दिल्ली भाग-८

दिल्ली, भारत की राजधानी। अतीत और वर्तमान का एक खूबसूरत मिलाप। दिल्ली के चाँदनी चौक में जिस तरह लोगों की भीड़ उमड़ती रहती है, वैसे ही प्रगति मैदान भी लोगों के आकर्षण का केन्द्र है। प्रगति मैदान में स्थायी रूप से विभिन्न प्रकार के उत्पादों का मेला लगा रहता है। दर असल अब तक हम दिल्ली के बारे में काफ़ी कुछ जान चुके हैं। आज़ाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री से लेकर विद्यमान राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री तक सभी केआवास स्थल दिल्ली में ही रहे हैं, यह भी दिल्ली की एक ख़ासियत है।

चालिए, अब दिल्ली के कुछ अन्य स्थलों को देखते हैं।

देखिए, कुछ ही दूरी पर सफ़ेद रंग की एक वास्तु दिखायी दे रही है। ध्यान से देखने पर हमारी समझ में यह आता है कि किसी आधे खिले हुए फूल की तरह उसका आकार है।

यह सफ़ेद रंग की वास्तु जानी जाती है, ‘लोटस टेंपल’ इस नाम से। लोटस टेंपल- कमल की तरह दिखायी देनेवाला प्रार्थनास्थल। इसीलिए पहले मैंने यह कहा कि किसी आधे खिले हुए फूल की तरह इसकी रचना है और उसे देखने पर हम बड़ी आसानी से यह समझ सकते हैं।

२६ एकर्स की विशाल भूमि पर बनाया गया यह ‘बहाई पंथ’ का खूबसूरत प्रार्थना स्थल है। दूर से देखने पर यह कमल के आधे खिले हुए फूल की तरह दिखायी देता है और इसीलिए इसका नाम ‘लोटस टेंपल’ है।

साधारणत: १९७६ में इसका निर्माणकार्य शुरू हो गया और १९८६ में उसे पूरा किया गया। उसके बाद यह प्रार्थनास्थल कार्यान्वित हुआ।

कमल की २७ सफ़ेद पंखुड़ियाँ, यह लोटस टेंपल की हमें बाहर से दिखायी देनेवाली रचना है। इनमें से हर पंखुड़ी को सफ़ेद संगेमर्मर के पत्थर में से विशिष्ट पद्धति द्वारा तराशा गया है। संक्षेप में कहा जाये तो इन २७ पंखुड़ियों से ही इस वास्तू की दिवारें और छत बने हैं। इन पंखुड़ियों के तलीय प्रदेश में यानि ज़मीन पर झीलों को बनाया गया है। मानों जल में जैसे कोई सफ़ेद रंग का सुन्दर कमल खिला हुआ हो।

इस मुख्य रचना के साथ साथ इसके आसपास के इलाके को भी बख़ूबी सजाया गया है। इस प्रार्थनास्थल में प्रवेश करने के लिए कुल ९ प्रवेशद्वार हैं, ऐसा कहा जाता है और इनमें से किसी भी प्रवेशद्वार में से प्रवेश करने पर आप एक विशाल सभागार (हॉल) में दाखिल हो जाते हैं। इस सभागार में लगभग २५०० लोक एकसाथ बैठ सकते हैं, इतना यह विशाल है।

तो ‘चंद कुछ ही दशक पूर्व संगेमर्मर में तराशी गयी एक लाजवाब वास्तु’, इस तरह हम ‘लोटस टेंपल’ का वर्णन कर सकते हैं।

अब तक हम दिल्ली के कई मशहूर स्थल देख चुके हैं। अब ज़रा ‘कुछ हटकर’ रहनेवाले स्थानों को भी देखते हैं।

दरअसल मैं बात कर रही हूँ, दिल्ली के म्युज़ियम्स की। अब आप शायद इस सोच में पड़ गये होंगे कि म्युज़ियम्स तो अन्य शहरों में भी रहते हैं, फिर यहाँ के म्युज़ियम्स की ऐसी क्या विशेषता हो सकती है?

