दिल्ली भाग-७

कितने बजे हैं? या आज कौनसी तारीख है? इन जैसे सवालों के जवाब हम घड़ी और कॅलेंड़रदेखकर पल भर में दे सकते है। लेकिन जब घड़ियाँ और कॅलेन्डर्स नहीं थे, तब लोग समय, वार, तारीख़, तिथि आदि बातों को कैसे देखते थे? अब दिल्ली की आज सैर करने निकले ही हैं कि सफ़र की शुरुआत ही इन सवालों से हुई, ऐसा आप शायद सोच रहे होंगे। लेकिन आज हम जहाँ जा रहे हैं, उस स्थान का परिचय कराने के लिए ये सवाल प्रस्तुत किये गये हैं।

‘जंतर मंतर’। कई सदियों से यह वास्तु नई दिल्ली में है। दरअसल यह स्थान ‘यन्त्र-मन्त्र’ इस नाम से भी जाना जाता था। आसान शब्दों में कहना हो, तो ‘जंतर मंतर’ यानि वेधशाला (ऑब्झर्वेटरी)।

पुराने समय में जब घड़िया और कॅलेंडर्स नहीं थे, तब काल की गणना करने के लिए, आसमान के सितारों एवं ग्रहों की स्थिती को जानने के लिए ‘जंतर मंतर’ का निर्माण किया गया था।

जयपुर के महाराजा जयसिंग-द्वितीय ने इसे बनवाया था। अठारहवीं सदी में इन महाराजाने कुल ५ स्थानों पर ‘जंतर मंतर’ बनवाये और उन सभी को ‘जंतर मंतर’ इस कॉमन नाम से ही जाना जाता था। दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी (काशी) में इन पाँच ‘जंतर मंतरों’ का निर्माण किया गया।

दिल्ली के इस ‘जंतर मंतर’ का निर्माण १७२४ में किया गया ऐसा कहा जाता है। इसका इस्तेमाल सूर्य, चन्द्र, अन्य सितारों और ग्रहों की खगोलीय स्थिती को जानने के लिए किया जाता था।

‘जंतर मंतर’ में पत्थरों और संगेमर्मर से बनी विशिष्ट रचनाओं को ‘यन्त्र’ कहा जाता है। प्रत्येक यन्त्र का ख़ास उपयोग किया जाता था और मापन के लिए उस पर विशिष्ट आरेखन किया गया है। इन में से कुछ यन्त्र गोलाकार हैं, कुछ स्तम्थ जैसे हैं तो कुछ अर्धगोलाकार हैं और इनकी सहायता से विभिन्न बातों की जानकारी प्राप्त की जाती थी। इन रचनाओं पर चढने के लिए सीढियाँ भी बनायी गयी हैं।

संक्षेप में, ‘जंतर मंतर’ यह उस जमाने की एक जगह स्थिर रहनेवालीं, बड़ी बड़ी घड़ियाँ, कॅलेंडर्स और पंचाग ही थे।

दिल्ली के इस ‘जंतर मंतर’ में कुल १३-१४ यन्त्र/रचनाएँ हैं। इनमें से सबसे बड़े यन्त्र का नाम है – सम्राट यन्त्र। उसका आकार एवं भव्यता उसके नाम के अनुसार ही विशाल है। यह विशाल त्रिकोणाकार यन्त्र एक क़िस्म की ‘सूर्य घड़ी’ है। दिन भर की सूर्यगति के अनुसार इस यन्त्र के माध्यम से घण्टों, मिनटों एवं सैकण्ड़ों को नापा जाता था। संक्षेप में, दिन में यानि सूर्य जब तक आसमान में है तब तक समय का ज्ञान करने के लिए सम्राट यन्त्र को उपयोग में लाया जाता था।

७० फीट की ऊँचाई और ११४ फीट का विस्तार रहनेवाला यह यन्त्र उस समय एक बड़ी सी घड़ी का काम करता था।

सम्राट यन्त्र के साथ साथ यहाँ पर ‘जयप्रकाश यन्त्र’, ‘मिश्र यन्त्र’ एवं ‘राम यन्त्र’ इन नामों के यन्त्र भी हैं और प्रत्येक का अपना अपना काम भी है। लेकिन समय के साथ साथ उनका इस्तेमाल कम होता गया और आज वे प्राचीन वास्तुरूप में विद्यमान हैं। इनमें से कुछ यन्त्रों के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है, जिससे कि हम उनका उपयोग किस लिए किया जाता था, यह जान सकते हैं।

‘जयप्रकाश यन्त्र’ का उपयोग सितारों की आकाशीय स्थिती को जानने के लिए किया जाता था। वहीं ‘मिश्र यन्त्र’ में कुल पाँच रचनाओं का समावेश होता है। इस रचना के दोनों छोरों पर एक एक स्तम्भ है। साल के सबसे बड़े एवं सबसे छोटे दिन को जानने के लिए इनका उपयोग किया जाता था।

इस ऑब्झर्वेटरी ने लगभग सात साल तक अपना काम किया, ऐसा कहा जाता है। अब वेधशाला का प्रमुख काम होता है, मौसम का अनुमान करना और हमारे कृषिप्रधान देश में मान्सून का अनुमान करना यह तो वेधशाला का स्वाभाविक कार्य है। अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि दिल्ली के इस ‘जंतर मंतर’ द्वारा मान्सून का अनुमान भी किया जाता था और साथ ही ग्रहणों के समय को निश्‍चित करना यह भी इसका एक प्रमुख काम था।

