दिल्ली भाग-१

१९९० के दशक का समय था। वर्ष कौनसा था, यह तो अब याद नहीं आ रहा है। रेल तेज़ी से दौड़ रही थी। घर छोड़कर बारह घण्टों से भी अधिक समय बीत चुका था और रेल की तेज़ी के साथ साथ इच्छित स्थल तक पहुँचने की हमारी बेसब्री भी बढ़ती जा रही थी।

….और आख़िर हम वहाँ पहुँच ही गये। दिल्ली! हमारे भारत की राजधानी!

 

भारत की आर्थिक राजधानी में रहने के बावजूद भी मन में पहले से ही अपने देश की राजधानी के बारे में एक कुतूहल एवं खींचाव की भावना तो थी ही। कैसी होगी हमारे देश की राजधानी? और उससे हुई पहली ही मुलाक़ात में इस कुतुहल का शमन होना शुरू हो गया। उसके बाद भी उससे हुई हर मुलाक़ात में उसकी सुन्दरता, उसके केन्द्रवर्ती होने की महत्त्वपूर्णता इन बातों का परिचय भी होता रहा।

१९८० के दशक में एशियाई खेलों (एशियाड) का प्रतीक रहा अप्पू, जंतर मंतर इन बातों से दिल्ली का परिचय होने लगा था। उस समय स्कूली किताबों में से दिल्ली के इतिहास एवं भूगोल के बारे में पढ़ने मिल ही रहा था। मग़र तब भी वहाँ जाकर प्रत्यक्ष रूप में देखने का मज़ा कुछ और ही होता है। है ना!

तो चलिए, आज हम शब्दों की गाड़ी में सवार होकर दिल्ली की सैर करना शुरू करते हैं।

भारत की राजधानी यह दिल्ली की एक ख़ासियत तो है ही। केन्द्रशासित प्रदेश (युनियन टेरिटरी) यह भी उसकी पुरानी पहचान थी। लाल क़िला, इंडिया गेट, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, राजपथ, राजघाट, कुतुबमीनार ये सभी अवश्य ही दिल्ली की पहचान हैं । दर असल इन सब के सहभाग से ही दिल्ली की अपनी एक अलग पहचान है। आज भी १५ अगस्त और २६ जनवरी इन दो दिनों में हर एक भारतीय को कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन दिल्ली के दर्शन होते ही है।

तो ऐसी यह दिल्ली इसा पूर्व समय से अस्तित्व में है, ऐसा कहा जाता है। उसके बाद साधारणत: इसापूर्व छठी सदी से लेकर आज तक दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़े में आबादी बस रही है।

दिल्ली का संबंध ठेंठ पाण्डवों के साथ जुड़ा हुआ है, ऐसा भी कहा जाता है। कहते हैं कि पाण्डवों की ‘इन्द्रप्रस्थ’ नाम की राजधानी यहीं पर थी।
बदलते समय के साथ साथ दिल्ली के इतिहास और भूगोल में काफ़ी परिवर्तन आते रहे और उन सबके परिणाम स्वरूप आज की दिल्ली बनी है।

यमुना नदी के तट पर बसी इस नगरी का नाम ‘दिल्ली’ कैसे हुआ, इस संदर्भ में भी मनोरंजक इतिहास पर ग़ौर करते हैं और हमारी जानकारी को बढ़ाते हैं।

पुराने ज़माने में इस शहर का नाम ‘धिल्लु’ या ‘दिलु’ था। इनमें से ‘दिलु’ यह नाम इस नगरी को बसानेवाले राजा का है, ऐसा भी कहा जाता हैं। इसापूर्व पहली सदी में मयूरवंश के किसी दिलु नाम के राजा ने इस नगरी को बसाया और उसीके नाम से यह नगरी ‘दिलु’ इस नाम से जानी जाने लगी। कुछ लोगों की राय में दिलु नाम के राजा इसापूर्व ५० में यहाँ के शासक थे और उन्होंने ही इस नगरी को बसाकर उसे अपना नाम दिया।

अब देखते हैं, ‘धिल्लु’ इस नाम का इतिहास। धिल्लु यह शब्द ‘ढिली’ इस शब्द से बना है, ऐसा माना जाता है। ढिला यानि शिथिल, ‘लूज़’ । इस ढिल्ली शब्द से ही आगे चलकर इस शहर का नाम ‘धिल्लु’ पड़ गया। इस संदर्भ में एक कथा भी कही जाती है।