क्या आप रेलगाडी में सँवार होना चाहते हैं? अब इस सवाल को सुनने के बाद अधिकतर लोग यही कहेंगे कि हम तो हज़ारों मर्तबा रेल से यात्रा कर चुके हैं; अब दिल्ली की इस सैर में रेल में बैठने में भला क्या नयी बात है?

लेकिन यह रेल हमारी रोजमर्रा के भागदौड़ के जीवन की रेल की तरह नहीं है, बल्कि आराम से, मज़े से सफ़र करानेवाली रेल है। यदि इसमें सँवार होना है, तो हमं जाना पड़ेगा दिल्ली के ‘नॅशनल रेल म्युज़ियम’ में।

इस रेल म्युज़ियम के दोन हिस्सें हैं। एक विशाल सभागार के विभिन्न विभागों में ‘रेल’ के संदर्भ में सारी जानकारी दी गयी है और बाहर के हिस्से की रचना इस तरह की गयी है कि वहाँ जाने के बाद हमें मानों ऐसा लगें कि जैसे हम किसी यार्ड में खड़े हैं। यहाँ की छोटी बड़ी पटरियों पर कई रेलगाड़ियों के इंजन और कुछ इंजनों के साथ एकाद डिब्बा दिखायी देते हैं। साथ ही इस रेल म्युज़ियम में कई विशेषतापूर्ण गाड़ियों के मॉडेल्स भी रखे गये हैं।

जिस छोटीसी आरामदेह रेलगाड़ी का हमने ज़िक्र किया, वह इसी यार्ड की तरह प्रतीत होनेवाले विभाग में दौड़ती है।

चलिए, तो फिर कई सालों तक बरसात, धूप आदि का सामना करते हुए अपनी राह पर चल चुकीं पुरानी रेलगाड़ियों को भी क्यों न देखा जाये!
दुनिया का सबसे पुराना स्टीम लोकोमोटिव्ह इंजन यानि भाप से चलनेवाला इंजन यहाँ हम देख सकते हैं। सबसे ख़ास बात यह है कि आज भी यह इंजन भली भाँति काम कर रहा है। चंद कुछ वर्ष पूर्व तक इसी भाप के इंजन द्वारा रेलगाड़ियाँ दौड़ रही थीं।

इस भाप के इंजन को ‘फेरी क्वीन’ कहा जाता है। १८५५ में इसका निर्माण किया गया। इंग्लैंड़ में बनने के बाद इसे सर्वप्रथम कोलकाता लाया गया। उस समय इसकी मालिक थी, ‘ईस्ट इंडियन रेल्वे’। पश्‍चिम बंगाल, बिहार की पटरियोंपर से कुछ अरसे तक दौड़ने के बाद यह इंजन लोगों के कुतूहल का विषय बना और बाद में उसे प्रदर्शनार्थ भी रखा गया। कुछ साल बाद उसे पुन: पटरियों पर लाया गया। इतने वर्ष बाद भी उसका दौड़ना यह फिर एक बार लोगों की उत्सुकता का विषय बन गया।

भाप के इंजन का ज़माना उसके द्वारा हवा में छोड़े गये धुए की तरह ही पीछे पड़ गया और रेलगाड़ी बिजली यानि इलेक्ट्रिसिटी की सहायता से दौड़ने लगी, आज भी दौड़ रही है। इलेक्ट्रिसिटी से चलनेवाला पहला इंजन भी यहाँ हम देख सकते हैं।

अँग्रेज़ों ने भारत में आने के कुछ वर्ष पश्‍चात् रेल की शुरुआत की। उस समय भारत में कई छोटी बड़ी रियासतें थीं और वहाँ के रियासतदारों ने अपने राज्य में विकास की दृष्टि से रेलगाड़ियों की शुरुआत की थी। ग़ौर करने लायक बात यह है कि उस ज़माने की रेलगाड़ियाँ आज की रेलगाड़ियों से काफ़ी अलग थीं और छोटी भी थीं। ऐसा होना तो स्वाभाविक ही है क्योंकि वह तो रेल के सफ़र का शुरुआती दौर था। आज तकनीक काफ़ी विकसित हो चुकी है। अत एव उस ज़माने की रेलगाड़ियाँ, जिन्हें आज हम ‘टॉय ट्रेन’ कहते हैं, उस तरह की दिखायी देती हैं। उस समय रेल की पटरियाँ भी आज की पटरियों जितनी मोटी नहीं थीं।