सूर्य, चन्द्र, हवा, धूप, बरसात इन प्राकृतिक घटकों पर आधारित यह प्राचीन कालमापन सामग्री और जंतर मंतर ये भारतीयों की बुद्धिमत्ता की मिसाल हैं, इसमें कोई दोराय नहीं है।

‘जंतर मंतर’ के विशाल यन्त्रों को देखने के बाद आइए अब आगे बढते हैं।

यह स्थान राष्ट्र की दृष्टि सें जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही वह खूबसूरत भी है और उसकी खूबसूरती की मिसाल है, उसका बग़ीचा। लेकिन यह अत्यधिक सुन्दर बग़ीचा देखने का अवसर प्रत्येक भारतीय को साल में सिर्फ़ एक बार ही मिलता है। अब पहेलियाँ न बुझाते हुए आइए चलते हैं, ‘राष्ट्रपति भवन’ की ओर।

‘भारत के सर्वप्रथम नागरिक’ के रूप में जिनका ज़िक्र किया जाता है, उन भारत के राष्ट्रपतिजी के इस आवास का उनकी शान के अनुसार होना तो स्वाभाविक ही है।

नयी दिल्ली की रचना जब की जा रही थी, तब यहाँ के ‘रायसिना हिल्स’ नाम के इल़ाके में थोड़ी सी ऊँचाई पर इस ‘राष्ट्रपति भवन’ का निर्माण किया गया।

अँग्रेज़ों के ज़माने में यह ‘व्हाइसरॉय हाऊस’ इस नाम से जाना जाता था। ज़ाहिर है कि इसके रचनाकार नयी दिल्ली की रचना करनेवाले ही थे।

इस वास्तु की रचना में भारतीय एवं ब्रिटिश दोनों शिल्पकलाओंका मिश्रण है। अत्यधिक विस्तृत, शानदार और लाजवाब इन तीन शब्दों में इस राष्ट्रपति भवन का वर्णन किया जा सकता है।

भारत के राष्ट्रपति के अधिकृत आवास में ‘मुग़ल गार्डन’ की रचना की गयी। कुल तेरह एकर्स की ज़मीन पर फ़ैले इस बग़ीचे में चारों दिशाओं में बहनेवाले जल के कॅनॉल्स हैं और साथ ही जल के फुहारें बग़ीचे की शोभा बढाते हैं।

इस बग़ीचे की रचना आयताकार (रेक्टँगल), गोलाकार (राउंड) एवं विस्तृत (चौंड़ें) इन तीन विभागों में की गयी हैं। इस बग़ीचे में तरह तरह के पेड़-पौधे, पुष्पवृक्ष, शोभावृक्ष हैं। इस बग़ीचे में गुलाबों की २५० प्रजातियाँ हैं और हर प्रजाति का रंग अलग है। सबसे अहम बात यह है कि केवल भारतवर्ष से ही नहीं बल्की दुनियाभर से विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों को ले आकर उन्हें यहाँ लगाया जाता है, बढाया जाता है।

हमने जिन आयताकार, गोलाकार और विस्तृत गार्डन्स का उल्लेख पहले किया उन्हें – बटरफ्लाय गार्डन, पर्ल गार्डन इन जैसे नाम दिये गये हैं। साथ ही यहाँ पर टेरेस गार्डन भी है। यहाँ के बटरफ्लाय गार्डन में तरह तरह के फूलों पर मंडराती हुई तितलियों को भी हम देखते हैं और वह नज़ारा हमारा मन मोह लेता है।

रंग और महक को बिखेरनेवाले इस खूबसूरत बग़ीचे में कई तरह के पंछी भी दिखायी देते हैं।

आँखों, नाक और मन को सन्तुष्ट एवं उल्लसित करनेवाले, राष्ट्रपति भवन के इस ‘मुग़ल गार्डन’ को देखने का अवसर यदि मिलें तो उसे कभी भी खोना नहीं चाहिए।

वर्तमान युग में देश के केंद्रस्थान में रहनेवाली दिल्ली अतीत में भी उतनीही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। अत एव आज की दिल्ली में जिस तरह भारतीय अमर जवानों की स्मृति को जतन किया गया है, उसी तरह कई महत्त्वपूर्ण नेताओं की स्मृति भी जतन की गयी है।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व थे, ‘राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी’।

महात्मा गाँधीजी ने जहाँ आख़िरी साँस ली और अपने जीवन का अन्तिम कालखण्ड जहाँ व्यतित किया, उस वास्तु को आज ‘गाँधी स्मृति’ के रूप में जतन किया गया है। १९७३ में उसे जनता को देखने के लिए उपलब्ध कराया गया।

गाँधीजी की कुछ वस्तुओं को भी यहाँ जतन किया गया है।

अहिंसा के शस्त्र को हाथ में लेकर लड़नेवाले इन महात्माने जहाँ चिरनिद्रा ली वह स्थान यानि गाँधीजी का स्मारक ‘राजघाट’ इस नाम से जाना जाता है।

यमुना तट पर बसे राजघाट पर राष्ट्रपिता के स्मारक का निर्माण काले रंग के संगेमर्मर के पत्थरों से किया गया है। इसी राजघाट के परिसर मे अन्य कई महत्त्वपूर्ण नेताओं की यादों को स्मारकों के रूप में जतन किया गया है।

महाभारत के समय की इन्द्रप्रस्थ नामक नगरी, ढिल्ली नाम का एक गाँव इस तरह सफ़र करते करते आज बसी है दूर दूर तक फ़ैली हुई आज की दिल्ली। वह अतीत को एवं अतीत की वास्तुओं को तो सँभाले हुए है ही, साथ ही नये ज़माने के कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रही है।

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