तोमर राजवंश के एक राजा थे।कुछ लोगों की राय में उनका नाम ‘अनंगपाल’ था, वहीं कुछ लोग कहते हैं कि उनका नाम ‘धव’ था। इन राजा ने दिल्ली की भूमि में एक लोहस्तम्भ का निर्माण किया। किसीने राजा से कहा कि यह लोहस्तंभ ज़मीन में ठेंठ शेष के माथे से जा सटा है, इसलिए जब तक यह स्थिर रहेगा, तब तक आपकी हुकुमत क़ायम रहेगी। इस बात को सुनने के बाद सच-झूठ का फ़ैसला करने के लिए राजा ने उस गढ़े हुए लोहस्तंभ को ज़मीन से निकालकर देखने की आज्ञा दी। वैसा करने पर जब उस लोहे के खम्भे के ज़मीन में धसे हुए छोर को निकाला गया, तब वहाँ पर खून लगा हुआ दिखायी दिया। उसे देखकर राजा ने उसे पुन: पहले जैसे ज़मीन में गढ़ने की आज्ञा दी। हालाँकि उस स्तंभ को पुन: वैसा स्थापित किया गया, लेकिन वह अब पहले जैसा मज़बूती से नहीं गढ़ सका यानि थोड़ा सा ‘ढीला’ रह गया और फ़िर ढीला लोहस्तंभ रहनेवाले इस शहर का नाम ‘धिल्लु’ या ‘ढिल्ली’ हो गया। समय के साथ साथ ढिल्ली का रूप बदलकर दिल्ली हो गया, ऐसा माना जाता है।

१२-१३ वीं सदी के किसी कवि की रचना में ‘ढिल्ली नामेण’ यह उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख दिल्ली के मूल ढिल्ली इस नाम की पुष्टी करनेवाला माना जाता है। यह कवि ढिल्ली नामक नगरी उस समय राजधानी थी, ऐसा भी उल्लेख करता है।

अन्य एक स्थान पर ‘ढिली’ इस नाम के बजाय ‘धिल्लिका’ यह भी इस नगरी का उल्लेख किया गया है।

तोमर राजवंश जब यहाँ का शासक था, उस समय चलन के रूप में जिन सिक्कों का इस्तेमाल किया जाता था, उन्हें ‘देहलीवाल’ कहा जाता था, यह जानकारी भी प्राप्त होती है।

दिल्ली इस शब्द का संबंध ‘देहली’ इस शब्द के साथ भी जोड़ा गया है। ‘देहली’ का अर्थ है दहलीज़। जहाँ से घर में प्रवेश करते हैं और घर से बाहर निकलने के लिए जिसे पार करना पड़ता है, वह चौखट है दहलीज़। ‘देहली’ का अपभ्रंश होकर ‘दिल्ली’ यह नाम बना है, ऐसा भी माना जाता है।

दिल्ली यह उत्तरी भारत में प्रवेश करने का प्रमुख स्थल माना जाता था और आज भी यह बात सच ही है। उत्तरी भारत के कई स्थानों तक जाने के लिए दिल्ली से होकर जाना तब भी अपरिहार्य था और आज भी है और शायद इसीलिए उसे ‘देहली’ कहा जाता होगा। इतना ही नहीं, बल्कि सम्राट अशोक के एक शिलालेख से हमें दिल्ली का स्थान भौगोलिक दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है, इसका पता चलता है।

यह शिलालेख कहता है कि मौर्य राजवंश के शासनकाल में उनकी राजधानी रहनेवाले पाटलीपुत्र से तक्षशिला तक जानेवाले मार्ग में दिल्ली यह बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था।

अत एव ऐतिहासिक दृष्टि से दिल्ली जितनी महत्त्वपूर्ण है, उतनी ही भौगोलिक दृष्टि से भी वह महत्त्वपूर्ण है। दर असल कुछ विशेषज्ञों की राय में दिल्ली के भौगोलिक महत्त्व के कारण ही उसे कई शासकों की राजधानी बनने का सम्मान प्राप्त हुआ।

