दिल्ली भाग-६

दिल्ली, इतिहास, अतुलनिय भारत, अमर जवान ज्योति, दिल्ली, भारत, भाग-६जिसकी उम्र लगभग सोलह सौ वर्ष की है और इतने सालों से धूप, बरसात, ठंड को सहते हुए आज भी जो बिलकुल तंदुरुस्त है, ऐसा यह दिल्ली के कुतुबमीनार के परिसर में स्थित ‘लोहस्तम्भ’।

घर के या अन्य कामों में इस्तेमाल किये जानेवाले लोहे की चीज़ों का कितना ध्यान रखना पड़ता है ना! यदि उसकी ठीक से देखभाल न की जाये तो क्या होता है, यह तो लगभग हम सभी जानते ही हैं। लोहे के बारे में सबसे पहला डर रहता है, जंग पकड़ने का। तो फिर सोलह सौ वर्ष की आयु का यह स्तम्भ आज भी इतना तंदुरुस्त कैसे हैं?

इस रहस्य का पता हमारे भारत के खोजकर्ताओं ने हाल ही में लगाया है। इससे हमें यह ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय धातुशास्त्र कितना विकसित था।

खोजकर्ताओं ने इस लोहस्तम्भ के जंग न पकड़ने के रहस्य की खोज कर उसे हमें बताया। यह स्तम्भ ‘रॉट आयर्न’ से यानि जिसमें कार्बन का प्रमाण बहुत ही कम होता है उस लोहे से बना है। इस रॉट आयर्न को आसानी से ङ्गैलाया जा सकता है, ठोका जा सकता है और वेल्डिंग भी किया जा सकता है। इसके इसी गुणधर्म की वजह से प्राचीन समय में इससे कई उपकरणों तथा युद्धविषयक सामग्री का निर्माण किया जाता था और इसीलिए उपकरणनिर्माण की प्रक्रिया में इस लोहे को ‘शुद्ध लोहा’ माना जाता था।

दिल्ली, इतिहास, अतुलनिय भारत, अमर जवान ज्योति, दिल्ली, भारत, भाग-६इसे जंग न पकड़ने के कारण के बारे में यह जानकारी मिलती है कि इस स्तम्भ पर ‘मिसाविट’ नामक एक स्तर (लेअर) बना है, जिससे कि आज तक इसपर जंग नहीं जमी है। संक्षेप में, उसे जंग न पकड़ने का राज है, इसपर बना ‘मिसाविट’ का स्तर। आयर्न (लोहा) ऑक्सीजन और हायड्रोजन इनकी परस्पर प्रक्रिया में से बना मिसाविट इस स्तम्भ के निर्माण के पश्चात महज़ तीन वर्षो में ही इस पर बनने लगा और इसी वजह से यह स्तम्भ ज्यों का त्यों बना रहा। समय के साथ साथ मिसाविट का यह सुरक्षाकवच भी बढ़ता ही रहा। आज इतने हज़ार वर्षो बाद यह स्तर कितना मोटा बन चुका होगा? क्या आप कुछ अनुमान कर सकते हैं? शायद वह बढ़कर इतना मोटा हो चुका होगा कि उसे नापना भी मुमक़िन न हों, ऐसा आप सोच रहे होंगे। लेकिन खोजकर्ताओं की राय में इतने वर्षो की अवधि में यह सुरक्षा स्तर मिलिमीटर के १/२० वें हिस्से जितना भी नहीं बढ़ा हैं।

अब यह सुरक्षा स्तर इस स्तम्भ पर जमने की वजह है, लोहस्तम्भ के लोहे में मौजूद फॉस्फरस का अधिक प्रमाण और इस प्रमाण को उचित रखने का श्रेय जाता है, प्राचीन समय की लोहनिर्माण की प्रक्रिया को।

संक्षेप में, यह लोहस्तम्भ एक मिसाल है, प्राचीन भारतीय धातुविषयक विकसित ज्ञान की।

लोहे की इस चर्चा से शायद आपका मन अब उब चुका होगा, तो आइए दिल्ली की सड़कों पर से सैर की जाये।

