चंबा भाग-४

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चंबा और उसके आसपास के इलाक़े की आबोहवा साल भर ‘कूल’ ही रहती है। इस प्रदेश के ‘कूल’ रहने का कारण है, हिमालय का अखंड सामीप्य। तो ऐसे इस ‘कूल’ चंबा के बारे में हम जानकारी प्राप्त कर रहे हैं।

चंबा के राजाओं ने उनके निवासस्थान के रूप में जिसका निर्माण किया था, उस ‘अखंड चंडी पॅलेस’ को देखते हैं। ‘अखंड चंडी पॅलेस’ के दर्शनी हिस्से को हम देख ही चुके हैं। आइए अब उसके अन्तरंग में प्रवेश करते हैं।

चंबा के शासकों द्वारा बनाये गये इस ‘अखंड चंडी पॅलेस’ पर साधारणत: २०वीं सदी के मध्य में राज्य शासन का अधिकार स्थापित हो गया। उसके बाद यहाँ पर कॉलेज एवं लायब्ररी की भी स्थापना की गयी।

इस तरह ‘अखंड चंडी पॅलेस’ का राजा का महल यह रूप पूरी तरह बदल गया। लेकिन यहाँ के राजाओं ने ही उनके शासनकाल में इस पॅलेस की सुन्दरता को बढ़ाने की विभिन्न कोशिशें कीं, जिससे कि आज भी इस पॅलेस के भीतर विभिन्न प्रकार का ऩक़्क़ाशीकाम, काँच तथा लकड़ी पर किया गया ऩक़्क़ाशीकाम, यहाँ के छत पर रहनेवाली ख़ास ऩक़्काशियाँ और रंगों से सजी धजी दीवारें हम देख सकते हैं। लेकिन समय किसी के लिए नहीं रुकता। ‘अखंड चंडी पॅलेस’ की इस लुभावनी खूबसूरती के लिए भी वह नहीं रुका और यहाँ की रचनाओं तथा ऩक़्क़ाशीकाम पर भी उसका असर हमें दिखायी देता है।

‘रंग महल’ यह अपने नाम की तरह ही रंगों में नहाया हुआ है। इस ‘रंग महल’ का निर्माण १८वीं सदी के मध्य में चंबा के शासक रहनेवाले ‘राजा उमेदसिंहजी’ ने किया। यह चंबा शहर की एक बहुत ही लुभावनी एवं विशाल वास्तु है।

इस ‘रंगमहल’ के निर्माण में चंबा के अन्य एक शासक ‘राजा श्रीसिंहजी’ का भी योगदान है। इस महल का दक्षिणी दिशा का ईंटों से बना हिस्सा १९वीं सदी के मध्य के बाद इन्हीं श्रीसिंहजी नाम के राजा ने बनाया है, ऐसा कहा जाता है। इस रंगमहल की रचना पर भी ब्रिटीश एवं मुग़ल वास्तुशैली का प्रभाव दिखायी देता है। कहा जाता है कि इस रंगमहल की रचना को बढ़ानेवाले शासकों में ‘जीतसिंहजी’ एवं ‘चरणसिंहजी’ इनका भी समावेश होता है।

इस ‘रंग महल’ की दीवारों पर पहाड़ी चित्रशैली के चित्रों का बहुत बड़ा खज़ाना है, ऐसा कहा जाता है। लेकिन प्रत्येक चराचर पर होनेवाले समय के असर को देखते हुए इन चित्रों को सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखने के लिए उन्हें म्युज़ियम में रखा गया है। इस ‘रंग महल’ की सिर्फ़ दीवारें ही रंगी गयी हैं ऐसा नहीं है; बल्कि यहाँ के दरवाज़ों को भी विभिन्न रंगों से रंगा गया है।

