दिल्ली भाग-२

नई दिल्ली! भारत की राजधानी। पुरानी दिल्ली से तो हमारा थोड़ा बहुत परिचय हो ही चुका है। अब जैसा कि पिछले लेख के अन्त में कहा था, हम ‘नई दिल्ली’ के बारे में प्रारम्भिक जानकारी प्राप्त करते हैं।

‘नई दिल्ली’ के नाम से ही पता चलता है कि इसकी रचना हाल ही में की गयी होगी। १९११ के दिसंबर में नई दिल्ली की रचना की नींव रखी गयी। इस शहर की रचना ‘एडविन लुटिन्स’ और ‘हर्बर्ट बेकर’ इन दो अँग्रेज़ वास्तुरचनाकारों ने की।

हुआ यूँ कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अँग्रेज़ों के राज के रूप में भारत में डेरा डाल दिया। अँग्रेज़ों की राजधानी थी कलकत्ता (उस समय का कलकत्ता और आज का कोलकाता)। साधारणत: बीसवी सदी की शुरूआत में अँग्रज़ों ने दिल्ली को उनकी राजधानी बनाने का फ़ैसला किया। दिल्ली से भारत की शासनव्यवस्था सँभालना आसान रहेगा ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ। इसीसे फिर इंग्लैड़ के तत्कालीन राजा और रानी ने अब दिल्ली यह भारत की राजधानी होगी यह घोषणा कर दी। उसके अनुसार फिर इस नयी राजधानी की यानि नई दिल्ली की नींव रखी गयी और ऊपरोक्त दो वास्तुरचनाकारों को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गयी।

हालाँकि नयी दिल्ली की नींव १९११ में रखी गयी, लेकिन उसका विस्तार पहले विश्‍वयुद्ध के बाद किया गया और यह काम १९३१ में पूरा हो गया।

फ़रवरी १९३१ में तत्कालीन व्हॉइसरॉय द्वारा इसका उद्घाटन किया गया। इस तरह नई दिल्ली साकार हुई। प्रारंभिक काल में इस नगरी के रचनाकारों में से ‘लुटिन्स’ के नाम से इसे ‘लुटिन्स की दिल्ली’ कहा जाता था। लेकिन कुछ समय बाद यह ‘नई दिल्ली’ इस नाम से जानी जाने लगी और आज भी इसका नाम वही हैं।

भारत की आज़ादी के साथ साथ ‘नई दिल्ली’ को एक नयी महत्त्वपूर्ण पहचान प्राप्त हुई, स्वतन्त्र भारत की राजधानी के रूप में। केन्द्रशासित प्रदेश (युनियन टेरिटरी) यह उसकी पुरानी पहचान थी, जो आज ‘नॅशनल कॅपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली’ बन गयी है।

लंबी चौड़ी सुव्यवस्थित सड़के, देश के अ‍ॅडमिनिस्ट्रेशन से संबंधित कई कार्यालय, जनता द्वारा शासन व्यवस्था सँभालने के लिए चुने गये प्रतिनिधियों के आवास और जी हाँ, भारत के प्रथम नागरिक के रूप में जिन्हें सम्मानित किया जाता है, उन राष्ट्रपति का आवास यानि ‘राष्ट्रपति भवन’ यह तो नई दिल्ली का केन्द्रबिन्दु ही है। साथ ही हमारे देश की राज्यव्यवस्था का मूलाधार रहनेवाला ‘संसद भवन’ यानि पार्लियामेंट हाऊस और जनतन्त्र दिवस (२६ जनवरी) की परेड़ जिस विशाल सड़क पर होती है, वह ‘राजपथ’। इन सभी महत्त्वपूर्ण स्थलों से हम अख़बार, तसबीरें या दूरदर्शन के जरिये परिचित रहते हैं।

वैसे दिल्ली कहते ही हमारी आँखो के सामने सबसे पहले दो महत्त्वपूर्ण नाम आते हैं और उनसे हमारा थोड़ा बहुत परिचय भी हुआ है, ऐसा हम कह सकते हैं।

विस्तार और आकार की दृष्टि से बहुत ही विशाल रहनेवाली दिल्ली का विस्तार समय के विभिन्न पड़ावों पर होता रहा। इस विस्तार के क्रम को देखना भी दिलचस्प है।