दिल्ली, इतिहास, अतुलनिय भारत, अमर जवान ज्योति, दिल्ली, भारत, भाग-६२६ जनवरी! हमारे भारत का जनतन्त्र दिवस (रिपब्लिक डे)। इस दिन हम एक लंबी चौड़ी सड़क पर चल रही शानदार परेड देखते हैं। यह परेड़ जितनी शानदार होती है, उतनीही शानदार वह सड़क भी है, जिसपर यह परेड़ होती है। उस सड़क का नाम भी उतना ही दिलचस्प है – ‘राजपथ’।

राजपथ! दिल्ली की एक महत्त्वपूर्ण सड़क। लुटिन्स की नयी दिल्ली की रचना में राजपथ को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान था। राष्ट्रपति भवन, विजय चौक, इंडिया गेट, नॅशनल स्टेडियम इन जेसे महत्त्वपूर्ण स्थानों को छूता हुआ यह ‘राजपथ’ मन को मोह लेता है।

लंबी चौड़ी इस सड़क के दोतरफ़ा लुभावनी हरियाली, छोटी छोटी झीलें और खुली जगह ऐसा नज़ारा दिखायी देता है।

राजपथ इस नाम से ही हमारी समझ में आता है कि यह पथ पुराने समय में राजमार्ग होगा, इसका ठाटबाट कुछ अनोखा ही होता होगा। राजा जितनी उसकी प्रजा भी महत्त्वपूर्ण होती है और इसीलिए दिल्ली की अन्य एक महत्त्वपूर्ण सड़क का नाम है – जनपथ।

दर असल यह सड़क भी लुटिन्स की नयी दिल्ली की रचना में एक अहम सड़क थी। पुराने समय में इसे ‘क्वीन्स वे’ (रानी का मार्ग) कहा जाता था।

हालाँकि इसका नाम ‘जनपथ’ है, लेकिन इसपर कई महत्त्वपूर्ण वास्तुएँ एवं कार्यालय भी हैं।

राजपथ और जनपथ के बाद अब चलते हैं, ‘इंडिया गेट’ की ओर और जी हाँ, ‘अमर जवान ज्योति’ की ओर। उसके बाद हमारे संसदीय जनतन्त्र का आधारस्तम्भ रहनेवाले ‘संसद भवन’ को भी देखेंगे, लेकिन बाहर से ही।

‘इंडिया गेट’ यह एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय स्मारक है। दूर से देखा जाये तब भी आसानी से दिखायी देनेवाली यह वास्तुरचना है। यह पत्थरों से बनायी गयी एक ऊँची कमान है और इसकी रचना भी नयी दिल्ली की रचना करनेवाले ‘लुटिन्स’ द्वारा की गयी है।

दर असल यह रचना महज़ राष्ट्रीय स्मारक नहीं है, बल्कि अनगिनत अनामिक सैनिकों की स्मृति भी है, जिनके नाम शायद इतिहास भी नहीं जानता।

भारत पर राज करनेवाले अँग्रेज़ों की सेना में भारतीय सैनिक भी थे। अँग्रेज़ो के दुश्मन के साथ जंग लड़ने के लिए भारतीय सैनिकों को भी भेजा जाता था, क्योंकि इस देश पर और यहाँ के नागरिकों पर शासन तो अँग्रेज़ो का ही था। अँग्रेज़ो के लिए जंग लड़नेवाले कुल ९०,००० सैनिकों की याद को ‘इंडिया गेट’ के रूप में लुटिन्स की दिल्ली में जतन किया गया। पहले विश्‍वयुद्ध में एवं तीसरे अँग्लो-अफ़गान युद्ध में शहीद हो चुके जवानों की यह स्मृति है। लाल रंग के पत्थर और ग्रॅनाइट इनसे ‘इंडिया गेट’ का निर्माण किया गया है।

जब भारत आज़ाद हुआ तब इस इंडिया गेट की कमान के नीचे ही आज़ाद भारत के अनगिनत ज्ञात एवं अज्ञात वीर सैनिकों की स्मृति जतन की गयी।

जिनके बल पर हम आम नागरिक निर्भयतापूर्वक जीते हैं, जागते-सोते है, हमारे काम करते है ऐसे अनगिनत वीर जवानों की इस स्मृति को विनम्र अभिवादन।

