दार्जिलिंग की चाय – दार्जिलिंग भाग – ३

Darjeeling_Tea

सुबह होते ही हररो़ज लगभग सभी घरों में एक बात समान रूप से होती है और वह है, सुबह की चाय।दार्जिलिंग की टॉय ट्रेन इस ख़ासियत के बारे में हमने गत लेख में जानकारी प्राप्त की। अब दार्जिलिंग की दूसरी ख़ासियत के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं और वह है, दार्जिलिंग टी (दार्जिलिंग की चाय)।

भारतवर्ष में कईं स्थानों पर चाय की उत्पाद की जाती है। उनमें से दार्जिलिंग की चाय की अपनी एक विशेषता है। दार्जिलिंग की चाय एक ख़ास उत्तम दर्जे की चाय मानी जाती है। यह चाय ‘ब्लॅक टी’ इस नाम से परिचित है।

दार्जिलिंग में चाय की खेती की शुरुआत अंग्रे़जों के दार्जिलिंग में बसने के साथ ही हुई। अंग्रे़जों ने जिन डॉ. कॅम्पबेल को सबसे पहले दार्जिलिंग भेजा था, उन्हीं डॉ. कॅम्पबेल ने यहाँ पर चाय की खेती की शुरुआत की। इसवी १८३९ में दार्जिलिंग पहुँचे डॉ. कॅम्पबेल इसवी १८४१ में कुमाऊँ से चाय के बीज ले आए और वे जहाँ पर रहते थें, वहाँ पर अर्थात् बीचवूड विभाग में समुद्री सतह से २००० मीटर्स की ऊँचाई पर उन्हें बोया। डॉ. कॅम्पबेल का यह प्रयोग सफल   सिद्ध हुआ और उनके बाद दार्जिलिंग में बसने आये कईं अंग्रे़जों ने भी वहाँ पर विभिन्न स्थानों पर चाय की खेती की शुरुआत की और यहीं से दार्जिलिंग में कई ‘टी इस्टेट्स’ या ‘चाय के बागान’ फूलने  लगें। इसवी १८४७ में अंग्रे़ज सरकार ने यहाँ चाय के पौधों की नर्सरी की शुरुआत करने का फैसला कर लिया। प्रारंभिक पर्व में दार्जिलिंग में चाय की खेती करने की सारी कोशिशें प्रायोगिक रूप से ही की गई थीं। इसवी १८५२ से दार्जिलिंग के सभी चाय बागानों में सरकार की नर्सरी में निर्माण किये गये बीजों का ही इस्तेमाल किया जाने लगा। इसवी १८५६  के आसपास दार्जिलिंग की यह चाय की खेती सिर्फ प्रायोगिक रूप में न रहते हुए चाय की खेती के कार्य ने काफी जोर पकड़ लिया और दार्जिलिंग में चाय के कईं बागान ते़जी के साथ फूलने  लगे।

दार्जिलिंग की चाय की बागानें वहाँ के स्थानीय निवासियों के लिए रो़जगार का एक बहुत बड़ा साधन है। दार्जिलिंग की चाय सिर्फ हमारे भारत में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में उसके ख़ास स्वाद के लिए मशहूर है। चाय के इस स्वाद की विशेषता का कारण दार्जिलिंग की मिट्टी में छिपा है, वहाँ के वातावरण में छिपा है। दार्जिलिंग का शीतल एवं नमींयुक्त मौसम, वहाँ की बारिश, वहाँ की जमीन और दार्जिलिंग की ऊँचाई, इन सभी बातों का उस चाय के लाजवाब स्वाद में योगदान है।

दार्जिलिंग में ग्रीन टी, उलोंग टी, व्हाईट टी इन अन्य क़िस्म के चाय की भी बागानें हैं; लेकिन दार्जिलिंग की ख़ासियत है, ‘ब्लॅक टी’। इस ब्लॅक टी का स्वाद अन्य प्रकार की चाय की तुलना में काफी समय तक क़ायम रहता है। दार्जिलिंग की चाय भी, बागानों में चाय की पत्तियों को हाथ से तोड़ा जाता है और इस काम में सबसे आगे रहती हैं, वहाँ की महिलाएँ। फिर इन पत्तियों को इकट्ठा करके उनपर विभिन्न प्रक्रियाएँ की जाती हैं और अन्त में तैयार हो जाती है, दार्जिलिंग की ख़ास चाय की पत्ती।

लेकिन दार्जिलिंग की चाय की ख़ासियत के कारण और उसकी बढ़ती हुई माँग के कारण आज इस चाय को मिलावट और नक़ली उत्पाद इन बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार दुनियाभर में प्रतिवर्ष दार्जिलिंग टी इस नाम से करीबन् ४०००० टन चाय बेची जाती है। लेकिन दरअसल दार्जिलिंग में सालभर में लगभग १०००० टन चाय की ही उत्पाद होती है। इसी कारण इस समस्या से निपटने के लिए ‘टी बोर्ड ऑफ  इंडिया’ ने ‘दार्जिलिंग टी’ के कुछ मानक प्रमाणित किये हैं। उनके अनुसार ‘टी बोर्ड ऑफ  इंडिया’ के मानकों की पूर्ति करनेवाली, दार्जिलिंग तथा उसके आसपास के प्रदेश में उपजनेवाली और विभिन्न प्रक्रियाओं के द्वारा तैयार की जानेवाली चाय को ही ‘दार्जिलिंग चाय’ माना जाता है।

ख़ैर, दार्जिलिंग की चाय का शाब्दिक स्वाद हमने चख लिया। अब फिर  एक बार दार्जिलिंग की सैर करते हैं।