कहा जाता है कि समय के विभिन्न पड़ावों पर इस दिल्ली की भूमि पर एकाद-दो नहीं बल्कि सात विभिन्न नगरों को बसाया गया। उनमें से अधिकांश तो आज महज़ अवशेषों के रूप में अस्तित्व में हैं।

इनमें से सर्वप्रथम नगर बसाने का श्रेय दिया जाता है, ‘अनंगपाल’ नाम के तोमर वंशीय राजा को। कइयों की राय में वे ही दिल्ली के पहले नगर के निर्माणकर्ता थे। तत्कालीन साहित्य से यह जानकारी मिलती है कि इन राजा ने यहाँ पर ‘लालकोट’ नाम की रचना का निर्माण किया। आगे चलकर पृथ्वीराज नाम के राजा ने यहाँ की रचना में ‘क़िला राय पिथोरा’ इस वास्तु का निर्माण कर वृद्धि की और फिर इस नगर का नाम ‘क़िला राय पिथोरा’ हो गया। आज यहाँ पत्थरों से बनी दीवार, उसमें बने प्रवेशद्वार और क़िला इनके अवशेष बचे हैं।

दिल्ली पर काफ़ी समय तक मुग़लों का राज था। इसीलिए दिल्ली की भूमि पर इसके बाद नगर निर्माण करनेवाले शासक मुग़ल ही थे।

यहाँ की भूमि पर दुसरा नगर बनाया अल्लाउद्दीन खिलजीने, जिसे ‘सिरी’ कहा जाता था और वहाँ बड़ी झील का निर्माण किया गया था। यह झील ‘हौज-इ-अलाय’ इस नाम से जानी जाती थी। बाद में वह ‘हौज खास’ इस नाम से जाने जाने लगी। आज भी यहाँ पर इस नगरी की यादें अवशेषों के रूप में बाक़ी हैं।

कुछ लोगों की राय में ‘सिरी’ की स्थापना होने से पहले कुतुबद्दिन ऐबक़ ने ‘कुतुबनगर’ या ‘मेहरौली’ की स्थापना की थी। मशहूर ‘कुतुबमीनार’ जहाँ है, उसके इर्दगिर्द यह कुतुबनगर बसा था।

दिल्ली के शासक जैसे जैसे बदलते गये, वैसे वैसे नये नगरों की रचना होती रही और पहले बसाये गये नगर उसके साथ जुड़ते गयें।

दूसरें नगर से लेकर ठेंठ सातवे नगर के निर्माण तक दिल्ली के प्रदेश के प्रत्येक नगर के निर्माणकर्ता मुग़ल शासक ही थे। इसीलिए यहाँ की वास्तुओं पर, ख़ास कर जो पुरानी वास्तुएँ आज भी सुस्थिती में है, उनकी रचना में मुग़ल वास्तुशैली कर प्रभाव सा़ङ्ग सा़ङ्ग दिखायी देता है।

आगे के तीन नगरों की स्थापना तुघलक राजवंश के विभिन्न शासकों ने विभिन्न कालखण्डों में की। घियासुद्दीन तुघलक ने ‘तुघलकाबाद’ नाम के नगर का निर्माण किया। इस पूरे नगर के आसपास बरसाती जल का संचय करनेवाला एक तालाब भी बनाया गया था, ऐसा भी कहते हैं। आज वह अस्तित्व में नही है। मग़र कुछ दीवारों के अवशेष और नगर के निर्माणकर्ता की याद आज यहाँ हम देख सकते हैं।

इसके बाद ‘मुहम्मद बिन तुघलक’ ने बसाया ‘जहापनाह’ नामक नगर।

इस भूमि पर पाँचवें शहर के रूप में ‘फ़िरोज़शाह तुघलक’ ने ‘फ़िरोज़ाबाद’ का निर्माण किया। इसका विस्तार बहुत बड़ा था और नगर के चारों ओर ऊँची चहारदीवारी बनायी गयी थी और नगर में कई हवेलियाँ भी थी। कई सभागार, प्रार्थनास्थल और झीले भी थी। इनमें से एक थी, पहले बनायी गयी ‘हौज ख़ास’। आज भी इस हौज ख़ास के अस्तित्व का पता हमें इस झील में उतरने के लिए बनायी गयी कुछ टूटी हुई सीढ़ियों से चलता है।

