काशी भाग-७

काशीनगरीकाशीनगरी के बारे में अधिकतर जानकारी प्राप्त करने के लिए जैसे-जैसे काशी के अन्तरंग में झाँकने का प्रयास शुरू किया, वैसे-वैसे काशी नगरी ही अपने स्वयं के कईं पहलुओं को स्वयं ही उजागर करने लगी।

भूतकाल तथा वर्तमानकाल में कई लोग काशी नगरी में आए, वहाँ से चले गए, काशी में ह़़जारों घटनाएँ घटी, लेकिन काशी के कई स्थान वैसे ही अबाधित रहे, इतिहास के गवाह बन गए।

काशीनगरी के इस पूरे इतिहास तथा वर्तमान की एक प्रमुख गवाह है गंगा नदी। काशी जहाँ बसी हुई है, उस स्थान पर गंगाजी दक्षिण-उत्तरी दिशा में तकरीबन ६ कि.मी. धनुष्याकृति आकार में मुड़ गई हैं और इसी स्थान पर काशी बसी हुई है। लेकिन गंगाजी के जिस तीर पर काशी बसी हुई है, उसका सामनेवाला तीर अर्थात् गंगाजी का दूसरा तीर तो बिल्कुल सुनसान है।

‘सुरतना जमण अने काशीना मरण’ ऐसी एक कहावत प्रचलित है। ‘काशीना मरण’ इसका अर्थ है काशी में आयी हुई मृत्यु सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम मानी जाती है। काशी में मृत्यु होने से मुक्ति प्राप्त होती है, यह संकल्पना भारतीय जनमानस में इतनी दृढ़ है कि अनगिनत जीव मुक्ति की आस लेकर काशी में आते रहते हैं और मणिकर्णिका के घाट पर प्रतिदिन अनगिनत मृतदेह चिता के स्वाधीन किये जाते हैं। लेकिन इसी से उद्भवित होनेवाला दूसरा एक पहलु भी है। काशी में कई बार ऐसे कई मृतदेह बिना जलाये ही गंगाजी के स्वाधीन किये जाते हैं और इससे उद्भवित प्रमुख समस्या है, गंगा नदी में फैलनेवाली अस्वच्छता तथा गंगा नदी में होनेवाला प्रदूषण। क्योंकि इनमें से कई मृतदेह विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त हुए होते हैं। इसी कारण इन मृतदेहों के गंगा नदी में विसर्जन के कारण गंगा नदी केवल अशुद्ध, अपवित्र ही नहीं होती,तो गंगा नदी का पानी बड़ी आसानी से कईं रोगजन्तुओं का आश्रयस्थान बन जाता है।

गंगा नदी के पानी के इस प्रदूषण एवं अशुद्धि को रोकने के लिए शासकीय स्तर पर प्रयास किये गए, लेकिन उसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई।
जिस काशी के घाटों ने इतने चित्रकारों को उनकी कला को कॅनव्हास पर रेखांकित करने के लिए प्रेरित किया, वह काशी क्या चित्रकला के मामले में पीछे रहेगी?

राजस्थानी, कांगड़ा आदि चित्रशैलियों के समान काशी की भी एक स्वतन्त्र चित्रशैली है। पूर्वापार चले आ रहे काशी के माहात्म्य से इस चित्रशैली का विकास हुआ है। काशी की चित्रशैली में विभिन्न चित्रशैलियों का मिश्रण दिखाई देता है और साथ ही काशी की लोककलाओं का भी इस चित्रशैली के विकास में योगदान रहा है। काशी को भित्तिचित्रों की बहुत पुरानी परम्परा प्राप्त हुई है। काशी की चित्रशैली में अर्थात् काशी के चित्रकारों ने जिस विशिष्ट प्रकार के और पद्धति के चित्र बनाये, उनसे दर्शन-भारतीय दर्शनशास्त्र, भारतीय अध्यात्म तथा आदर्शवाद आदि प्रवृत्तियों की झाँकी दिखाई देती है। काशी की इस चित्रकला में प्राणियों के चित्र हैं। काशी के चित्रों में वस्तु और मनुष्य इनकी संख्या कम होती है। ये चित्र आकार में बड़े होते हैं और दूर से भी साफ़ दिखाई देते हैं।

स्कूल में इतिहास पढ़ते समय काशी का नाम कहीं तो पढ़ा था ऐसा याद है और याद आया गागाभट्ट का नाम।
काशी के इस गागाभट्ट ने ही छत्रपति शिवाजीमहाराज का राज्याभिषेक किया था। गागाभट्ट का घराना मूलतः पैठण का था, जो आगे चलकर काशी में क़ायम निवास करने लगे। इस घराने में कई विद्वान पुरुष हुए। गागाभट्ट उनमें से दिनकरभट्ट के पुत्र थे। गागाभट्ट विद्वान थे और उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की थी।