यह ‘रंग महल’ किसी ज़माने में अनाज का भंडार और खज़ाना हुआ करता था।

आज यह ‘रंग महल’ भी ‘अखंड चंडी पॅलेस’ की तरह ही राज्य शासन के अधिकार में है। चंबा के मेहनती निवासी हस्तकौशल के व्यवसायकाफ़ी पहले से करते आ रहे हैं और आज भी चंबा और उसके आसपास के इलाक़ों में ये व्यवसाय किये जाते हैं। ‘रंग महल’ यह हस्तकौशल से संबंधित व्यवसायों का नैहर बन चुका है।

इस पहाड़ी इलाक़े में अनोखे कुदरती नज़ारें दिखायी देते हैं। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता आपको तरोताज़ा कर देती है, आपकी नस नस में नयी चेतना जगाती है; लेकिन कभी कभी प्रकृति इतना रौद्र रूप धारण कर लेती है कि कईं दिनों तक घर से बाहर निकलना भी नामुमक़िन हो जाता है। फिर इन हालातों में रोज़ीरोटी कमाने के साधन के रूप में एवं समय का भी सदुपयोग करने के लिए ये हस्त-कौशल के व्यवसाय ही मददगार साबित होते हैं।

चंबा की इस ऐतिहासिक भूमि में इतनी ख़ासियतें हैं कि उनकी गिनति करना भी संभव नहीं है। यहाँ के कईं इलाक़ों में प्राचीन समय से ताम्रपट, शिलालेख आदि पाये जाते हैं। यदि ये सभी एकत्रित रूप में देखने मिल जाये तो प्राचीन चंबा से लेकर आज तक के चंबा का सफ़र एक ही झलक में दिखायी देगा।

कुछ ऐसी ही कोशिश ‘भूरीसिंह म्युज़ियम’ के रूप में की गयी है। राजा भूरीसिंह ने उनके चंबा के शासनकाल में ही इस म्युज़ियम की स्थापना की। इसकी स्थापना सितंबर १९०८ में हुई। भूरीसिंहजी ने १९०८ से लेकर १९१९ तक चंबा पर शासन किया और उन्हीं का नाम इस म्युज़ियम को दिया गया।

इस म्युज़ियम की आरंभकथा भी बड़ी रोचक है। राजा भूरीसिंहजी ने उन्हें विरासत में मिले हुए पहाड़ी चित्रशैली के चित्रों का खज़ाना उनकी प्रजा देख सके, इस उद्देश्य से देने की इच्छा ज़ाहिर की और इसीमें से इस ‘भूरीसिंह म्युझियम’ का जन्म हुआ।

चंबा और उसके आसपास के प्रदेश में पाये गये कईं मध्यकालीन शिलालेख, ताम्रपट, ताम्रपत्र आदि जगह जगह बिखरे हुए थे। उनमें से अधिकतर शिलालेख, ताम्रपट ये शारदा लिपि में लिखे गये हैं। ये शिलालेख आदि इस प्रदेश के इतिहास को जानने का एक प्रमुख साधन है। ये शिलालेख आदि ही मध्यकालीन चंबा के स्वरूप एवं उसके स़ङ्गर को उजागर करते हैं। कईं जगह बिखरे हुए इन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को उनके हक़ के घर में रखा गया यानि कि म्युज़ियम के छत के नीचे महफूज़ रखा गया।

साथ ही यहाँ पर पहाड़ी चित्रशैली के चित्रों का बहुत बड़ा खज़ाना उपलब्ध है।

इन दो महत्त्वपूर्ण बातों के साथ साथ यहाँ की तीसरी ख़ास बात है, यहाँ पर किया गया अन्य वस्तुओं का संग्रहीकरण। चंबा के सफ़र को साकार करने में मददगार साबित होते हैं – यहाँ पर किया गया सिक्कों का संग्रह, यहाँ के निवासियों की पोशा़कें, राजा-रानियों की पोशा़कें, स्थानीय लोगों के तथा राजा-रानियों के गहनें, विभिन्न कालावधियों में इस्तेमाल में लाये गये अस्त्र-शत्र और शोभावर्धक वस्तुएँ।