इसके बाद बनाया गया छठा शहर, जिसका नाम था – ‘दिन-ए-पनाह’। लेकिन यह इस नाम के बजाय ‘पुराना क़िला’ इस नाम से ही जाना जाता था।

देखिए, बातों बातों में पाँचवे नगर के बारे में एक महत्त्वपूर्ण बात बताना तो भूल ही गयी। यह पाँचवाँ शहर जहाँ पर बसा था, वह इलाक़ा आज ‘कोटला फ़िरोज़शाह’ इस नाम से जाना जाता है और ‘फ़िरोज़शाह कोटला’ को तो क्रिकेटप्रेमी भली भाँति जानते ही हैं।

तो ‘पुराना क़िला’ यह छठा शहर शेरशाह ने बसाया। कुछ लोगों का कहना है कि हुमायूँ ने इसे बसाना शुरू किया और शेरशाह ने इस काम को पूरा किया।

इस नगर में ‘शेरमण्डल’ नाम की दो मंजिलाँ वास्तु थी। लाल रंग के पत्थरों और संगेमर्मर से इसे बनाया गया था।

इसके बाद दिल्ली के सातवें शहर का निर्माण शाहजहाँ ने किया, जिसका नाम था – ‘शाहजहाँबाद’। शाहजहाँबाद के निर्माण से पहले शाहजहाँ आग्रा से हुकूमत करता था। लेकिन यकायक ही उसने दिल्ली के इला़के में शाहजहाँबाद का निर्माण कर वहाँ से हुकूमत करना शुरू कर दिया। यहाँ की प्रमुख वास्तुओं का निर्माण लाल रंग के पत्थरों से किया गया। जब इस शहर का निर्माणकार्य जारी था तब उसका वर्णन करनेवाला अनामिक वर्णनकार कहता है कि इस नगर का निर्माण करने के लिए शाहजहाँ ने संपूर्ण साम्राज्य में से कई रचनाकारों और मज़दूरों को यहाँ पर लाया था। लाल रंग के पत्थरों को यहाँ तक ले आने के लिए आग्रा के आसपास के प्रदेश में हज़ारों गाडियाँ रवाना की जा रही थी, जो आग्रा से लाल पत्थर लेकर लौटती थी। इनकी आवाजाही इतनी थी कि मानों आज कल के ट्रॅ़फिक जॅम जैसे हालात वहाँ की सड़कों पर उस समय बन जाते थे।

जैसे जैसे यह शहर बनने लगा, वैसे वैसे कई आलिशान वास्तुएँ बनती गयीं। ज़ाहिर है कि उनमें भी राजा से संबंधित वास्तुएँ और साथ ही वहाँ के निवासियों के लिए बनायी गयीं वास्तुएँ थी।

‘दिवान-ए-आम’ यह जहाँ सभी नागरिकों की राजा से मुलाक़ात होती थी, वह हॉल था और चुनिंदा लोगों को राजा से मिलने के लिए ‘दिवान-ए-ख़ास’ बनाया गया था।

इस दिवान-ए-ख़ास के पीछे ही छ: राजमहल बनाये गये थे, जिन में राजा अपने परिवार के साथ रहता था। उनके नाम भी बड़े दिलचस्प थे। उनमें रंगमहल, शीशमहल,ख़्वाबगाह इनके साथ ‘सावन भादों’ नाम की दो वास्तुओं का समावेश था।

सावन भादों का निर्माण बारिश के उपलक्ष्य में किया गया था। तो कुल मिलाकर यह सातवाँ नगर पूर्ववर्ती नगरों से अधिक विस्तृत था, ऐसा इस वर्णन से हमें पता चलता है। लेकिन समय के साथ साथ ‘कालाय तस्मै नम:’ कहते कहते इनमें से कई वास्तुओं की पहचान मिट गयी। लेकिन उस समय का ‘शाहजहाँबाद’ आज की पुरानी दिल्ली में एकरूप हो गया।

समय के विभिन्न पड़ावों पर दिल्ली की सर ज़मीन पर बने इन सात नगरों के बारे में जानकारी तो हमने प्राप्त कर ली; लेकिन दिल्ली से हमारा परिचय है, ‘नई दिल्ली’ और ‘पुरानी दिल्ली’ इस रूप में। तो फिर इसी परिचय को आगे बढ़ाते हुए अगला सफ़र करेंगें।

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