इसी काशी में जयपूर के महाराजा जयसिंग द्वारा निर्मित जन्तरमन्तर है। इस खगोल शास्त्र के अभ्यासक राजा ने इसवी १७३७ में वाराणसी में जन्तरमन्तर का निर्माण किया। ऐसा कहा जाता है कि वाराणसी में स्थित यह जन्तरमन्तर और दिल्ली, मथुरा, उज्जैन तथा जयपूर इन अन्य चार शहरों में बनाए गएँ जन्तरमन्तर एक ही रेखा में स्थित हैं। स्थानिक समय, सूर्यास्त-सूर्योदय, ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण आदि बातों की जानकारी प्राप्त करने के लिए इस जन्तरमन्तर का निर्माण किया गया था। इन बातों के निर्धारण के लिए अन्य जन्तरमन्तरों की तरह वाराणसी के जन्तरमन्तर में भी खास यन्त्रों का निर्माण किया गया था, अर्थात् ये यन्त्र उस समय में पत्थर या अन्य उपलब्ध सामग्री से बनाये गए थें। क्रांतिवृत्त यंत्र, राम यंत्र, दिशा यंत्र, दिगंश यंत्र, ध्रुव यंत्र, प्रकाश यंत्र और सम्राट यंत्र  ये उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण यन्त्र हैं। लेकिन इन यन्त्रों का निर्माण इतनी अचूकता से किया गया है कि आज भी ये यन्त्र अचूक मापन करते हैं।

काशी का एक नाम बनारस भी है। इसी कारण बनारस का नाम लेते ही आसानी से दो ची़जें याद आती हैं – ‘बनारसी पान’ तथा ‘बनारस सिल्क’ और इनके साथ ही बनारस का नाम एक और बात से जुड़ा हुआ है और वह है, ‘बनारस के ठग’।

पाप से मुक्ति दिलानेवाली नगरी काशी इस वचन का आधार लेकर ठगों अर्थात् चोर-उचक्कों ने पूर्वापार काशी को अपना आश्रयस्थान बनाया है। प्राचीन साहित्य में भी बनारस यह ठगों की नगरी होने का वर्णन प्राप्त होता है। अर्थात् इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण बनारस का पूर्वापार होनेवाला व्यापारी महत्त्व। प्राचीन काल से ही जिस नगरी में व्यापार चलता था, उस व्यापार के लिए बाहरी प्रान्तों से व्यापारी उस नगरी में आते थे और साथ ही उस नगरी में भी व्यापारी तो थें ही। फिर जहाँ धनदौलत या वैभव दिखाई दें, वहाँ चोर तो आयेंगे ही। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है प्राचीन काल से चला आ रहा काशी का स्थानमाहात्म्य। इस स्थानमाहात्म्य के कारण इस तीर्थस्थल पर पूरे सालभर भक्तों की भीड़ तो होगी ही। फिर जहाँ पर व्यापार की धनदौलत है और लोगों की ऐसी भीड़ है, वहाँ चोर हों, इसमें भला आश्चर्य कैसा! और काशी का नाम जितना बड़ा, उतना ही बड़ा वहाँ के ठगों का नाम।
बनारस की दूसरी प्रसिद्ध ची़ज है, वहाँ का सिल्क। बनारसी सिल्क साड़ी यह तो स्त्रियों का पसन्दीदा और आत्मीयता का विषय।
काशी का वस्त्र तो पूर्वापार उसके उच्च स्तर के लिए विख्यात था ही। काशी के हजारों बुनकरों ने इस बनारस सिल्क को प्रसिद्ध किया है। मुघलों के काल से ही इस सिल्क की प्रसिद्धि होने लगी, जो आज तक क़ायम है।

बनारसी साड़ियों के प्युअर सिल्क, ऑरगंजा, जॉर्जेट तथा शत्तीर ऐसे चार प्रकार हैं। इन साड़ियों को बुनने के लिए सबसे पहले पावरलूम पर साड़ियों का बेसिक स्ट्रक्चर बुना जाता है और बाद में उस पर विभिन्न प्रकार की नक्काशी बुनी जाती है। ये नक्काशियाँ विभिन्न रंगों के धागों से बुनी जाती हैं। बनारसी सिल्क साड़ी बुनने की कला बनारस के बुनकरों को विरासत में मिली है। साड़ी बुनने के लिए लगनेवाला समय उसके प्रकार पर निर्भर करता है। इसीलिए एक साड़ी बनने के लिए १५ दिनों से लेकर एक महीना या फिर छः महीने भी लग सकते हैं।

कला, अध्यात्म, ज्ञान इनके तेज से हमेशा प्रकाशमान होती रही काशी, इसका प्रकाश ही इतना अलौकिक है कि आज भी भारतीय समाजमन में उसका स्थान क़ायम है।

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