आबादी की दृष्टि से यहाँ पर लोगों का बसना कब से शुरु हुआ यह देखा जाये तो इस शहर का इतिहास बहुत ही विस्तृत हैं।

हालाँकि इसापूर्व इस शहर की स्थापना हुई थी, मग़र तब भी उस समय के बारे में लिखित इतिहास आज उपलब्ध नहीं है। यहाँ पर लोगों का बसना तो महाभारत के समय से ही शुरु हुआ था। पाण्डवों की ‘इन्द्रप्रस्थ’ नाम की राजधानी यहीं पर थी, ऐसा कहा जाता है। उस समय के बाद काफ़ी समय तक क्या यह नगरी कहीं खो गयी थी, ऐसा लगता है। क्योंकि इन्द्रप्रस्थ के बाद इस नगरी का उल्लेख अशोक के शिलालेखों में मिलता है और उसके बाद इसा की कालगणना शुरु होने के बाद आठवीं सदी में यहाँ तोमर राजवंश का राजा था यह उल्लेख मिलता है।

हालाँकि दिल्ली की वास्तुओं से हम उनके नाम से या उनकी तसबीरों के माध्यम से परिचित रहते है, लेकिन ‘नई दिल्ली’ और ‘पुरानी दिल्ली’ इस तरह साधारणत: सभी इसके बारे में जानते हैं। आइए, तो फ़िर इस पहचान को बढ़ाते हुए दिल्ली के अन्तरंग में प्रवेश करते हैं।

पुरानी और नयी इन शब्दों से कोई भी यह बड़ी आसानी से समझ सकता है कि पुरानी दिल्ली पहले बसी है और नई दिल्ली कुछ ही दशक पूर्व बसी है।

चहारदीवारी रहनेवाला शहर यह पुरानी दिल्ली की पहचान है। अब समय की धारा में यह चहारदीवारी नष्ट हो चुकी है। लेकिन चहारदीवारी कहते ही हम समझ सकते हैं कि उसमें से शहर में दाखिल होने के लिए कुछ प्रवेशद्वार (गेट्स्) अवश्य ही बनवाये गये होंगें। आज भी इनमें से कुछ प्रवेशद्वारों का अस्तित्व उनके नाम के रूप में विद्यमान हैं। इस पुरानी दिल्ली में कई गेट्स् हैं। उत्तर दिशा में काश्मिरी गेट और मोरी गेट, पश्‍चिम में काबुली गेट और लाहोरी गेट, आग्नेय दिशा में तुर्कमान गेट और अजमेरी गेट, तो ईशान्य दिशा में निगमबोध गेट और दक्षिण में दिल्ली गेट।

इनमें से किसी भी गेट के जरिये पुरानी दिल्ली में जा सकते थे। दर असल पुरानी दिल्ली को शाहजहाँ ने बसाया था, ऐसा भी कहा जाता है।

शाहजहाँ ने सतरहवी सदी के पूर्वार्ध में ‘शाहजहाँबाद’ इस नाम से इस शहर की स्थापना की। वहाँ से लेकर मुग़ल सल्तनत के अन्त तक यह राजधानी रही। उस समय के सरदारों की आलिशान हवेलियाँ, महल इनके साथ साथ बनाये गये खूबसूरत बग़ीचे यह पुरानी दिल्ली की श़क़्ल थी। वहीं आज चहलपहलवाला शहर यह इसका चेहरा बन गया है।

पुरानी दिल्ली की चहारदीवारी शुरुआत में मिट्टी से बनायी गयी थी। सतरहवी सदी में उसे लाल रंग के पत्थरों से बनवाया गया। इस चहारदीवारी की चौड़ाई बारह फ़ीट और ऊँचाई छब्बीस फ़ीट थी, ऐसा कहा जाता है।

इस पुरानी दिल्ली की एक वास्तु से हम सभी सुपरिचित हैं। १५ अगस्त और २६ जनवरी को जहाँ पर हमारे तिरंगे को बड़े शान से सम्मानपूर्वक लहराया जाता है, वह लाल क़िला। दर असल नयी दिल्ली से आज ही परिचित होने की मन्शा थी; लेकिन कोई बात नहीं, हम थोड़ा सा विश्राम करके नयी दिल्ली की ओर प्रस्थान करते हैं।

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