बस्सी और सरहिंद के बीच दौडनेवाली, उस ज़माने के ‘पतियाला स्टेट’ की मोनोरेल भी हम यहाँ देख सकते हैं। इसकी रचना भी अनोखी है। भाप से चलनेवाली इस रेल का निर्माण १९०७ में किया गया और अक्तूबर १९२७ तक वह पटरियों पर से दौड़ रही थी। उसके बाद वह अतीत का हिस्सा बन गयी। विस्मृति में जा चुकी इस रेल की खोज एक खोजकर्ता ने की और उसे यहाँ पर लाया गया।

अब राजा महाराजाओं की बात चली है तो रेल म्युज़ियम के कुछ ख़ास रेल डिब्बों का ज़िक्र करना ही पड़ेगा।

यहाँ पर उस जमाने के राजाओं द्वारा निजी इस्तेमाल के लिए रेलगाड़ी के डिब्बों में बनवाये गये ख़ास सलून्स भी यहाँ हम देख सकते हैं।
इन सब के अलावा लगभग सौ पुरानी एवं नयी रेलगाड़ियों के मॉडेल्स भी यहाँ पर हैं।

यह बात निश्‍चित है कि रेल और इन्सानों के बीच के गत कई वर्षों के क़रीबी रिश्ते का एहसास हमें इस ‘रेल म्युज़ियम’ में होता है। रेल में सँवार होने में ख़ास दिलचस्पी न रखनेवाले यात्री भी इस म्युज़ियम को देखना अवश्य पसंद करेंगे, इसमें कोई दोराय नहीं है।

देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली में कई म्युज़ियम्स हैं। विशिष्ट विषय से जुड़े म्युज़ियम से लेकर राष्ट्रीय नेताओं की यादों को जतन करनेवाले म्युज़ियम तक कई म्युज़ियम्स यहाँ हैं। कला, संस्कृति, संगीत, पुरातत्त्वशास्त्र, मानवीय विकास, विज्ञान इन जैसे विभिन्न विषयों से जुडे म्युज़ियम्स भी दिल्ली में हैं।

जिस तरह पटरियों पर से दौड़नेवाली रेलगाड़ी यहाँ के म्युज़ियम में है, उसी तरह ऊँचें आसमान में उड़नेवाले हवाई जहाज़ों का भी एक म्युज़ियम यहाँ है।

संपूर्ण भारतवर्ष की हस्तकला, वस्त्रकला, धातुकला इन म्युज़ियम्स के माध्यम से हम देख सकते हैं। साथ ही एक आदर्श भारतीय गाँव को भी म्युज़ियम में देखा जा सकता है।

विज्ञान की प्राथमिक खोज से लेकर आज के मोबाईल, इंटरनेट, आयपॉड के युग तक का विज्ञान का सफ़र भी हम म्युज़ियम में देख सकते हैं। साथ ही ईश्‍वर द्वारा निर्मित ‘मानवशरीर’ इस जटिल रचना की ख़ूबियों को भी म्युज़ियम में देखा जा सकता है। विकास के किसी पड़ाव पर मानव अपने मन एवं अपनी बुद्धि द्वारा मूर्तियों तथा शिल्पाकृतियों को साकार करने लगा। मानवविकास के इन पड़ावों को म्युज़ियम के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है।

गुड़िया तो आपने देखी ही होगी। अब म्युज़ियम्स की सूचि में यह खिलौने की गुड़िया कहाँ से आ गयी, ऐसा आप सोच रहे होंगे। छोटी सी गुड़िया से शुरू हो चुका गुड़ियों का सफ़र आज कितना विकसित हो चुका है! महिलाओं की दिलचस्पी का विषय रहनेवाली गुड़ियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने में कोई हर्ज़ नहीं है। चलिए, तो फिर अगले लेख में हम इन गुडियों की अनोखी सी दुनिया की सैर करेंगे।

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