हमने जिन हस्तकौशल की वस्तुओं का ज़िक्र किया, उनके भी नमूनें यहाँ पर रखे गये हैं।

कहा जाता है कि छठवी सदी की वस्तुओं से लेकर पिछली सदी तक की वस्तुओं को इस म्युज़ियम में जतन किया गया है। संक्षेप में, ‘भूरीसिंह म्युझियम’ यह इतिहास का गवाह है।

‘भूरीसिंह म्युझियम’ की आरंभिक वास्तु का नयी शैली द्वारा पुनर्निर्माण किया गया है। १९७५ में बनी नयी वास्तु में भूरीसिंह म्युज़ियम का स्थानान्तरण हो गया।

इस लेख में कईं बार पहाड़ी चित्रशैली का उल्लेख किया गया है। इसके नाम से शायद आपने अँदाज़ा भी लगाया होगा कि यह चंबा की एक ख़ास प्रकार की चित्रकला रहेगी। जी हाँ! इस पहाड़ी चित्रशैली का हम संक्षेप में अध्ययन करते हैं; क्योंकि यह पहाड़ी चित्रशैली यहाँ के जनजीवन का सचित्र रूप है।

‘पहाड़ी चित्रशैली’ इस नाम से ही हमारी समझ में यह आता है कि इस चित्रशैली-चित्रकला का उद्गम एवं विकास पहाड़ी प्रदेश में हुआ है।

चित्रकला विशेषज्ञों की राय में राजस्थान की चित्रकला का इस पहाड़ी चित्रकला पर काफ़ी प्रभाव है। पहाड़ी चित्रशैली की परिधि बहुत ही व्यापक है। हिमालय के बसौली, नूरपूर, कांगड़ा, चंबा, मंड़ी, गढ़वाल, मनकोट, गुलेर, सुकेत इन प्रदेशों में इस चित्रशैली का उद्गम तथा विकास हुआ अर्थात् इन प्रदेशों में बनाये गये ख़ास शैली के चित्र ‘पहाड़ी चित्रशैली के चित्र’ माने जाते हैं।

१७वीं सदी में इस पहाड़ी चित्रशैली का उद्गम हुआ और वह विकसित होते होते चरमसीमा तक पहुँच गयी। साधारणत: १७वीं सदी से लेकर १९वीं सदी तक का समय इस पहाड़ी चित्रशैली के उद्गम-विकास एवं उत्कर्ष का समय माना जाता है।

इन चित्रों के विषय मुख्यत: मानवीय जीवन से जुड़े हुए रहते हैं। साथ ही पहाड़ी प्रदेश की प्राकृतिक सुन्दरता की झलक भी इन चित्रों में दिखायी देती है। यहाँ के झरनें, पेड़पौधें, फूलपत्ते, पशुपंछी इनके साथ साथ कुदरती नज़ारों को भी इनमें चित्रित किया जाता है।

पहाड़ी चित्रों का दूसरा प्रमुख विषय है – ऐतिहासिक, पौराणिक कथा-प्रसंगों का प्रस्तुतीकरण। यहाँ के चित्रों में कभी श्रीराम के दर्शन होते हैं तो कभी श्रीकृष्ण के, कभी यशोदामैया से मुलाक़ात होती है तो कभी बालकृष्ण की शिकायत करनेवाली गोपियों से, कभी साक्षात् शिव-पार्वती के भी दर्शन होते हैं।

सारांश, रंग-रेखाओं के माध्यम से ये चित्र मानवी जीवन को स्पर्श करते हैं और घड़ी भर के लिए ही सही, मग़र मानव के मन को निर्मल आनन्द प्रदान करते हैं।

यह कुदरती खूबसूरती से भरपूर रहनेवाला चंबा हमारे मन को इस क़दर मोह लेता है कि यहाँ से जाने का मन ही नहीं करता। तो फिर थोड़ी देर रुककर अगले ह़फ़्ते चंबा के ही प्रदेश के एक और यादगार खूबसूरत नज़ारे को देखते हैं।

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