मातृभूमि के लिए और हम सब भाई-बहनों के लिए जान दाँवपर लगाकर लड़नेवाले हमारे बहादुर जवानों को सम्मानपूर्वक लाखों सलाम।

दिल्ली, इतिहास, अतुलनिय भारत, अमर जवान ज्योति, दिल्ली, भारत, भाग-६१९७१ के बाद ‘इंडिया गेट’ की छत्रछाया में मौजूद है, अनगिनत अमर वीर भारतीय जवानों की स्मृति – ‘अमर जवान ज्योति’ इस नाम से।

काले रंग के संगेमर्मर से बना यह चबूतरा। उसके चारां कोनों में नित्य निरन्तर जलते रहनेवाली चार मशाले हैं। काले रंग के चबूतरे पर विराजमान है, जवान की रायफल और उसपर है शिरस्त्राण (लोहे का टोप) और यही है अनगिनत सैनिकों की स्मृति। इस चबूतरे के चारों तऱङ्ग स्वर्णाक्षरों में कुरेदा गया है – ‘अमर जवान’।

आपने दूरदर्शन पर कई बार इस ‘अमर जवान ज्योति’ को देखा ही होगा। राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री इनके साथ ही देश में आनेवाले अन्य देशों के मुख्य अतिथियों को भी यहाँ आते हुए आपने देखा होगा।

कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले हुए हमारे इस विशाल भारत देश में कई छोटे बड़े राज्य है। इनपर केन्द्रवर्ती शासन दिल्ली से किया जाता है। प्रत्येक राज्य स्तर पर विशिष्ट पद्धति से शासन किया जाता है, लेकिन प्रत्येक राज्य में से निर्धारित संख्या में उम्मीदवार चुनाव जीतकर संसद में जनप्रतिनिधी बनकर जाते हैं। यह ‘संसद भवन’ यानि ‘पार्लमेंट हाऊस’ ही जनतन्त्र का आधारस्तम्भ है, जहाँ से जनप्रतिनिधी, प्रधानमन्त्री और उनका मन्त्रीमण्डल देश की जनता के विकास एवं हित के कार्य करते हैं।

इस गोलाकार संसद भवन की रचना लुटिन्स और हर्बर्ट बेकर ने की। नयी दिल्ली की रचना करते समय ही इसे बनाया गया। इस इमारत की नींव फरवरी १९२१ में रखी गयी। छह साल बाद इसका निर्माणकार्य पूरा हो गया और १९२७ में इसका उद्घाटन तत्कालीन गर्व्हनर जनरल द्वारा किया गया। उस ज़माने में इसे बनाने में कुल ८३ लाख रुपये खर्च हुए थे, ऐसा कहा जाता है। लगभग छह एकर्स की ज़मीन पर यह संसद भवन बना है।

बाहर से देखने पर इस गोलाकर संसद भवन में सिर्फ़ बड़े बड़े खम्भे ही दिखायी देते हैं। कुल मिलाकर १४४ ग्रॅनाईट के स्तम्भ बाहरी छत को सहारा दे रहे हैं और इसीलिए बाहर से हमें खम्भों की गोलाकार माला ही दिखायी देती है। अब हम दूरदर्शन के जरिये संसद के भीतरी दृश्य भी घर बैठे देख सकते हैं।

ढिल्ली नाम का एक छोटासा गाँव। समय के साथ साथ विकसित होते होते आज की दिल्ली में रूपान्तरित हो गया। इस दिल्ली ने अतीत में और वर्तमान में भी कई मानवनिर्मित आपत्तियों का मुक़ाबला किया है। फिर वह किसी महत्त्वपूर्ण राजकीय व्यक्तित्व पर हुए हमले के रूप में हो, या राष्ट्रीय महत्त्वपूर्ण वास्तु पर हुए हमले के रूप में हो। देश की राजधानी रहनेवाली महत्त्वपूर्ण एवं केन्द्रवर्ती दिल्ली ने सामान्य एवं बेक़सूर नागरिकों की चीखें भी सुनी है और देखी भी हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दिल्ली ने सिर्फ़ दुख की घटनाओं को ही देखा है। भारत की स्वतन्त्रता के अत्युच्च सुख का पल भी उसने देखा है और इन सब यादों को अपने मन की तिजोरी में सँभालकर रखा भी हैं।

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