बुला रहा है, ऐसा उसे सुनायी दिया। शायद एली बुला रहा है, यह सोचकर वह एली के सामने जाकर खड़ा हुआ। लेकिन एली ने बताया कि उसने सॅम्युएल को नहीं बुलाया। लेकिन ऐसा तीन बार घटित होने के बाद एली को जो समझना था, वह एली समझ गया और उसने खुश होकर सॅम्युएल को यह बताया कि यह ईश्‍वरी साक्षात्कार है और यह भी बताया कि पुनः यदि ऐसा हुआ तो उसे क्या करना चाहिए।

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सॅम्युएल ने आकर, ईश्‍वरी दृष्टान्त में ईश्‍वर ने कथन की हुई बात एली को बतायी।

उसके बाद जब यह फ़िर से घटित हुआ तब ईश्‍वर ने सॅम्युएल से अधिक विस्तारपूर्वक बात की, ऐसा यह कथा बताती है। लेकिन वह जो कुछ भी बोला, वह बात आनन्ददायी बिलकुल नहीं था। ईश्‍वर एली के बेटों के पापाचरण पर और उस पापाचरण को समय पर ही ना रोकने के लिए एली पर क्रोधित हुआ था और जल्द ही उन्हें सबक सिखानेवाला था, ऐसा उसने सॅम्युएल से कहा। सुन होकर सॅम्युएल ने आकर यह सबकुछ एली को बताया। उसपर एली ने ईश्‍वर के निर्णय का दिल से स्वीकार करते हुए सॅम्युएल को समझाया, ‘अरे, वह ईश्‍वर है, वह जो तय करता है, वह होकर ही रहता है और वही सर्वोत्तम होता है, ध्यान में रखना।’

अब तो ‘सॅम्युएल ही मेरा उत्तराधिकारी होगा’ यह एली ने मन ही मन किया विचार अब अधिक ही पक्का हो गया था। सॅम्युएल जब बड़ा हो रहा था, तब ईश्‍वर के प्रति होनेवाला दृढ़ विश्‍वास तथा धैर्य उसकी नस नस में दिखायी देता था। उसके संपर्क में आनेवाला, उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहता था और ‘यही है हमारा ज्यूधर्मियों का भविष्यकालीन नेता’ यही हर एक जन दिल में सोचता था।

इसी दौरान फ़िलिस्तिनी लोगों ने अधिक तैयारी करके ज्यूधर्मियों पर पुनः आक्रमण किया। अ‍ॅफ़ेक में हुई लड़ाई में ज्यूधर्मियों को पूरी तरह परास्त होना पड़ा और तक़रीबन चार हज़ार ज्यूधर्मियों को अपने प्राण गँवाने पड़े। यह ख़बर सुनकर ज्यूधर्मियों में से कुछ बुज़ुर्ग नागरिकों को यह बात याद आयी कि जोशुआ के समय, ज्यूधर्मियों के लिए सर्वाधिक पवित्र चीज़ों में से एक होनेवाला ‘आर्क ऑफ़ कोव्हेनन्ट’ युद्ध करनेवाली ज्यूधर्मियों की सेना के साथ ही हुआ करता था और उसे हर्षोल्लास के साथ ले जाया करते थे। यह सुनकर – अपने साथ भी लड़ाई के समय यदि ‘आर्क ऑफ़ कोव्हेनन्ट’ को ले लिया गया, तो हम लड़ाई जीतेंगे, इस ख़याल से कुछ लोग आकर शिलोह में एली से मिले और उसे यह सब हक़ीकत बयान कर, वहाँ पर रखे गये ‘आर्क ऑफ़ कोव्हेनन्ट’ को अपने साथ देने की माँग की। ‘आर्क ऑफ़ कोव्हेनन्ट’ की सुरक्षा के लिए एली के दोनों बेटे आर्क के साथ होनेवाले थे।

लेकिन ‘आर्क ऑफ़ कोव्हेनन्ट’ की उपस्थिति से हालाँकि ज्यूधर्मियों में वीरश्री का संचार हुआ और उन्होंने शुरू शुरू में हालाँकि तू़फ़ान पराक्रम किया, मग़र फ़िर भी इस लड़ाई में भी ज्यूधर्मियों को अच्छीख़ासी मार खानी पड़ी। इस बार उनके तीस हज़ार सैनिक मारे गये थे। एली के दोनों बेटे भी इसमें मारे गये थे और ज्यूधर्मियों के लिए पवित्र मानबिंदु होनेवाला ‘आर्क ऑफ़ कोव्हेनन्ट’, उनके प्रमुख दुश्मन के – फ़िलिस्तिनियों के हाथ लगा था।

यह ख़बर एली को मिलते ही, उसे दिल का दौरा पड़ा और उसकी वहीं पर मृत्यु हो गयी। गत चालीस साल से ज्यूधर्मियों का नेतृत्व करनेवाले और उनके सम्मान का स्थान रह चुके ९८ वर्षीय एली के गुज़र जाने से ज्यूधर्मियों का एक बहुत बड़ा आधार धराशायी हो गया था!(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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