अंग्रे़जो ने जहाँ जहाँ अपने उपनिवेश स्थापित किये, वहाँ वहाँ उन्होंने शिक्षासंस्थानों की स्थापना भी की। फिर  भला दार्जिलिंग इसके लिए अपवाद कैसे हो सकता है? अंग्रे़जों ने भारत के हिल स्टेशन्स पर स्थापित शिक्षासंस्थान छात्रों के आकर्षण का विषय बनने लगीं और फिर  कईं छात्र वहाँ पर अध्ययन के लिए जाकर रहने लगे। अर्थात् इसमें हिल स्टेशन का मौसम तथा शिक्षा का उत्तम दर्जा इन बातों का अन्तर्भाव था ही।

दार्जिलिंग की ‘सेंट पॉल्स् स्कूल’ का इतिहास बहुत ही रोचक है। दर असल इस स्कूल की नींव इसवी १८२३ में कोलकाता में रखी गयी। इस स्कूल की शुरुआत एक अलग नाम से कोलकाता में की गई थी। इसवी १८४६ में इस स्कूल का नामकरण ‘सेंट पॉल्स् स्कूल’ किया गया। इसवी १८६४ में किसी कारणवश इस स्कूल को कोलकाता से दार्जिलिंग ले जाया गया और इसवी १८६४ से इस स्कूल का कार्य दार्जिलिंग में शुरू हुआ।

इसवी १८८८  में एक बेल्जियन जेसुइट धर्मोपदेशक ने दार्जिलिंग में ‘सेंट जोसेफ कॉलेज’ की स्थापना की।

वहीं इसवी १८९५ में ‘माऊंट हरमन स्कूल’ की स्थापना की गयी। दर असल इस स्कूल का नाम पहले ‘क्वीन हिल स्कूल’ था और वह सिर्फ कन्याओं के लिए ही चलायी जाती थी। इस स्कूल में लड़कों को भी प्रवेश दिया जाने लगा, तब इसवी १९३०  में इस स्कूल का नाम बदलकर वह ‘माऊंट हरमन स्कूल’ किया गया।

दार्जिलिंग में भी अंग्रे़जों ने अपने एक उपनिवेश का निर्माण किया। उनके वहाँ बस जाने के कारण वहाँ की आबादी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। अंग्रे़जों ने फिर  वहाँ पर अपने इस्तेमाल के लिए कईं वास्तुओं का निर्माण किया। भारत की न सही जानेवाली गर्मी से छुटकारा पाना, यह अंग्रे़जों का दार्जिलिंग जाकर रहने के पीछे एक प्रमुख उद्देश्य था और इसी कारण उन्होंने उनके निवास हेतु दार्जिलिंग में कईं वास्तुओं का निर्माण किया। दार्जिलिंग में आज भी उस जमाने में ब्रिटीश शैली में निर्माण की गयी वास्तुओं को हम देख सकते हैं। राजभवन, प्लान्टर्स क्लब और कुछ शिक्षा संस्थाएँ ये उस जमाने में निर्माण की गयी वास्तुएँ हैं।

दार्जिलिंग में स्थित राजभवन यह भारत के ब्रिटीश गव्हर्नर जनरल का गर्मियों में होनेवाला निवासस्थान है। बाकी के मौसम में कोलकाता में रहनेवाला ब्रिटीश गव्हर्नर जनरल गर्मी से बचने के लिए अपने पूरे ऑफिस के साथ दार्जिलिंग आकर रहता था।

दार्जिलिंग और चाय के बीच के अटूट रिश्ते को हम पहले ही देख चुके हैं। इन ‘टी इस्टेटों’ की कठिनाइयाँ दूर करने के लिए इसवी १८९२ में ‘दार्जिलिंग प्लान्टर्स क्लब’ की स्थापना की गयी।

दार्जिलिंग और चाय का रिश्ता जिस प्रकार अटूट है, उसी प्रकार दार्जिलिंग और पहाड़ों का भी अटूट रिश्ता है। आज के जमाने में गिर्यारोहण (माऊंटेनियरिंग) यह कुछ नया विषय नहीं है, लेकिन जब तेनसिंग नोर्के और एडमंड हिलरी इन्होंने माऊंट एव्हरेस्ट पर झंडा लहराया , उस जमाने में तो गिर्यारोहण यह कुतूहल, आकर्षण, साहस और हिम्मत का विषय था। फिर   स्वाभाविक रूप से दार्जिलिंग में विद्यमान इन पहाड़ों में लोगों को गिर्यारोहण में प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से ४ नवम्बर १९५४  को ‘द हिमालयन माऊंटेनियरिंग इन्स्टिट्यूट’ की स्थापना की गई। यहां गिर्यारोहण के विषय में प्राथमिक तथा प्रारंभिक ट्रेनिंग से लेकर अ‍ॅडव्हान्स ट्रेनिंग तक दी जाती है।

आज के दार्जिलिंग की युवा पीढ़ी उनके हुनर को प्रस्तुत करने के लिए १० दिन के दार्जिलिंग कार्निव्हल का आयोजन करती है। इसके अन्तर्गत संगीत, कविता, चित्रकला आदि विभिन्न कलाओं को प्रस्तुत किया जाता है। सारांश यह है कि दार्जिलिंग की एक सांस्कृतिक झलक इसमें दिखाई देती है।

दर असल हर एक मनुष्य को इस सृष्टि का निर्माण करनेवाले भगवान का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उन्होंने इस सृष्टि में क्या कुछ नहीं बनाया; कहीं समुद्र, कहीं जंगल, कहीं झरनें, कहीं नदियाँ, तो कहीं मीलों फैला हुआ शुभ्रधवल हिमालय और इसी हिमालय में दार्जिलिंग जैसा एक स्थान बनाया, हमें आनन्द प्रदान करने के लिए।

 

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